अन्नमय कोश: ३ – अन्नमय कोश की शुद्धि के चार साधन — २. आसन
गायत्री के पांच मुख पांच दिव्य कोश : अन्नमय कोश – ३
अन्नमय कोश की शुद्धि के चार साधन — २.आसन
ऋषियों ने आसनों को योग साधना मे इसलिए प्रमुख स्थान दिया है क्योकि ये स्वस्थ्य रक्षा के लिए अतीव उपयोगी होने के अतिरिक्त मर्म स्थानों मे रहने वाली ‘ हव्य- वहा ‘ और ‘कव्य- वहा ‘ तडित शक्ति को क्रियाशील रखते हैं| मर्म स्थल वे हैं जो अतीव कोमल हैं और प्रकृति ने उन्हें इतना सुरक्षित बनाया है की साधारणतः उन तक वाह्य प्रभाव नहीं पहुचता |
आसनों से इनकी रक्षा होती है | इन् मर्मों की सुरक्षा मे यदि किसी प्रकार की बाधा पड जाए तो जीवन संकट मे पड सकता है | ऐसे मर्म स्थान उदर और छाती के भीतर विशेष हैं | कंठ -कूप , स्कन्द , पुच्छ , मेरुदंड और वाह्य रंध्र से सम्बंधित ३३ मर्म हैं | इनमे कोई आघात लग जाए , रोग विशेष के कारण विकृति आ जाए , रक्ताभीषण रुक जाए और विष -बालुका जमा हो जाए तो देह भीतर ही भीतर घुलने लगती है | बाहर से कोई प्रत्यक्ष या विशेष रोग दिखाई नहीं पड़ता , पर भीतर ही भीतर देह खोखली हो जाती है | नाडी मे ज्वर नहीं होता पर मुह का कड़वा पन, शरीर मे रोमांच , भारीपन , उदासी , हडफुटन , सिर मे हल्का स दर्द , प्यास आदि भीतरी ज्वर जैसे लक्षण दिखाए पड़ते हैं | वैद्य डाक्टर कुछ समझ नहीं पाते , दवा -दारु देते हैं पर कुछ विशेष लाभ नहीं होता |
मर्मों मे चोट पहुचने से आकस्मिक मृत्यु हो सकती है | तांत्रिक अभिचारी मारण का प्रयोग करते हैं तो उनका आक्रमण इन् मर्म स्थलों पर ही होता है | हानि , शोक , अपमान आदि की कोई मानसिक चोट लगे तो मर्म स्थल क्षत -विक्षत हो जाती है और उस व्यक्ति के प्राण संकट मे पड जाते हैं | मर्म अशक्त हो जाएँ तो गठिया , गंज , स्वेत्कंठ, पथरी , गुर्दे की शिथिलता , खुश्की , बवासीर जैसे न ठीक होने वाले रोग उपज पड़ते हैं |
सिर और धड मे रहने वाले मर्मों मे ‘हव्य- वहा’ नामक धन विद्युत का निवास और हाथ पैरों मे ‘कव्य- वहा’ ऋण विद्युत की विशेषता है | दोनों का संतुलन बिगाड जाए तो लकवा , अर्धांग , संधिवात जैसे उपद्रव खड़े होते हैं |
कई बार मोटे , तगड़े स्वस्थ दिखाई पड़ने वाले मनुष्य भी ऐसे मंद रोगों से ग्रसित हो जाते हैं , जो उनकी शारीरिक अच्छी स्थिति को देखते हुए न होने चाहिए थे | इन् मार्मिक रोगों का कारण मर्म स्थानों की गडबडी है | कारण यह है की साधारण परिश्रम या कसरतों द्वारा इन मर्म स्थानों का व्यायाम नहीं हो पाता | औषधियों की पहुच वहाँ तक नहीं होती | शल्य क्रिया या सूची -भेद ( इंजेक्सन ) भी उनको प्रभावित करने मे समर्थ नहीं होते | उस विकत गुत्थी को सुलझाने मे केवल ‘योग -आसन ‘ ऐसे तीक्ष्ण अस्त्र हैं जो मर्म शोधन मे अपना चमत्कार दिखाते हैं |
ऋषियों ने देखा की अच्छा आहार -विहार रखते हुए भी, विश्राम -व्यायाम की व्यवस्था रखते हुए भी कई बार अज्ञात सूक्ष्म कारणों से मर्म स्थल विकृत हो जाता है और उसमे रहने वाली हव्य-वहा , कव्य -वहा तडित शक्ति का संतुलन बिगड़ जाने से बीमारी और कमजोरी आ धमकती है , जिससे योग साधना मे बाधा पड़ती है |
इस कठिनाई को दूर करने के लिए उन्होंने अपने दीर्घकालीन अनुसंधान और अनुभव द्वारा ‘आसन -क्रिया’ का आविष्कार किया | आसनों का सीधा प्रभाव हमारे मर्म स्थलों पर पड़ता है | प्रधान नस-नाड़ियों और मांसपेशियों के अतिरिक्त सूक्ष्म कशेरुकाओ का भी आसनों द्वारा ऐसा आकुंचन -प्राकुंचन होता है कि उसमे जमे हुए विकार हट जाते हैं तथा फिर नित्य सफाई होते रहने से नए विकार जमा नहीं होते | मर्म स्थलों की शुद्धि , स्थिरता एवँ परिपुष्टि के लिए आसनों को अपने ढंग का सर्वोत्तम उपचार कहा जा सकता है |
(( आसन अनेक हैं उसमे से ८४ प्रधान हैं इनकी विस्तृत व्याख्या के लिए पूज्य पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा लिखित पुस्तक ‘बलवर्धक व्यायाम’ व् आसन प्राणायाम संबंधी अन्य साहित्य देखें ))
आठ आसन ऐसे हैं जो सभी मर्म स्थानों पर अच्छा प्रभाव डालते हैं …
१. सर्वांगासन २. बद्ध-पद्मासन ३.पाद हस्तासन ४. उत्कटासन ५. पश्चिमोत्तान आसन ६. सर्पासन ७. धनुरासन ८. मयूरासन
इन् सभी से जो लाभ होता है उसका सम्मिलित लाभ सूर्य-नमस्कार से होता है | यह एक ही आसन कई आसनों के मिश्रण से बना है | इसे प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व करना चाहिए |
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पूज्य पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य (गायत्री महाविज्ञान तृतीय भाग से संकलित)
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