अन्नमय कोश: ४ – अन्नमय कोश की शुद्धि के चार साधन – ३. तत्व-शुद्धि
गायत्री के पांच मुख पांच दिव्य कोश : अन्नमय कोश – ४
( अन्नमय कोश की शुद्धि के चार साधन –३. तत्व-शुद्धि )
यह श्रृष्टि पंच तत्वों से बनी हुई है | प्राणियों के शरीर भी इन्ही तत्वों से बने हुए हैं | मिटटी , जल , वायु , अग्नि और आकाश इन् पांच तत्वों का यह सबकुछ संप्रसार है | जितनी वस्तुवें दृष्टिगोचर होती हैं या इन्द्रियों द्वारा अनुभाव मे आती हैं उन सब की उत्पत्ति पंच तत्वों द्वारा हुई हैं | वस्तुओं का परिवर्तन , उत्पत्ति , विकास तथा विनास इन् तत्वों की मात्रा मे परिवर्तन आने से ही होता है | यह प्रसिद्द है की जलवायु का स्वस्थ्य पर प्रभाव पड़ता है शीत प्रधान देशों के तथा यूरोपियन देशों का रंग रूप , कद -स्वस्थ्य अफ्रीका के उष्ण प्रदेश वासियों के रंग -रूप , कद , स्वस्थ्य से सर्वथा भिन्न होता है | पंजाबी , काश्मीरी , बंगाली , मद्रासी लोगों के शरीर तथा स्वस्थ्य की भिन्नता प्रत्यक्ष है | जलवायु का ही अंतर् है |
किन्ही प्रदेशों मे मलेरिया , पीला बुखार , पेचिस , चर्म रोग , फील पावं , कुष्ट आदि रोगों की बाढ़ सी रहती है और किन्ही स्थानों की जलवायु ऐसी होती है की वहाँ जाने पर तपेदिक सरीखे कष्ट साध्य रोग भी अच्छे हो जाते हैं | पशु पक्षी , घास -अन्न , फल , औषधि आदि के रंग ,रूप ,स्वस्थ्य , गुण , प्रकृति आदि मे भी जलवायु के अनुसार अंतर पड़ता है इस प्रकार वर्षा, गर्मी -सर्दी का तत्व-परिवर्तन प्राणियों मे अनेक प्रकार के सूक्ष्म परिवर्तन कर देता है |
आयुर्वेद शास्त्र मे वात , पित्त , कफ का असंतुलन रोगों का कारण बताया है | वात का अर्थ है वायु , पित्त का अर्थ है गर्मी और कफ का अर्थ है जल | पंच तत्वों मे पृथ्वी शरीर का स्थिर आधार है | मिटटी से ही शरीर बना है और जला देने या गाड़ देने पर मिटटी रूप मे ही इसका अस्तित्व रह जाता है | इसलिए पृथ्वी तत्व शरीर का स्थिर आधार होने से वह रोग आदि का कारण नहीं बनता |
दूसरे आकाश का सम्बन्ध मन से बुद्धि और इन्द्रियों की सूक्ष्म तन्मात्राओं से है | स्थूल शरीर पर जलवायु और गर्मी का ही प्रभाव पड़ता है और उन्ही प्रभावों के आधार पर रोग एवँ स्वस्थ्य बहुत कुछ निर्भर रहते हैं | वायु की मात्रा मे अंतर् आ जाने से गठिया , लकवा , दर्द , कंप , अकडना , गुल्म , हड्फुतन, नाडीविक्षेप आदि रोग होते हैं | तत्व के विकास से फोड़े -फुंसी , चेचक ज्वर, रक्त पित्त , हैजा , दस्त , क्षय ,स्वास उपदंश , रक्त विकार आदि बढते हैं |
जल तत्व की गडबडी से जलोदर ,पेचिस, संग्रहणी, मलमूत्र, प्रमेह स्वप्न दोष , सोम , प्रदर , जुकाम , खांसी आदि रोग पैदा होते हैं | अग्नि की मात्रा कम हो तो शीत , जिकाम , अकडन , अपच , शिथिलता शरीखे रोग उठ खड़े होते हैं | इस प्रकार अन्य तत्वों का घटना बढ़ना अनेक रोग उत्पन्न करता है |
आयुर्वेद के मत से मत से विशेष प्रभाव शाली , गतिशील सक्रीय एवँ स्थूल शरीर को स्थिर करने वाले कफ वात पित्त अर्थात जल वायु गर्मी ही है और दैनिक जीवन मे जो उतारचढाव होते रहते हैं उनमे इन् तीनों का ही प्रधान कारण होता है | फिर भी शेष दो तत्व पृथ्वी और आकाश शरीर पर स्थिर रूप मे काफी प्रभाव डालते हैं |
मोटा या पतला होना , लंबा या ठिगना होना , रूपवान या कुरूप होना , गोरा या काला होना , कोमल या सुदृढ़ होना शरीर मे पृथ्वी तत्व की स्थिति से सम्बंधित है | इसी प्रकार चतुरता – मूर्खता , सदाचार -दुराचार , नीचता -महानता , तीव्र बुद्धि , दूरदर्शिता व खिन्नता -प्रसन्नता एवँ गुण , कर्म , स्वभाव , इच्छा , आकांछा , भावना , आदर्श , लक्ष्य आदि बातें इस पर निर्भर रहती हैं की आकाश तत्व की स्थिति क्या है ? उन्माद , सनक , दिल की धडकन , अनिद्रा , पागलपन – दु: स्वप्न , मिर्गी , मूर्छा , घबडाहट , निराशा आदि रोग मे भी आकाश ही प्रधान कारण होता है | तत्वों की मात्रा मे गडबडी पड़ जाने से स्वस्थ्य मे निश्चित रूप से खड़ाबी आ जाती है | जल वायु सर्दी गर्मी ( ऋतू प्रभाव ) के कारण रोगी मनुष्य निरोग और निरोग रोगी बन सकता है |
योग साधकों को जान लेना चाहिए की पंच तत्वों से बने शरीर को सुरक्षित रखने का महत्व पूर्ण आधार यह है की देह मे सभी तत्व स्थिर मात्रा मे रहें | गायत्री के पांच मुख शरीर मे पांच तत्व बनकर निवास करते हैं यही पंच ज्ञानेन्द्रियों और पंच कर्मइन्द्रियों को क्रियाशील रखते हैं | लापरवाही , अव्यवस्था और आहार -विहार मे असंयम से तत्वों का संतुलन बिगड़ कर रोग ग्रस्त होना एक प्रकार से पंच मुखी गायत्री माता का देह -परमेश्वरी का तिरष्कार करना है |
‘गायत्री महाविज्ञान तृतीय भाग ‘ : पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
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