पंचकोश जिज्ञासा समाधान (01-01-2025)
कक्षा (01-01-2025) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
एकाक्षरोपनिषद् में आया है कि आप अकेले ही स्त्री, पुरुष, कुमार एवं कुमारी हैं, आप ही पृथ्वी है, आप ही धाता, वरूण, सम्राट, संवत्सर, अग्नि और अरेमा है, आप ही सब कुछ है, का क्या अर्थ है
- ये सभी आदित्य / सुर्य के नाम है
- सुर्य धारण करता है, सुर्य पृथ्वी को धारण करता है, हम सभी सौरमंडल के एक सदस्य है तथा उनका (सुर्य) एक नाम धाता है
- धारण करने के कारण उनका यह नाम पड़ा
- सभी सौर परिवारो का नियंत्रण करते हैं तथा अपना अनुशासन चलाते हैं तो उनका एक नाम अरेमा भी है
- संवत्सर = समय काल = काल चक्र के अनुसार ऋतुएं बदल रही है, वर्ष भर में मौसम बदलता रहता है, उसे संवत्सर कहते हैं
- सम्राट = राजा
- सभी सुर्य के ही नाम / रूप है, ईश्वर को सर्वव्यापी मानेंगे तो भटकाव नहीं आएगा
वांग्मय 22 में आया है कि निटत्से के दर्शन ने हिटलर को जन्म दिया और समूचे जर्मनी को ऐसे आवेश में भर दिया कि वे लोग अपने समुदाय को अति श्रेष्ठ मानने लगे और समस्त विश्व पर शासन करने की तैयारी करने लगे, अरविंद अपने पांडेचेरी प्रयोग में सुपरमैन / उत्कृष्ट मानव की कल्पना पूर्ण योग के माध्यम से मनुष्य में देवत्व के उदय के रूप में कर रहे थे, यो उनके जीवन काल में वह प्रयास पूरा नहीं हो पाया, पर यह नहीं समझा जाना चाहिए कि वह काम अधूरा ही छूट गया, उसे आगे बढ़ाने के लिए पूर्ण योग का स्थान प्रज्ञायोग ले रहा है और लक्ष्य की पूर्ति के लिए प्राण प्रण से जुटा है है, का क्या अर्थ है
- निटत्से के नास्तिकवाद से शुरू किया है या चारवाक का दर्शन बताया गया है -> उसमे कहा है कि तुम शासक हो, शासक बनकर तुम धरती पर आए हो और शासन ही तुम्हे पूरी धरती पर करना है
- यही से मनुष्यता में गिरावाट व भटकाव की स्थिति उत्पन्न हो गई
- उपनिषद् का कहना है कि यहा पर कोई भी मनुष्य शासक नहीं है, शासक केवल ईश्वर है
- तो इस प्रकार हिटलर ने साम्राज्यवाद फैलाना शुरू कर दिया, यह बहुत बड़ी क्षति हुई
- निटत्से ने कहा कि हमने ईश्वर को मरते हुए देखा है, उसने धरती पर हो रहे अत्याचारों को देखकर ही यह कहा होगा कि हमने ईश्वर को मरते हुए देखा
- नास्तिकता भी कोई खराब दर्शन नहीं, उस समय के अनुसार कहा गया होगा कि अपने पर विश्वास करो, आत्मविश्ववास करो परन्तु उसका वह अर्थ सब लोग नहीं ले पा रहे
- गुरूदेव ने कहा कि नास्तिक केवल वह ही नहीं जिसे ईश्वर पर विश्वास नहीं बल्कि नास्तिक वह भी है जिसे अपने पर विश्वास नहीं, जिसे Self Confidense नहीं
- इसी Self Confidense के चलते ही यहा कहा गया कि तुम अपने को लुंज-पुंज मत समझो / कमजोर मत समझो, तुम ईश्वर के बेटे / राजकुमार हो
- हिटलर की सोच उस दर्शन को न पाकर निरंकुशता में बदल गई
- आदमी का जीवन छोटा पड़ता है तथा जन्म जन्मांतरो पीढ़ियो की गिरवाट को थोड़े समय में साफ नहीं कर सकते
- जब हमारे स्वभाव संस्कार में कोई बात आ जाती है तथा फिर अपने आप को बदल पाने की ताकत न हो तब उस स्थिति में वह उस दुख / कष्ट / Struggle को अपना भाग्य ही मान लेता है तथा यह सोचता है कि यह दुःख मेरे भाग्य में ही लिखा है, तब उसके अतः करण में वह डर आ जाता है
- हमें उसे फिर से जगाना है
- वेद का आदेश है कि हे देवताओं, हे ऋषियो, हे विद्धवानो, हे साधको जो किसी कारण (सामाजिक या शैक्षणिक) से पीछे रह गए हो तो तुम उन्हें उठाओ, संस्कार दो तथा आगे बढ़ाओ, केवल एक बार आगे बढ़ाने से बात नहीं बनेगी क्योकि उसका संस्कार गिरने वाला है तथा वह अनेक पीढ़ियो से प्रताड़ित होते होते टूट चुका है, तो तुम उसे बार बार उठाओ क्योंकि वह बार बार गिरेगा तो तुम उसे बार-बार उठाओ चाहे भले ही बार-बार उठाते हुए मर जाओ परन्तु अपने प्रयास मत छोड़ो
- उसी के अनुशासन में श्री अरविंदो ने प्रयास किया
- बुद्ध के समय से लड़ाई चल रही है, वहा से लडते लडते, पूज्य गुरुदेव ने कहा कि प्रज्ञावतार बुद्ध का उत्तरार्ध है तथा उनके छोडे हुए काम को हम पूर्णता तक ले जाएगे
- एक मंत्र आता है = बुद्धं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि
- बुद्धम शरणम् को गुरुदेव ने बौधिक क्रांति का नाम दिया
- धम्मं शरणम् को नैतिक क्राति तथा
- संगम शरणम को समाजिक क्राति का नाम दिया
- इसी तरह से पूर्ण योग में उनका Practical था कि वे मनुष्य को अति मानसिक Layer में ले जाएंगे
- इसके लिए पांडेचेरी में Laboratory बनाए ताकि वहा साधक आए और मन के पार जाने की विधा को समझे क्योंकि मन संसार है और आत्म चेतना संसार के बस में रहने वाली चीज नहीं है, इस आत्म चेतना के नियंत्रण में रहकर उस संसार को चलाए, वह तब संभव होगा जब हम विज्ञानमय कोश के नियंत्रण में होगे
- विज्ञानमय कोश को ही अति मानसिक Layer कहा जाता है
- श्री अरविंदो के प्रयास इस दिशा में चलते रहे परंतु उनके पठन-पाठन की विधि इतनी कलिष्ट थी कि बहुत कम लोग उन्हे समझ पाए
- गुरुदेव ने उसे सरलीकरण कर के उनके प्रयास को आगे बढ़ाया, गुरुदेव श्री अरविंदो के साथ पांडिचेरी भी रहे हैं
- महापुरुषों के छोड़े गए कामों को आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी अगले जनरेशन पर होती है
- आज का प्रज्ञा युग मनुष्यों के तीनों Layers (चरित्र – चिंतन – व्यवहार) को प्रक्षालित करके ही रहेगा, कोई नहीं भी सुधरना चाहे तो प्रकृति उसे रगड़ कर रख देगी
- संसार की प्रतिक्रियाएं इतनी बढ़ जाएगी कि ऐसे नहीं तो वैसे सुधारना ही पड़ेगा
- अब इतना सुधार होगा कि आने वाला प्रज्ञा युग पिछले सभी युगों से आगे निकलने वाला है, भले ही उसमें एक साल, दो साल या 100 वर्ष बीत जाए
प्राणो में श्रेष्ठता के कम्र से साम की पंचविध उपासना करनी चाहिए, यह प्राण ही हिंकार है, वाणी प्रस्ताव है, चक्षु उदगीथ है, श्रोत प्रतिहार है और मन निधन है, ये उपासनाए क्रमशः श्रेष्ठतर है, कृप्या उपासना के विषय में थोड़ा विश्लेषण कर दीजिए
- पंचविध उपासना = जो ज्ञानेंद्रियाँ हमारी है, उसे हम शुद्ध करे, जैसे वाणी में वाक शक्ति हो तो दूसरो की शिकायत, चुगली, निन्दा बंद करे तथा इसके लिए संयम करे
- उपासना का अर्थ यहा यह है कि जैसे यदि ईश्वर का मुह है तो उनके काम में ही लगे, अपने स्वार्थ के लिए अनावश्यक वाणी का प्रयोग न करे अन्यथा वे मुह भी छीन लेगे, ईश्वर के सामान का हम Misuse नहीं कर सकते
- इतना बड़ा खजाना हमें मिला है कि एक भी इंद्रिय का यदि Good use करे तो उससे भी आत्म साक्षात्कार कर सकता है
- याज्ञवल्क्य ऋषि ने सभी इदियो से साक्षात्कार किया था
- यदि व्यक्ति केवल वाणी को ही साध ले तो गायक बन कर भी कितना नाम व धन कमा सकता है
- सभी प्रवक्ता व प्रोफेसर केवल वाणी के सदुपयोग से कितना आगे बढ़ जाते है
- एक एक इंदियों को ईश्वरतुल्य बनाने को साधना कहेंगे
- ईश्वर का सामान ईश्वर के लिए काम करे, ईश्वरमय बनकर रहे, इसे उपासना कहेंगे
- मन उसका निधन है, का अर्थ है कि -> मन को प्रक्षालित कर उसे (मन को) इसके (इंद्रियों) साथ जोडे, अभी ऐसी परिस्थितयां आती है कि मन कुछ कह रहा है तथा इंद्रियां कही और जा रही है, घोड़ा कहीं भाग रहा है तथा सारथी कही भाग रहा है, ऐसे में रथ नहीं चल पाएगा
- निधन का अर्थ = उसकी जड़े है जहां से सब निकलते व विलीन होंते है
बल पौरुष को क्यों छटी के दुध के साथ जोड़ा जाता है कृपया प्रकाश डाला जाय
- इसमे रहने का अर्थ है कि हमारा बल पौरुष है तो अपनी ज्ञानेद्रियों को अपने नियंत्रण में रखें
- यदि हमारी इंद्रियां हमारे नियंत्रण में नहीं आ रही तो भी उन्हे हर तरीके से दमन या शमन करके नियंत्रण में लेना ही लेना है तथा संसार में आने वाली अनेक बाधाओं के समाधान के लिए अपनी आत्म शक्ति को भी बढ़ाना है
- मन इतना तो शक्तिशाली तो होना चाहिए कि बाहर से आने वाली Alpha, Beta, Theta, Delta तरगों को अपनी एल्फा स्टेट से काट दे
- गुरुदेव ने कहा कि हमे सदविचारों की इतनी बड़ी फौज रखे कि यदि एक कुविचार उठे तो उसे दबाने के लिए सैकडो सदविचार मिलकर उसे तहस नहस कर दे
- एक तरीके से नही समझ नहीं आ रहा तथा मन नहीं मान रहा तो उस पर दूसरा फिर तीसरा प्रहार करे, तब तक उस पर Bombarding करे, जब तक वह हमारे वश में न आ जाए
- निर्वाण प्राप्त करना है, संसार के सभी प्रकार के वाणो को निरस्त कर दिया जाए, जो चेतना को विचलित करते हो तथा चित् को चंचल बनाते हो
छान्दोग्योपनिषद् में आया है कि जो साधक खाने व पीने की इच्छा तो करता है पर जो इसमें आसत्त नहीं होता, यही उसकी इच्छा है, सब आप ही है, इस प्रकार तत्व दर्शन यहा बताया गया है, जिससे वे अन्य वासनाओं के संबंध में पिपासा मुक्त हो गए थे, साधक को मृत्यु काल में इन तीन मंत्रों का स्मरण करना चाहिए
- तुम एकाक्षर अनश्वर स्वरूप हो
- तुम अच्युत्य अटल पतित ना हो
- तुम अति सूक्ष्म प्राण स्वरूप हो
का क्या अर्थ है
- कृष्ण ने कहा कि जो शरीर छोडते समय जिस भाव का रहता है, उन्ही योनियो में तथा उसी दिशा में उसकी चेतना जाती है
- हम समझते है कि अभी इस जन्म में जो चाहे पाप – पुण्य कर ले तथा मरते समय हे राम बोल देंगे तो मरते समय वह हे राम बोल ही नही पाएगा
- मरने से पूर्व बाहर का दिमाग सो जाएगा तो जितना भी हमने पढ़ाई लिखाई किया यह सब कुछ ध्यान नहीं रहेगा, आँख से दिखना भी बंद हो जाता है तथा बोलना बंद हो जाता है
- भले ही आंख खुली हो तब भी वह नहीं देख सकता, तो अब हमारे संस्कार में जो आ जाता है, अवचेतन मन में जो रहता है तो उसका Reel / Video चलता रहता है
- सारे जन्म जन्मातरो का जो परिणामी / Resultant Thought जो है, उसी दिशा में प्राण भागेगा
- इसलिए संस्कार बनाने के लिए हर अवस्था में उठते – बैठते, चलते – फिरते उसे स्मरण करो ताकि उसकी जड़ें गहरी अवचेतन मन तक चली जाए, इसलिए एकाक्षर ॐ (ईश्वर) को ही स्मरण करने को कहा गया है
- तब वह बंधन मुक्त हो जाता है तथा पाप पुण्य से परे हो जाता है
पैगलोपनिषद् में याजवल्क जी कह रहे है कि पहले केवल सत था, सीप को यह भम्र हो जाता है कि उसमें रजत (चांदी) है तथा मरुस्थल में पानी है, उसी प्रकार से, ब्रह्म से जो उत्पत्ति हुई वह सत रज तम से च्युत था, फिर मूल प्रवृति में कुछ विकार आया, सत गुण युक्त एक अदृश्य आवरण शक्ति उतपन्न हुई, इसमें ईश्वर प्रतिबिम्बित हुआ जो चैतन्य था, तीन नाम आए -> साक्षी चैतन्य, चैतन्य तथा हिरण्यगर्भ चैतन, का क्या अर्थ है
- मूल प्रकृति, ईश्वर के साथ जुडी है, इसलिए उसे चैतन्य कहा गया, प्रकृति व ब्रह्म में अन्तर नही किया, यह सत्त से निकला इसलिए ईश्वर शब्द का प्रयोग किया
- ईश्वर भी अनुशासन में रहते हुए इसमें परे रहता है तथा इसमें लिप्त नही होता
- मन दो प्रकार का है -> शुद्ध तथा अशुद्ध
- शुद्ध मन से हम देखते रहते है, ध्यान में भी हमे पता चल जाता है कि मन कहा कहा जा रहा है
- जो observer है वह भी एक Refined State का मन ही है, वहा पर वह ईश्वर कहलाएंगा
- विकार का अर्थ फालतु नही बल्कि इसका अर्थ Byproduct या अवक्षेपण है, जैसे श्रृष्टि में से जब अवक्षेपण हुआ तब ग्रह नक्षत्र तारे बनेया दूध का Byproduct दही निकला
- जो प्रकृति के साथ मिलकर कार्य कर रहा है
- एक ब्रह्म है जो कभी लिप्त नहीं होता
- एक ब्रह्म है जो अनन्त सृष्टियों को उत्पन्न व विलीन करता रहता है, इसे विकार ब्रह्म कहेंगे, यह भी ब्रह्म का ही हिस्सा है जो प्रछन्न है तथा प्रकृति में लिप्त होकर यह सारे कार्य कर रहा है, इसे ही हिरण्यगर्भ कहा गया है जो संसार को उत्पन्न भी करेगा तथा अपने में मिलाएगा भी
- इसलिए कहा गया कि पहले हिरण्यगर्भ उत्पन्न हुआ, ईश्वर को यहा नहीं जोडा है क्योंकि वह साक्षी चैतन्य है
- इसलिए कहा जाता है कि पहले हिरण्यगर्भ उत्पन्न हुआ फिर उसके बाद सभी भूत व अन्य तत्व / पदार्थ उत्पन्न हुए
- साक्षी चैतन्य = ईश्वर
- साक्षी चैतन्य के लिए ईश्वर शब्द का यहा प्रयोग किया, परब्रह्म इसे कही स्पर्श नहीं करता
- विकार ब्रह्म को भी ब्रह्म ही कहे
तैतरीयोपनिषद् के ब्रह्मानन्द वल्लि में आया है कि प्राणियों द्वारा अन्न खाया जाता है, अन्न ही प्राणियो को खाता है, इसलिए वह अन्न कहा जाता है, इस अन्न रस तेज से विहीन इस देह के अन्दर प्राण रूप आत्मा पूर्ण रूप इस देह में व्याप्त है, यह प्राण रूप आत्मा निश्चय ही पुरुष के आकार का है, पुरुष की आकृति में व्याप्त होने से यह उस पुरुष के ही आकार का है, उस गर्त देह का प्राण ही सिर है, व्यान दाहिना पंख है, आपान वाम पंख है, आकाश उस देह का मध्य भाग है और पृथ्वी उसका पुच्छ एवं आधार भाग है, यह श्लोक उस प्राण युक्त देह के विषय में है, यहा अन्न प्राणियो को कैसे खाता है तथा फिर दिया कि वह प्राणियों को खाता है इसलिए उसका नाम अन्न पड़ा, का क्या अर्थ है
- अन्न प्राणियों को कैसे खाता है?
- अन्नमय कोश में प्राण है -> शरीर में शरीर है
- अन्नमय कोश की परिभाषा है जो अन्न के रस से उत्पन्न हुआ हो, जब हम गर्भ में थे तो माँ के शरीर के रक्त – रस से फल फूल रहे थे
- गर्भ में जो बच्चा पलता है तो माँ के द्वारा लिया गया दाल भात सीधा उसके शरीर के भीतर नहीं जाता
- गर्भ में जो बच्चा पल रहा है उसे तो रस ही जा रहा है तथा अन्न के रस से सारा शरीर बनता है
- जन्म लेने के बाद भी जो अन्न हम खा रहे है, उसके पेट में पचने के बाद उसके रस से ही हमारा शरीर बनता है
- इसलिए कहा जाता है कि अन्नमय कोश, अन्न के रस से उत्पन्न हुआ
- अन्न के रस से ही शरीर सुदृढ एवं विकसित होकर बढ़ता है तथा अन्त में अन्नमय पृथ्वी में ही विलीन हो जाता है
- मिट्टी में विलीन हो गया तो कहेंगे कि अन्न ही हमें खा जाएगा
इस आदित्य के सम्पूर्ण प्राणी अनुगामी है, इसके उदय से पूर्व का रूप हिंकार है, सम्पूर्ण पशु आदि उसके हिंकार रूप के अनुगामी है, वे उस आदित्य रूप साम के हिंकार रूप के उपासक है, उसके उदय होने पर सभी हिंकार करने लगते है, यहा साम और हिंकार शब्द का क्या अर्थ है
- यहा आदित्य रूप साम आया है तो आदित्य को ही यहा साम कहा
- साम का अर्थ यहां सोम(अमृत कलश) से है जो उत्पन्न करता हो
- जिसकी सब मिलकर उपासना करते है, इसलिए वह साम कहलाएगा
- एक प्रश्न मन में आता है कि हमारी उत्पत्ति कहा से हुई -> पहले सुर्य उत्पन्न हुआ तथा फिर सुर्य से पृथ्वी निकली तथा पृथ्वी से हम उत्पन्न हुए तो कहा जा सकता है हम सुर्य से उत्पन्न हुए
- सूर्य से हर क्षण प्रकाश के कण / Photons, किरणों के रूप में निरन्तर निकल रहे हैं
- जब तक सुर्योदय नहीं हुआ तब तक उसकी किरणें हमें नही मिल पाती
- सुर्य से आने वाली किरणों में सुनहरी किरणे सोना बन गई, पीली किरणे पारा बन गई, हरी किरणें तांबा बन गई, लाल किरणें लोहे में बदल गई, यही सब Elements शरीर के भीतर भी है तथा बाहर भी है तो सुर्योदय के साथ निकलना हिंकार कहा गया
- प्रकटीकरण को हिंकार कहते है
- फिर अब उसका बच्चा होगा तो वह माँ के स्तनों से दूध पीकर फल फूल रहा है, तो यह उपासना है
- सुर्य यदि Fuse हो जाए तो हम सभी मर जाएंगे, पौधे आक्सीजन नहीं देंगे, Photo synthesis भी नहीं होगा तो आक्सीजन के आभाव में धरती पर पर जीवन समाप्त हो जाएगा
- इसलिए हम सब के लिए यह सविता ही वरण करने योग्य है तथा हम सभी भारतीय सुर्य उपासक है
क्रोध के समय विवेक क्यों शून्य हो जाता है इसका निदान क्या है कृपया प्रकाश डाला जाए
- विवेक शान्त अवस्था में काम करता है क्योंकि वो आत्मा से जुडा हुआ है
- आत्मा का प्रतिबिम्ब हिलते पानी (अशान्त चित्त) में नहीं देख सकते परन्तु पानी शान्त हो तो अपनी तस्वीर स्पष्ट दिखने लगती है
- क्रोध की अवस्था में एक आवेश / एक उबाल शरीर के भीतर चलता रहता है, इस उबाल से अपना विवेक मर जाता है
- विवेक मरने का अर्थ है कि हम अपने स्तर से नीचे गिर जाते है तथा अपने उद्देश्य से भम्रित हो जाते है व कुछ का कुछ करने लगते है, इस प्रकार यह विज्ञान काम करता है
कल के प्रश्न में आया था कि प्रभु यीशु का जन्म 25 तारीख दिसम्बर को था तो फिर जनवरी की पहली तीथी से कैलैण्डर क्यों लागु होता है
- केंलैण्डर बना लेना अलग बात है परन्तु वे यीशु के भक्त थे, हम भी गुरु के नाम पर उद्यान या अन्य संस्थान खोल देते है
- प्रभु यीशु जब पुर्नजीवित हुए थे तो उस दिन को उनका नया जन्म माना
- जैसे परिक्षित भी मर गए थे फिर उन्हे बाद में जीवित किया गया तब उनका नया जन्म हुआ
- अरविदों भी उस दिन अपना जन्मदिन मनाते है जब उन्हें आत्मबोध हुआ था
- गुरुदेव भी बसंत पंचमी के दिन अपना आध्यात्मिक जन्म दिन मनाते थे
- इसी तरीके से प्रभु यीशु का भी जन्म भी 1 जनवरी को मनाया गया
- हमारे भारतीय कैलेण्डर में जिस दिन होली जल गया उस दिन सम्वत खत्म हो जाता है
- सारे भारतीय शक्ति के उपासक हैं, भारतीय कैलेंडर का नव वर्ष शक्ति उपासना नवरात्री पर्व से आरम्भ होता है, हमारा नव वर्ष चैत्र प्रतिपदा के शुक्ल पक्ष से शुरू होता है
- अंग्रेजी कैलेंडर में Error कम है इसलिए यह विश्व में प्रचलित हो गया
- यदि हम अपना जन्मदिन अंग्रेजी कैलेण्डर से भी मनाए तो हिंदु कैलेण्डर के अनुसार वह हर बाल अलग अलग दिन पड़ेगा
- जैसे जन्माष्टमी या दीपावली हिंदु कैलेण्डर के अनुसार अलग अलग दिन पडता है
- सौर वर्ष वाले पर्व भी जुडे है तो वे पर्व एक ही दिन पडते है जैसे मकर संक्रांति, विश्वकर्मा पूजा
- इस अग्रेजी कैलेण्डर को सर्वसहमति से लागू किया गया था तथा इसके लिए सम्पूर्ण विश्व ने अपनी सहमति भी दी थी
- गुरुदेव ने कहा कि अगले दिन लोग यही कहेंगे कि हम कही भी जन्म लिए हो तथा कही की रहते हो परन्तु भारतीय संस्कृति को ही अपनाएंगे
- पहले जब भारत विश्व गुरु रहा तब भी अधिकतर लोग इस संस्कृति को अपनाते थे
- यदि हम हिन्दु कैलेंडर से भी अपना जन्मदिन मनाते है तो वह भी एक दिन नहीं पड़ेगा, जो दिन बीत गया वह दिन पूरे ब्रह्माण्ड में फिर कभी करोड़ो वर्षो में भी नहीं आएगा
- गुरु जी ने कहा कि हम अपना जन्मदिन किसी भी एक दिन मना ले और अपनी समीक्षा कर आगे बढ़े, इसका मुख्य उद्देश्य लाभ लेना है 🙏
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