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पंचकोश जिज्ञासा समाधान (02-01-2025)

पंचकोश जिज्ञासा समाधान (02-01-2025)

कक्षा (02-01-2025) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-

तैतरीयोपनिषद् में आया है कि हे परमात्मा मेरी वाणी मन में स्थित हो, मन वाणी में स्थित हो, आप मेरे समक्ष प्रकट हो, मेरे लिए वेद का ज्ञान लाए, मै पूर्व सुक्त ज्ञान को विस्मृत ना करू, इस स्वाध्यायशील प्रवृति से मै दिन व रात को एक कर दूं, मै सदैव ऋक और सत्य को बोलुगा, ब्रह्म मेरी रक्षा करे, वक्ता की रक्षा करे, त्रिविध ताप शान्त हो, का क्या अर्थ है

  • ऋक का अर्थ सत्य भी होता है
  • सत्य 2 प्रकार का होता है
  1. यर्थात = Absolute Truth
  2. श्रेय भावना से बोला गया कि दूसरे का भी कल्याण कैसे हो
  • संसार में जो सत्य चलता है वह संसार के लिए है, यह सापेक्ष है, उससे यह (यर्थात सत्य) Better है
  • संसार में दिखाई पडने वाला कुछ भी सत्य नहीं, दिखाई पडने वाला भी हर समय बदल रहा है तथा सत्य कभी बदलता नहीं
  • संसार में किसी भी क्षण या किसी पर भी दृष्टि गई तो वह हर पल गतिशील है तथा हर क्षण बदल रहा है स्थिर कहीं भी नहीं है और जो स्थिर नहीं है वह सत्य नहीं है, उसकी आप संसार में व्याख्या नहीं कर सकते
  • क्योंकि वह व्याख्या करते करते बदल जाएगा
  • Absolute Truth व
  • प्राण के 2 स्वरूप -> स्थिर व गतिशील
  • ऋक व सत्य का अर्थ = सापेक्ष सत्य बोलूंगा तथा दूसरा आत्मिकी के स्वभाव वाला है
  • एक प्रज्ञा है तथा दूसरा एक रितम्बरा प्रज्ञा
  • एक कहता है कि विकार को दूर करो = सत्य
  • दूसरा कहता है कि विकार में ब्रह्म को देखो = ऋक
  • दोनों में काफी अन्तर है, अपने को शुद्ध करो तथा विकार को हटाओ, जब हर जगह वही एक ही है तो किसे हटाएँ
  • कल्याणकारी बोले तथा यह भी देखें कि दूसरों का कल्याण कब हो, फिर वह शब्दों की परिधी में नहीं आएगा
  • जैसे अश्वथमा मारा गया जबकि अश्वथमा जीवित है तो यह कहने में ही संस्कृति का कल्याण है तथा हमें संस्कृति की रक्षा करनी है, जब तक युठिष्ठर ऐसा नहीं बोलेगा तब तक द्रोणाचार्य की जाच नहीं होगी कि वह मोहग्रस्त है अथवा नहीं
  • मोहग्रस्त में रहने वाला गुरु नहीं हो सकता
  • ऐसा बोलना झूठ नहीं, सत्य कहलाएगा क्योंकि वह कल्याण के लिए बोल रहे है तथा कल्याणकारी शब्द सत्य ही कहलाएंगे, झूठ शब्द उसके लिए खत्म हो जाएगा, ऐसे में हिंसा भी अहिंसा ही कहलाएगी, यदि हिंसा भी कल्याण के लिए कर रहे है तो कहेंगे कि डाक्टर आपरेशन कर रहे है तथा रोगी को बचा ही रहे है क्योंकि यदि वह रोगी और गलती करता है तो अधिक नीचे गिरता जाएगा तो उसे अधिक नीचे गिरने से बचाना होगा
  • ऐसा लगेगा कि हत्या किए है परन्तु वास्तव में उसी में कल्याण निहित है
  • लग रहा है रामायण / महाभारत में संहार हुआ परन्तु वास्तव में कोई संहार नहीं हुआ बल्कि ये सभी पर्व बन गये

पैगलोपनिषद् में आया है कि जब शुरुवात में मूल प्रकृति में तीनो गुण सत रज तम समानावस्था में विद्यमान थे, उसे साक्षी चैतन्य कहा गया, फिर वह (मूल प्रकृति) जब पुनः विकार युक्त हुई तब सत्वगुण युक्त अव्यक्त आवरण शक्ति कहलाई, जो ईश्वर उसमें प्रतिबिम्बित हुआ, वह चैतन्य था फिर समस्त विश्व उसी में संकुचित (समेटे हुए) घट (वस्त्र) के समान रहता है, ईशाधिष्ठित आवरण शक्ति से रजोगुणयुक्त विक्षेपशक्ति प्रकट होती है जिसे महत् कहते है, उसमें प्रतिबिम्बित होने वाला हिरण्यगर्भ चैतन्य उत्पन्न हुआ, वह महतत्व युक्त कुछ स्पष्ट तथा कुछ अस्पष्ट शरीर वाला होता है, हिरण्यगर्भ में निवास करने वाली विक्षेप शक्ति से तमोगुणवाली अहंकार नामक स्थूल शक्ति आर्विभूत हुई, जो उसमें प्रतिबिम्बित हुआ वह विराट चैतन्य था, उसका अभिमानी स्पष्ट शरीर वाला, समस्त स्थूल जगत का पालक, प्रधान पुरुष विष्णु होता है, उसकी आत्मा से आकाश तत्व की उत्पत्ति हुई, आकाश से वायु वायु से अग्नि अग्नि से जल और जल से पृथ्वी तत्व का अर्विभाव हुआ, उन्हीं से पंच तन्मात्राए और तीन गुण उत्पन्न होते है, का क्या अर्थ है

  • तम का अर्थ हम अक्सर खराब मान लेते है, यह भी एक दिमागी रोग है
  • तम को खराब न माने
    तम = शक्ति
    रज = संसाधन / समृद्धि
    सत्त = ज्ञान
  • शक्ति ही नहीं होगी तो कुछ कैसे उपन्न होगा
  • शक्ति से सारा सृष्टि चल रहा है तथा शक्ति को ही तम कहते है
  • रजोगुण से महःतत्व उत्पन्न होने का अर्थ कि अभी तरंग रूप में उत्पत्ति हुई तथा तरंगे ही घनीभूत होकर पदार्थ बना, Thoughtron (तरंग) से ही घनीभूत होकर परमाणु (पदार्थ) बना है, पदार्थ अवस्था में आने के बाद इस पदार्थ की घनीभूतता को ही तम कहते है, Inertia/जडत्व जहा पर हो वही से आकार बनता है तथा आकार से ही अंहकार को आकृति दे सकते हैं
  • इसलिए उपयोग करने के लिए कुछ गाढ़ा / ठोस भी चाहिए
  • कल्पना करने के लिए भी कोई Theme चाहिए, इसी को अहंकार कहते है
  • इन्हीं पांचो तत्वों से पांच तन्मात्राए उत्पन्न हुई तथा ये पाचों तन्मात्राए, सूक्ष्म है
  • पदार्थ को जलाने पर उसके परमाणु सूक्ष्म रूप में गंध के रूप में हर जगह दौडने लगे, परन्तु दिख नही रहे
  • फिर बाद में इन्ही परमाणुओ के गंध इक्कठा होकर खास पदार्थ बने
  • अहंकार का अर्थ आकृति / आकार बनाना
  • पदार्थ जब भी बनेगा तो उसका Dimension / आकार(LxBx H) भी होगा परन्तु वही पदार्थ जब आकाश में उड़ रहा था तब उसका कोई आकार नहीं था
  • तम का अर्थ कि जब Inertia से गाढ़ा होता जाएगा तब उसकी आकृति बनती जाएगी
  • गंध Infinite तो पदार्थ भी Infinite होंगे
  • तरंगो के इक्कठा करने के Process को यंत्रम कहते है तथा मन के सोचने के आधार पर वह तरंग घूम रहा है
  • यहा सृष्टि में कोई सोच रहा है तथा पदार्थ बन रहा है तथा यहा सोचने वाले को ब्रह्मा कह देते है इसलिए यहा मन ही ब्रह्मा है

तैतरीयोपनिषद् में आया है कि घर में आए गए अतिथी को तिरिष्कृत न करे, यह एक व्रत है, इस प्रकार बने तथा बहुत अन्न प्राप्त करे तथा सदैव अतिथी सेवा में तत्पर रहे, यदि उसे अधिक आदर व प्रेम के साथ भोजन कराए तो स्वयं को अधिक आदर एवं अन्न मिलता है, यदि मध्यम श्रेणी के आदर एवं प्रेम से उसे भोजन कराए तो मध्यम श्रेणी का आधार एवं अन्न प्राप्त होता है, यदि निम्न श्रेणी के आदर एवं प्रेम से भोजन कारण तो स्वयं को निम्न श्रेणी के आदर सहित अन्न प्राप्त होता है, जो इस तथ्य का ज्ञाता हैं, वह अतिथि का उत्तम आदर करता है . . . का क्या अर्थ है

  • अतिथी शब्द का अर्थ गहरा है, कोई भी आ गया तो उसे अतिथी नहीं मान सकते, युग के अनुरूप शब्दावलिया व उनके अर्थ भी बदलते रहते है
  • जिन दिनों अतिथी शब्द इस्तेमाल किया गया था तब अतिथी वे कहलाते थे, जो तत्वज्ञानी हो, विद्वान हो तथा तपस्वी हो तथा जो रात दिन सेवा के भाव से ईधर उधर चलते रहते थे जैसे देवऋषि नारद
  • ऐसे अतिथी की सेवा करे तथा उनसे ज्ञान ले
  • जो ये सोचे कि बढ़िया खाना मिलेगा, ऐसे भारभूत व्यक्तियो की अतिथी नहीं मानना
  • गुरुजी ने बताया कि आज के युग का अतिथी कैसा हो -> कही भी अतिथी गए तो
    पहले दिन रुकिए
    दूसरे दिन उसका काम कीजिए
    तीसरे दिन निकल लीजिए
  • वहा यदि बढ़िया सुख सुविधा भी मिल जाए तब भी मत रुकिए
  • वहा जाकर कुछ काम कीजिए, वहा तुम्हें खाने का भी कीमत चुकाना है
  • उसके सारे काम को तुम करने लगो
  • ऐसे लोगो (देवऋषि नारद जैसे) की सेवा करेंगे तो ईश्वर भी आपको फायदा करेगा
  • जो अतिथी समाजसेवी ज्ञानी होगा, वह सेवा करवाएगा ही नहीं
  • गुरुदेव ने कहा तुम समाजसेवा करो तथा संस्कृति का काम करो, यही पैर धुलवाना है
  • यदि हम चिकित्सक है तो Patient का सेवा करे, संसाधन या ज्ञान की कमी यदि Patient में है तो वह उसे दे दे
  • गुरु जी से ज्ञान लिए तो उसे बाटिए भी
  • रामेश्वरम का यज्ञ रावण जानता था कि यह पुल बाधने व उसे मारने के लिए किया जा रहा है परन्तु फिर भी रावण ने प्रसन्नता पूर्वक यज्ञ सम्पन्न कराया तथा सफलता का आर्शीवाद भी राम को दिया, यह संस्कृति है, इसमें अपना स्वार्थ नहीं जोड सकते
  • रामकृष्ण से किसी ने कहा कि आप दूसरों का रोग ठीक करते हैं तो अपना रोग ठीक क्यों नहीं करते, फिर रामकृष्ण ने उत्तर दिया कि हम इतने कृतघ्न नहीं है कि ईश्वर ने हमें जो शक्ति दिया वह हम अपने स्वार्थ में खर्च करे, हमारी कर्मफल व्यवस्था के अनुरूप हम भोग लेंगे
  • गुरुदेव ने भी 24 वर्ष तप किया तो कहा कि इसका किसी को नहीं देगें, वह गुरु के कार्य करने में ही खर्च में जाएगा
  • सभी शिष्यो व भक्तों के लिए वे प्रतिदिन कमाते व खर्च करते थे

आपात नाम से श्रुतियो में प्रसिद्ध आत्मा नाम और रूप का निर्वाह करने वाले हैं, वे जिसके अन्तर्गत है, वही ब्रह्मा है, वही आत्मा है और वही अमृत है, मै प्रजापति के सवाग्रह को प्राप्त करता हूं, यश रूप आत्मा हूं, मै ही ब्राह्मणो के यश, क्षत्रियों के यश, वैश्यो के यश को प्राप्त करना चाहता हूँ, मै यशो का भी यश हूं, मै दन्त रहित होने पर भी अदत्त को प्राप्त न करू अर्थात स्त्री गर्भ में गमन न करूं, का क्या अर्थ है

  • स्त्री गर्भ में गमन ना करने का अर्थ ना पुनरावर्तते, उपनिषदों में आया है कि आत्म साधना करने वाले साधक जब आत्म साक्षात्कार करते हैं तब प्रकृति के कर्म फल की व्यवस्था से बाधित होकर फिर से जन्म नहीं लेते, वे अपनी इच्छा से जन्म लेते हैं
  • इसी को विदेह मुक्त अवस्था कहा जाता है जब आत्मा शरीर के बंधन से मुक्त हो जाती है, जब पांचो कोशो को अनावृत्त कर लिए तब आत्म साक्षात्कार / ईश्वर साक्षात्कार होगा, इसी अनावृत कम्र अनन्त जन्मों के कर्मफल की व्यवस्था है जब अनन्त जन्मों के कर्मफल का पहाड़ भी गल जाता है / भस्म हो जाता है
  • अब कुछ भोगने के लिए भी नही बचता तथा ज्ञान भी मिल जाता है कि मै ही समग्र सृष्टि हूँ तथा जहा भी है अपना ही विस्तार है
  • तब साधक अपने को आकाशवत अनुभव करता है तब उस अवस्था में आपका आकाशवत विशाल शरीर किसी छोटे से शरीर में नहीं अट सकता तब वह किसी के गर्भ में नहीं अट सकता
  • अब वह अपनी स्वेच्छा से कभी आता भी है तो उसे फिर अवतरण कहा जाएगा
  • जेल में कैदी बनाकर भी जाया जा सकता है और सुपरिंटेंडेंट बनकर भी
  • भगवान भी इसी प्रकार अवतार बनकर अपनी स्वेच्छा से मुक्त योनि से आते है, कर्मफल के बंधन में फंसकर नहीं आते, उनके लिए यह आवश्यक नहीं कि वह गर्भ से ही आए, जैसे गौतम आ गए या कलश के मुख से अगस्त ऋषि आ गए, खंभा फाडकर नरसिंह आ गए
  • मुक्त आत्माएं कही से भी आ सकती है, सारी प्रकृति ही उनका गर्भ है

क्या प्रज्ञा युग में सारे विद्यालय सच्चे देवालय बन जाएंगे कृप्या प्रकाश डाला जाय

  • बन जाएगे, दूसरा कोई उपाय भी नहीं है
  • ऐसे विद्यालय ही चलेगे जहा पर शिक्षण का स्तर उच्च कोटि का हो, मंदबुद्धि वाला बच्चा भी अगर वहां जाए तो उसे भी समझ में आ जाए तथा वह भी बुद्धिमान बन जाए
  • विद्यालयो का वातावरण व Decipline भी उच्च कोटि का हो तथा समय पर सभी कार्य सम्पन्न हो
  • शिक्षक छात्रो को अपना पुत्र मान रहे हो तथा शिष्य वहा ग्रहण के भाव से गया हुआ हो
  • यही गुरुकुल के समय की मर्यादाए थी तथा उस प्रकार का Decipline भी आज के वैज्ञानिक युग में चलने लगे तो गुरू अपनी गरिमा का बोध करेगा, इसी को कहा जाता है कि सच्चे विद्यालय बनेंगे
  • शिक्षण का स्तर + संसाधन + वातावरण -> यह तीनो किसी विद्यालय में शानदार हो तो समझे कि वह गुरुकुल का कार्य करने लगा

नव वर्ष कैलेंडर जिज्ञासा बहुत हद तक शांत हुई है। इसके लिए आपका धन्यवाद ।

पर स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि जब ग्रेगेरियन कैलेंडर किसी भी तरह से प्रभु ईशु के जन्म से संबंधित नहीं है तो फिर हम इतिहास की किताबों में “वर्षों” को कई बार ईसा पूर्व, ईसा बाद/ Before Christ, After Christ लिखा क्यों पाते हैं? यहाँ भी Before Gregerian, After Gregerian होना चाहिए था।

हालाँकि प्रभु ईशु की Exact जन्म तिथि और वर्ष को लेकर आज तक असमंजस बना हुआ है। कई विद्वानों ने कई मत दिये हैं। फिर क्या उनके जन्म को आधार मानकर  Before और After Christ का Concept उचित है?

  • यह Concept उचित है
  • जैसे हमने कोई वस्तु बना दी तथा फिर उसका नाम देकर कह सकते है कि यह पिता जी को समर्पित
  • Gregerian, ईसा मसीह के रास्ते पर चलने वाले थे तथा उन्हें भगवान की तरह मानते थे
  • हर कोई अपनी उपलब्धि अपने गुरु को सौप सकता है तो इसलिए ईसा के नाम से Gregerian ने कर दिया
  • हम भी कोई चीज बना लेते है तो अपने गुरु के नाम पर विद्यालय या भवन का नाम रख देते है, इसका अर्थ यह नहीं कि यह भवन गुरु जी ने बनवाया
  • ईसा का जन्म २०२५ वर्ष पूर्व हुआ तो उसका जो Gregerian Calender तो इनके (ईसा के) जन्म के काफी दिनो के बाद लागु हुआ था
  • इससे पहले अन्य भी कैलेंण्डर थे
  • विक्रमी सम्वत उनके विक्रमादित्य के नाम पर रखा गया था ना कि विक्रमादित्य ने उसे बनाया, उस समय उनका शासन चल रहा था तथा विक्रमादित्य उस समय के एक अच्छे राजा थे तो उनको समर्पित कर दिया गया तथा उनके नाम पर विकम्री सम्वत नाम रखा गया
  • 2000 ईसवी से 57 वर्ष पहले इसे लागु किया गया था, जैसे अभी 2081 विकम्री सम्वत चल रहा है
  • कोई घटना 2000 से पूर्व की हो तो हम उसे ईसा पूर्व कह देते है
  • ईसा को जन्म से मान लिया गया है
  • आगे के कैलेण्डर आकाशीय पिण्डों के गतिविधियो के आधार पर व Mathematics Calculation के आधार पर बनते हैं
  • किसी के नाम से उसे सौपा गया है, उससे पहले तो कैलेण्डर ही नहीं था
  • जैसे योग वशिष्ठ में वशिष्ठ जी राम को कह रहे है कि  हे राम तुम आठवे राम हो, इसका अर्थ कि इससे पहले भी 7 बार राम आ चुके थे तथा सभी रावणों को अलग अलग तिथी को मारा होगा, उस समय तो कैलेण्डर ही नहीं था
  • एक प्रश्न आया कि रावण चतुर्दशी को मारा गया था तथा उसके प्रमाण भी दिखा तो फिर विजयादशमी को रावण क्यों जलाते है
  • इसका उत्तर योग वशिष्ठ में मिलता है तथा इस का उतर है कि यह भी हो सकता है कि कोई रावण विजयादशमी को मारा गया हो तथा उस समय कैलेण्डर भी नहीं था
  • ईसा के उस समय केवल 10 ही शिष्य थे
  • आज 3 अरब उनके शिष्य / Follower है
  • कोई भी आदमी समाज के लिए जीत है तथा करता है तो मरने के बाद वह एक मानव बंब बन जाता है तथा जब शरीर छोडता है तो एक बहुत बड़े हिस्से को प्रभावित करता है

वाणी और मन का तप किस प्रकार करे कृप्या मार्गदर्शन दे

  • मन का तप = मन के वेग / आवेश जो उठते रहते है उसका हम सयंम करे
  • मन के आवेगों का नियंत्रण करे
  • मन से जो विचार निकलता है, उनमें एक Magnetism होता है तथा संसार के पदार्थो में भी Magnetism है, रूप रस गंध शब्द स्पर्श इसमें भी एक magnet है तथा वर्हिवृतिया इसकी ओर भागेगी तथा वह समझेगा कि जो आनन्द मिल रहा है वह वस्तु से आ रहा है जबकि अपने ही भीतर का ही प्रकाश वहा से टकराकर वापस आ रहा है
  • इसकी साधना करनी पड़ती है, इसे तन्मात्रा साधना कहते हैं
  • मन को नियंत्रण करना हो तो तन्मात्रा साधना पर अधिक समय देना होगा तथा इस पर अधिक Practical करने होगें तब इससे मन नियंत्रण में आ जाएगा
  • वाणी की साधना
    -> स्वाध्याय से होगी
    -> सत्संग से होगी जब हम गुरुजनो के बीच रहेंगे तो उनके बीच रहकर सभ्य तरीके से बोलना सीख लेता है, इसलिए हमें Method and Mode of Speaking सीखना होता है, इस प्रक्रार का वाणी का शिक्षण स्कुल तथा कालेज में भी होता है
  • साधना में मौन से वाणी की साधना होती है, परा पश्यन्ति मध्यमा बैखरी, इन सभी वाणियो का Misuse रोके व Good Use शुरू करे और सामने वाले के लिए हितकारी बोले
  • भीतर ही भीतर उसका Good use करने लगे तो सरस्वती के हाथ में जो माला दी जाती है तो वे सभी शब्द मातृकाए है तो शब्द मातृकाओं का / शब्दो का हम ऐसा प्रयोग करे कि सामने वाले का गले का हार बन जाए तथा दूसरा व्यक्ति उसे Accept कर ले
  • यही देवऋषि नारद जी की विशेषता थी कि उनकी सलाह को कोई रद्ध नहीं कर सकते थे, वे ऐसी उपयोगी व काम की बात बोल देते थे तथा उतना ही बोलते थे जितना कि आवश्यक है     🙏

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