पंचकोश जिज्ञासा समाधान (06-08-2024)
आज की कक्षा (06-08-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
योगशिखोपनिषद् में आया है कि मृत्यु के समय जिस प्रकार का भय उत्पन्न होता है वही उत्पन्न भाव उस जीव के जन्म का कारण होता है तो इसे कैसे समझे
- गीता के एक सुत्र में आया है कि जो शरीर छोडते समय जिस भाव को लेकर शरीर छोडते है, वे उसी योनि में जाएंगे
- सूक्ष्म शरीर भावना प्रधान है तथा कर्मेंद्रियां मरते समय स्थिल हो जाती है तब वह भीतर अवचेतन मन को देखने लगता है व Resultant भाव के अनुरूप अगली यात्रा करता है
- पूरे जीवन गलत कार्य करने वाला व्यक्ति, जीवन के अन्त समय में हे राम बोल ही नही सकता
- श्री कृष्ण ने कहा कि यदि उठते बैठते चलते-फिरते तुम मेरा स्मरण करो, इस तरह की आध्यात्मिक मनोभूमि जो बनाकर जो रखता है तभी आध्यात्मिक यात्रा संभव हो पाती है अन्यथा संसार के बंधन से व्यक्ति मुक्त नही हो पाता
- जिस प्रकार का भय का अर्थ -> सिनेमा से निकलते समय पूरे फिल्म को देखने के बाद कैसा भाव / Ionosphere था
- भय केवल संसार से होता है क्योंकि संसार की मृत्यु होती है, आत्मा की मृत्यु नहीं होती
- इस प्रकार का भाई एक विशेष प्रकार की Mentality में ले जाएगा कि मुझसे संसार व संसार के सारे सुख छूट रहे है, यही हजार बिच्छुओं के काटने के समान पीडा देता है
- आत्मस्थित रहेगा तो आनन्द में रहेगा व मृत्यु भी उसके लिए सुखदायी होती है
- यहा भय शब्द संसार के साथ अपना चिपकाव व लगाव के कारण प्रतीत होता है
मृत्यु के समय जैसा भाव है तो उसी के अनुसार अगला जन्म होता है तथा नया शरीर धारण करने से पहले एक बीच का समय आता है जिसमें आत्मा प्रेत योनि में होती है और प्रेत योनि में भी उसे अपनी गलतियों का एहसास होता है, उस समय कहीं पर जो गरुड़ पुराण या गीता का या कठोपनिषद् का पाठ हो रहा है तो क्या उसके अनुसार उस बीच समय में क्या उसका वह भाव परिवर्तन नहीं हो सकता कि जो मरने से उसका भाव था
- परिवर्तन तो हो सकता है परन्तु उसे बीच का समय नही कहेंगे
- जैसे प्रेत एक योनि है, उस समय की योनि के क्रिया कलाप से उसकी अगली यात्रा / योनि तय होंगी
- जो अपनी Bioplasmic Body को Refine नहीं किए वे सभी प्रेत योनि में जाएंगे
- प्रत्येक योनि एक शरीर है जो अपनी
- जिस व्यक्ति का समाज परिवार में रहकर हाह नहीं पूरा हुआ वासना तृष्णा अहंता के रूप में तो वह भले ही 1000 वर्ष से जी ले परन्तु फिर भी प्रेत योनि में ही रहेगा
- निर्भर करता है कि अपने आभा मंडल
में काली किरणें कितनी है, यही काली किरणे रुकावट पैदा करती है - पाठ पढने से, सुनने से काली किरणे झड़ती जाती है तथा आभामंडल चमकीला होता जाता है
- यदि Bioplasmic Body को Refine करके Electric Body में चला तो वह पितर योनी में ही जाएगा
- यदि वह Astral body को भी साफ कर दे तब सीधा मुक्त योनि में जाएगा,तब वह बाधित होकर जन्म नहीं लगा अपितु अपनी इच्छा से इस धरती पर आएगा वह अपनी इच्छा से शरीर को छोड़ देगा
- उस पर कोई भी कर्मफल का नियम अब लागू नहीं होगा
प्रेत योनि से पितर योनि फिर पितर योनि से सीधा मुक्त योनि में प्रवेश कर पाना क्या संभव होगा
- जा सकता है क्योकि वह Astral Body है कही से आकर जा भी सकता है
- पांचो कोशो में यदि एक भी यदि शेष रहा तो भी आगे की यात्रा की जा सकती है
मनुष्य शरीर ही नही अपितु किसी भी योनि से किसी भी योनि में जा सकते, क्या यह सत्य है
- मनुष्य का शरीर एक Launching Station है जहा से वह किसी भी लोक की यात्रा कर सकते है
तथा यह सुविधा अन्य योनिओ में संभव नही - Creative कर्म से भी साधना जल्दी पक जाती है परन्तु यह सुविधा यहा नही मिलती
- प्राचीन ऋषि सूक्ष्म शरीर के साथ लंबे समय तक रहना पसंद करते थे
- जिन ऋषियो का अपनी Bioplasmic Body पर Command हो तो वे किसी भी शरीर (स्थूल शरीर या सूक्ष्म शरीर) में आकर लाभ देकर चले जाते है
प्रश्नोपनिषद् में आया है कि यही दृष्टा श्रृष्टा श्रोता रचियेता मनता कर्ता विज्ञानात्मा पुरुष है जो परम अविनाशी बह्म में स्थित हो जाता है, क्या यह उस व्यक्ति के विषय में बताया गया है जो अपनी इंदियों से सब भोगते हुए परमात्मा के पास पहुंचा हैं
आगे आता हैं कि हे सौम्य जो पुरुष इस छाया रहित शरीर रहित अलौहित शुद्र अक्षर परमात्मा को भली भाति जानता है वह सर्वज्ञ और सर्वरूप होकर उसी को प्राप्त हो जाता है, ऐसा इस श्लोक में वर्णित हैं तो यहा सब कुछ लेकर भी चलना है तथा सब कुछ छोड़ना भी है तो यह कैसे संभव है
- संसार रूपी समुद्र में जो तैरना जानता है वह Enjoy करेगा उसे समुद्र नही डूबो देगा
- उससे कहा जाएगा कि आप समुद्र से दूर रखिए नही तो यह आपको डूबो देगा
- जो आग से खेलने नहीं जानते उन्हें आग से दूर रहने के लिए कहा जाता है
- Enjoy लेना है तो विज्ञानमय कोश में स्थिर हो गए तब संसार नही डुबोएगा, जहा विज्ञानमय कोश से नीचे रहेंगे तो संसार मन की उठा पटक के चलते डुबो देगा
- छोडने का अर्थ है कि पांचो तन्मात्राओं के चंगुल से बाहर निकले तथा इन की Dominancy अपने पर न हो अपितु हम आत्मा के नियंत्रण में रहे
- यदि संसार को भोगना है / संसार में तैरना है तो अपने को स्थिरप्रज्ञ बनाए
जप के साथ बंध को जोडने से वह ध्यान के साथ Conentrate करने में मदद करता है तो इसका और क्या क्या लाभ हो सकता है
- चक्रो के साथ बंध जोडते है तो सबसे बड़ा लाभ की उर्जा को क्षरण रूक जाता है
- जैसे मूलबंध लगाने से तो प्राण का प्रवाह सहस्तार से मूलाधार / मस्तिष्क से रीढ की हड्डी की तरफ प्रवाह रहता है
- बंध लगाने से उर्जा का बहाव रुक जाता है तो व्यक्ति उर्जावान महसूस करता है
- इसी प्रकार प्रत्येक चक्र से उर्जा का बहाव होता रहता है तो वहा बंध लगा देगे तो उर्जा का प्रवाह उपर की ओर होने लगेगा तथा उस Area को लाभान्वित करेगा व वहा के रोगों को हटाएगा, ये सब लाभ मिलते है
- बंध = उर्जा के क्षरण को रोकना
- मुद्रा = उर्जा का Good Use करना
भारतीय धर्म के 4 वैज्ञानिक सिद्धान्त में
मरने के बाद लोक परलोक पुर्नजन्म की व्यवस्था होती है जिसे अन्य धर्म के लोग नही मानते तो क्या उनकी आत्मा पुर्नजन्म नही लेती
- वे माने या ना मानने से विज्ञान तो वही रहेगा, विज्ञान नही बदलता
- जो नही दिख रहा जैसे अन्य देश, दूर के तारे -> तो वह नही मानने से भी सत्य तो सत्य ही रहेगा
- जो दिख रहा है वह सही है, यह 100% गलत है, दिखने वाला सब गलत है क्योंकि जब वैज्ञानिक उपकरणो से देखा जाता है तो कुछ का कुछ दिखता है
- इसलिए उपनिषद् सत्य कहता है तथा विवेकानंद ने वेदान्त दर्शन के बारे में कहा कि इससे अधिक ज्ञान अन्य कही नहीं है
- पश्चिमी देशो में आत्मा को नही मानते परन्तु मन को मानते है तो सुपरचेतन मन को भी आत्मा कह सकते है, नाम चाहे कोई भी दे सत्य तो सत्य ही रहेगा केवल शब्दावलियो का हेर फेर है
योगकुण्डल्युपनिषद् मे प्राणायाम के 4 प्रकार नाडीशोधन, सुर्यभेदन, भस्तिरिका व उज्जैयी करने को कहा गया है, चारो प्राणायाम करने से इसकी पहुंच कहा तक होगी
- पहुंच में क्रियाएं अधिक महत्व की नहीं अपितु भावनाएं ही मुख्य है क्योंकि सुक्ष्म शरीर के आधार पर प्रगति होती है
- क्रियाएं केवल Heat पैदा करती है अब उस Heat का उपयोग कहा करना है यह Meditation पर निर्भर करता है
- यदि साधक ध्यान में अपनी भावनाओं को बह्मरध्र तक ले गया तो ईश्वर को प्राप्त कर लेगा
रामपूर्वतापनी उपनिषद् में इसे रामपूर्वतापनी क्यों कहा है
- यह ज्ञान विज्ञान सभी प्रकार के कष्टो को दूर कर देगा इसलिए इसे रामपूर्वतापनीपनिषद् कहा है
Meditation में भावना क्या रखें यदि भगवान को भावनाओं से कोई लेना देना नहीं है
- हमारी भावनाएं पदार्थ जगत से जुडी थी इस प्रकार के Emotion व भाव से भगवान को कुछ नहीं लेना देना
- पदार्थ से चिपकेंगे तो पदार्थ पाएंगे व ईश्वर को इससे कुछ नहीं लेना देना
- ईश्वरीय भावना से हम स्वयं को जोड सकते हैं
यदि आध्यात्म की ओर जाते है तो घर परिवार में माता पिता रोकने लगते है, उस परिस्थिति में क्या करें
- उनकी सुन लीजिए लेकिन अपने मन को Free रखिए
- पूरा विश्व ही घर परिवार है ना कि केवल कुछ व्यक्तियों वाला
- फिर वासुदेवः कुटुम्बकम का क्या होगा
- उनको अधिक जवाब मत दीजिए
- अपना भी Duty बनता है कि हम कर्ज न ले
- हवा हमें जीवन दे रही है, सुर्य हमें प्राण शक्ति दे रहा है तो इसका अधिक से अधिक लाभ क्यो न ले, इन सबका भी कर्ज चुकाना चाहिए
- यदि सुर्योपासना करने से रोककर अपनी उपासना करने को कहे तो कुछ समय लगातार कीजिए तब परेशान होकर स्वयं मान जाएंगे
- जब मूड ठीक हो तब गीता वाले तर्क को उनके समक्ष रखे
- जल्दी बेचैन ना हो पूरे विश्व का हम पर हक है
- समाज के लिए ना जीए तो अर्थी उठाने वाला भी नहीं मिलेगा
- समाज / राष्ट्र के लिए जीने वालो पर पूरा समाज / राष्ट्र रोता है
मरने के बाद में कोई आए या ना आए तो हमें क्यों चिंता करनी चाहिए तथा मरने के बाद समाज रोए या घर वाले रोए तो उससे हमें क्या फर्क पड़ेगा
- जनक जैसा या हरिशचंद्र जैसा जीवनमुक्त व्यक्ति ऐसी बात बोलता है तो वह तो ठीक है परन्तु यहा सामान्य व्यक्ति यह नही कह सकता अन्यथा वह उसके लिए दुर्गति की अवस्था होगी
- जो मोहबद्ध जीवन जिया है फिर वह प्रेतयोनि में भटकेगा और कष्ट भोगेगा
- उनके लिए शास्त्र बनाए जाते है
उपवास में जब भूख लगती है तो उसमें हमारे कुसंस्कार भी गलते है तो क्या यह सही है
- ऐसा होता ही है तथा यह बात पतंजलि के योग दर्शन में भी आई है, इसके लिए इसे क्रिया के विज्ञान से समझना होगा
- जब बाह्य कुम्भक में महाबंध लगाते है कुछ ले नही रहे तो शरीर का Fasting शुरू हो गया तो अब वह हमारे कचरों को गलाएगा, जो भी उस चक्रो के आस-पास के कचरे हैं उसे वह खाना शुरू कर देता है -> यही चित्त की शुद्धि के उपाय के रूप में महर्षि पतंजलि ने बताया है
- जो संयमित भोजन ही लेते है ऐसे योगियो के लिए उपवास नहीं है, उन्हे उपवास करने से मना किया जाता है
क्या सूक्ष्म शरीर की शुद्धि उपवास से नहीं होती
- उसका भी शुद्धि होगा
- भोजन में मन भी शामिल रहता है, भोजन नही मिलेगा तो मन में कुविचार भी नही उठेंगे, उन कुविचारों के लिए भोजन से उर्जा नही मिलेगी तो वे कुविचार भी शांत हो जाएंगे
- मन को मन वाला भोजन मिल जाए तो बुरा कार्य करने का जो पहले सोच रहा था वह छोड़कर कोई बड़ा अच्छा कार्य कर दिखाए
जापान के वैज्ञानिक ने Autophagy नामक सिद्धान्त से 2016 में नोबल पुरस्कार पाया तथा यही सब बातें उपवास से संबंधित उन्होंने भी बताई तो विज्ञान भी इसका पूर्ण समर्थन कर रहा है
- जीवन के अनुभव से गुरुदेव ने हमें यह ज्ञान दिया
- जितना लंबा Practical होगा उतना ही Error कम रहेगा
उपवास से सूक्ष्म शरीर की कमियां दूर नही हो रही तो सूक्ष्म शरीर की कमियों को दूर करने के अन्य क्या उपाय संभव है
- मनोमय कोश की साधना में जप ध्यान स्वाध्याय सत्संग से मन शुद्ध होता है
- त्राटक व तन्मात्रा साधना से वह Boost Up होता है उसका उर्जा का स्तर बढ़ता है परन्तु हर हर स्वाध्याय मनन चिंतन से उस प्राप्त उर्जा को सही दिशा में सदुपयोग होता है
- विज्ञानमय कोश का भोजन प्रेम स्नेह आत्मीयता बढाने से मिलता है
- जिसका शरीर का जो भोजन है वह लेगे तो उसका गुणत्तर विकास दिखेगा
- केवल स्थूल भोजन की वहा तक पहुंच नही है क्योंकि Healthy व्यक्ति ही डकैती करता है तब स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन वहा नही दिखता/मिलता
क्या योगासान व प्राणायाम से ग्रह नक्षत्र शांत होते है, कृप्या प्रकाश डाला जाए
- शांत होते है क्योंकि चक्र का संबंध ग्रहो से है
- जैसे मूलाधार चक्र मंगल ग्रह सें संबंध रखता है
- स्वादिष्ठान = बुध
- मणिपुर = गुरु
- अनाहात = शुक्र
- विशुद्धि = शनि
- सुर्य = आज्ञा चक्र
- चंद्र = सहस्तार चक्र
- चक्र भी रेडिएशन निकलते हैं तथा ग्रह भी रेडिएशन निकलते हैं तो दोनों तरंगे एक रूप होकर लाभ ले लेती है, एक का अच्छा प्रभाव दूसरे के खराब प्रभाव को काट सकता है
एकाक्षरोपनिषद् में जिस प्रकार माला के प्रत्येक दाने में सूत्र रहता है उसी प्रकार आप भी प्रमुख रूप से समस्त विश्व में उत्पत्ति के कारण हो तथा आप ने ही समस्त विश्व को एक पद से माप लिया है तथा आप ही इस विश्व संरचना के उत्पत्ति स्थल भी है आप ही प्राण रूप में सर्वत्र व्याप्त संसार के रक्षक रूप तथा श्रेष्ठ धनुष को धारण करने वाले है का क्या अर्थ है
- धनुष = दुश्मन को मारना, तीर, त्रिशुल आदि सभी अस्त्र शस्त्र है
- क्रोध आया तो शांति का तीर चलाएं
- One way न सोचकर उलटा सोचे तो बंधन में नही आएंगे
- तन्मात्रा में यही सीखा जाता है कि हम कभी भी किसी भी परिस्थिति में इस मन के वश में ना रहे
- ईश्वर सब जगह है तो इस भाव से डाक्टर की भांति Operation करेंगे तो करुणा आएगी
- रोग को मारकर रोगी को बचाने का भाव रहेगा
कुछ ऐसे भी डर ऐसे होते है जो बहुत कम उम्र से बैठ जाते है तो ऐसे डर के भाव से उपर कैसे उठा जाए क्योंकि बाद में यह बहुत मुश्किल प्रतीत होता है
- यह conciousness का विषय है पहले गुरुकुल में ये सब compulsary विषय होते थे
- आज के समय में जब से हम थोडे Mature होने लगते है (6-7 साल के आसपास) तब हमें गुरु की जरूरत होती है
- विज्ञानमय कोश में पार होने तक गुरु की आवश्यकता रहती है
- भरत भी बाघ से डर गया था तो उसे बताया कि यह बाघ नही अपितु बड़ी बिल्ली है तब उसके साथ घुल मिल गया तो उसका डर और भय धीरे-धीरे समाप्त हो गया
- गुरु के सानिध्य में ज्ञान से डर की पूर्ण समाप्ति संभव है 🙏
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