पंचकोश जिज्ञासा समाधान (09-09-2024)
आज की कक्षा (09-09-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
शिवोपनिषद् में आया है कि ध्वज, सिंह, वृष, गज – ये चार चिन्ह शोभन है तथा धुम्र, कुता, गर्दभ काक – ये सभी अर्थनाशक है, शिवगृह का आयाम जितना हो, उसके अनुरूप ही पूजास्थान, जलस्थान की व्यवस्था करे, का क्या अर्थ है
- अर्थनाशक -> समृद्धि प्राप्त करने में रुकावट डालते हैं, धूमावति ही अर्थनाशक है दरिद्रता की निशानी
- 4 शोभन = ये सब शिवजी के वाहन है
- ध्वज = उत्कृष्ट / उदार चिंतन को ध्वज / चोटी कहा जाता है
- सिंह = परिश्रमी / बहादुरी / Struggle
- वृषभ = धर्म / अर्थ / परिश्रम / सेवा / विवेक
- ये सभी ध्वज पर होते हैं, धीरे धीरे हमें ऊचाई पर ले जाते है
मैत्रियोपनिषद् में आया है कि स्वर्ण अथवा मिट्टी द्वारा निर्मित मूर्तियों की पूजा मोक्ष की इच्छा वाले को पुनः जन्म प्राप्त कराने वाली होती है, पुनः जन्म न ग्रहण करना पड़े, इस उद्देश्य से संन्यासी को बाह्य जगत की पूजा का परित्याग करके हृदय में ही पूजा करनी चाहिए, का क्या अर्थ है
- मूर्ति पूजा के बाद रामकृष्ण परमहंस भी पुनः जन्म लेकर गुरुदेव के रूप में आए
- इस बार गुरुदेव ने कहा कि मूर्ति में अधिक ना उलझे तथा सविता (निराकार) का ध्यान करे
- मूर्ति का ध्यान गुरुदेव कभी नहीं करवाए, गुरुदेव ने कहा कि मूर्ति एक किताब है, इसमें अधिक न उलझे, केवल प्रेरणा भर ले
- बचपन की कक्षा के लिए मूर्ति का सहारा लेकर फिर आत्म साधना / आत्म साक्षात्कार की यात्रा में आगे बढे
- विवेकानंद रामकृष्ण के शिष्य अवश्य थे परन्त एक खूंटे पर बधंकर न रहे तथा वेदान्त का तत्वज्ञान देने के लिए निकल पड़े
- परमहंस मंदिर में पूजारी बनकर ईश्वर को पाए
- विवेकानंद मूर्तियो तक बंधे रहते तो शिकागो या अन्य देशों में नही जाते
- परस्तर = पत्थर , पत्थर तो एक माध्यम है, उसके माध्यम से हमें परब्रह्म को पाना है
- हमें कण कण में ईश्वर को सर्वव्यापी देखना है
- मूर्ति में फस जाएंगे तो विकास प्रक्रिया रूक जाएंगी, मूर्तिया प्रारम्भिक अवस्था के लिए माध्यम के रूप में आवश्यक है
अवधूतोपनिषद् में आया है कि देवताओं की स्तुति, अर्चना, स्नान, शौच, शिक्षा आदि में शरीर भले ही लगा रहे, ॐकार रूपी प्रणव को वाणी भले ही जपती रहे, विष्णु का पाठ भले ही होता रहे, बुद्धि सदैव भगवान विष्णु का चिंतन भले ही करती रहे या फिर भले ही बह्म लीन रहे किन्तु मै तो केवल साक्षी रूप हूँ, मै इनमें से किन्ही भी काम को कभी भी नहीं करता हूँ ना करवाता हूँ तो फिर अवधूत करते क्या हैं
- यहा अवधूत अपने लिए कहते है कि मन भले ही कुछ विचार कर रहा है, आाँखे देख रही है परन्तु मै इनमें से एक भी नही हूँ, मै तो केवल आत्मा हूँ
- मै आत्मा हूं तथा इंद्रियो को मै साक्षी भाव में देखता हूँ तथा वह कार्य कर भी सकता है तथा नहीं भी कर सकता
- बह्ममय बन गया हैं तब बह्म में लीन होने की कोई आवश्यकता नही, जब उसके साथ तादात्मय स्थापित कर लेता है तब उसमें लीन होना कोई आवश्यक नही
- अवधूत को मन के द्वारा अभ्यास नही करना पड़ता परन्तु यदि मन का सहारा ले भी रहा है तो किसी बंधन में नही पड़ता
धर्म – अधर्म, पाप – पुण्य सच में होते है या मन का वहम होता है
- जो आपके शरीर, मन व आत्मा के लिए अनुकूल व फायदेमंद है, उसे धर्म या पुण्य कह देते हैं
- जो शरीर, मन व आत्मा को कमजोर बना दे , ऐसा खान पान, रहन सहन व व्यवहार को अधर्म या पाप कहते है
- जो आगे बढ़ाने में मदद करें, ऐसा कोई भी विचार या वे सभी क्रिया क्लाप पुण्य की श्रेणी में आते है
- सत्य का पालन करना या विवेक को बढ़ाना धर्म है, विज्ञान बढ़ेगा तो गलतियो से बचाव कर सकेंगे
- संयम को भी धर्म कहा गया, संयम करने से बचत होगा और बचत होगा तो हम उसका कहीं अच्छी जगह उपयोग कर सकते हैं
महिलाएं जब Period में होती है तो एक महात्मा बता रहे थे कि धर्म ग्रंथो का अध्यन नहीं करना चाहिए तथा ऐसी अवस्था में मंदिर में जाने से पाप लगता है, क्या यह सत्य है
- गीता में यह बात नही लिखी, आप स्वयं पढिए -> गीता मे ठीक इसका उलटा लिखा है
- हर समय मुझे स्मरण करो
- गायंत्री महाविज्ञान में भी आया है कि चाहे पवित्र हो या अपवित्र, चाहे चल फिर रहे हो या कोई भी काम कर रहे हो, बुद्धिमान व्यक्ति निरन्तर गायंत्री का जप करे, यह आदेश है, इस जप से महान पापो से छुटकारा पा लेता है
- उन महात्मा को जैसा ज्ञान मिला है वो वैसा व्यवहार करे, हमारे गुरु जी ने हमें जैसा ज्ञान दिया, हम उसी के अनुसार चले
- दूसरे की बात को मानने की बाध्यता नही है
- अपने विवेक के अनुसार हमें चलना है
- किसी की बात को लकीर नही बनाया जाता है, स्वंय के विवेक पर निर्भर करता है
- Periods में भी सभी क्रिया कलाप चलते रहते है, केवल स्वच्छता व साफ सफाई का ध्यान रखे
- जप तो मन से किया जा रहा है
- आज के वैज्ञानिक युग में धर्म को वैज्ञानिक परिपेक्ष में रखकरपालन करना होता है, आध्यात्म को विज्ञान सम्मत लेकर चलना होता है कि आध्यात्म भी न मरे तथा आध्यात्म विज्ञान परक हो
- अपना धर्म वैज्ञानिक धर्म है / वैदिक धर्म है
- वेद अपने में विशुद्ध ज्ञान है
- वेदों में कहा है कि कण कण में ईश्वर है
- कही कुछ Conflict हो तो हमें वेद व उपनिषद् का पालन करना, उपनिषद् ही शाश्वत सत्य है
- वेद व उपनिषद् में कही नही लिखा कि Periods में ऐसा शास्त्र / धर्म ग्रंथ अध्यन ना करे
- पुराणो में पहले ऐसा कहा गया होगा ताकि Periods में आराम करे, उस भाव से कहा होगा, Period का समय Painful होता है, इसलिए उस तरीके से बचाव करते हुए कहा गया होगा
- गुरुदेव ने तो स्वयं वेद का भाष्य किए है तथा वे महापंडित है, उन्होंने मना नही किया
- हमारे गुरु जी ने हमसे कहा था कि इससे छूत नहीं लगता, साधना करते रहे व स्वच्छता का ध्यान रखे
इस जगति/जगत में कौन सा सर्वश्रेष्ठ साधना है, जो एकान्तवास में सेवा के भाव से चले
- जीवनदेवता की साधना सबसे चमत्कारी है व प्रत्यक्ष फल देता है
- इस जीवन का सबसे बड़ा देवता = आत्मा है
- यह आत्म साधना कक्ष में करे या एकान्त में
- एकान्त = एक में अन्त = ईश्वर एक है और उसी में आकर सारा संसार अंत हो जाता है तथा उसी में से सारा संसार निकलता भी है
- एकान्त साधना = आत्म साधना ही है
- जब सब सोए रहते है तब आप आत्म साधना कर सकते हैं
- अपना Business व्यापार के साथ साथ लोक सेवा भी करे
- ज्ञान दान = आत्मीयता का विस्तार करे / प्रेम स्नेह बांटे
- ज्ञान की खेती करे व आत्मज्ञान बाटे, यही सबसे बडी साधना है
- जिस क्षेत्र में अनुभव है वहा अपने समय का दान करे तथा अपने उस क्षेत्र / विषय का लाभ दे
- यह अपने ऊपर निर्भर करता है कि हम सेवा करने के लिए किस क्षेत्र का चुनाव करें
- तीन Varieties है = सुविधा साधन बाटना, पीड़ा निवारण करे तथा पतन होते हुआ का उद्धार करे (जिसका जीवन पतन की तरफ जा रहा है, उसका सुधार करे)
- भगवान का शरीर मानकर इसका ध्यान रखें, कोई भी आपका रोग दुःख नही सहन करेगा, स्वंय ही करना होगा
- शरीर व मन को स्वच्छ रखना ईश्वर का ही कार्य है, यह स्वस्थ रहेगा तो समाज सेवा भी कर पाएंगे
- Business / व्यापार भी सेवा हो सकता है
- समाज को गरीब होने से भी बचाना है
- शक्ति भी बांट रहे है तो वह भी सेवा होगा
महिलाएं जब Period में होती है तो एक महात्मा बता रहे थे कि धर्म ग्रंथो का अध्यन नहीं करना चाहिए तथा ऐसी अवस्था में मंदिर में जाने से पाप लगता है, क्या यह सत्य है
- गीता में यह बात नही लिखी, आप स्वयं पढिए -> गीता मे ठीक इसका उलटा लिखा है
- हर समय मुझे स्मरण करो
- गायंत्री महाविज्ञान में भी आया है कि चाहे पवित्र हो या अपवित्र, चाहे चल फिर रहे हो या कोई भी काम कर रहे हो, बुद्धिमान व्यक्ति निरन्तर गायंत्री का जप करे, यह आदेश है, इस जप से महान पापो से छुटकारा पा लेता है
- उन महात्मा को जैसा ज्ञान मिला है वो वैसा व्यवहार करे, हमारे गुरु जी ने हमें जैसा ज्ञान दिया, हम उसी के अनुसार चले
- दूसरे की बात को मानने की बाध्यता नही है
- अपने विवेक के अनुसार हमें चलना है
- किसी की बात को लकीर नही बनाया जाता है, स्वंय के विवेक पर निर्भर करता है
- Periods में भी सभी क्रिया कलाप चलते रहते है, केवल स्वच्छता व साफ सफाई का ध्यान रखे
- जप तो मन से किया जा रहा है
- आज के वैज्ञानिक युग में धर्म को वैज्ञानिक परिपेक्ष में रखकरपालन करना होता है, आध्यात्म को विज्ञान सम्मत लेकर चलना होता है कि आध्यात्म भी न मरे तथा आध्यात्म विज्ञान परक हो
- अपना धर्म वैज्ञानिक धर्म है / वैदिक धर्म है
- वेद अपने में विशुद्ध ज्ञान है
- वेदों में कहा है कि कण कण में ईश्वर है
- कही कुछ Conflict हो तो हमें वेद व उपनिषद् का पालन करना, उपनिषद् ही शाश्वत सत्य है
- वेद व उपनिषद् में कही नही लिखा कि Periods में ऐसा शास्त्र / धर्म ग्रंथ अध्यन ना करे
- पुराणो में पहले ऐसा कहा गया होगा ताकि Periods में आराम करे, उस भाव से कहा होगा, Period का समय Painful होता है, इसलिए उस तरीके से बचाव करते हुए कहा गया होगा
- गुरुदेव ने तो स्वयं वेद का भाष्य किए है तथा वे महापंडित है, उन्होंने मना नही किया
- हमारे गुरु जी ने हमसे कहा था कि इससे छूत नहीं लगता, साधना करते रहे व स्वच्छता का ध्यान रखे
इस जगति/जगत में कौन सा सर्वश्रेष्ठ साधना है, जो एकान्तवास में सेवा के भाव से चले
- जीवनदेवता की साधना सबसे चमत्कारी है व प्रत्यक्ष फल देता है
- इस जीवन का सबसे बड़ा देवता = आत्मा है
- यह आत्म साधना कक्ष में करे या एकान्त में
- एकान्त = एक में अन्त = ईश्वर एक है और उसी में आकर सारा संसार अंत हो जाता है तथा उसी में से सारा संसार निकलता भी है
- एकान्त साधना = आत्म साधना ही है
- जब सब सोए रहते है तब आप आत्म साधना कर सकते हैं
- अपना Business व्यापार के साथ साथ लोक सेवा भी करे
- ज्ञान दान = आत्मीयता का विस्तार करे / प्रेम स्नेह बांटे
- ज्ञान की खेती करे व आत्मज्ञान बाटे, यही सबसे बडी साधना है
- जिस क्षेत्र में अनुभव है वहा अपने समय का दान करे तथा अपने उस क्षेत्र / विषय का लाभ दे
- यह अपने ऊपर निर्भर करता है कि हम सेवा करने के लिए किस क्षेत्र का चुनाव करें
- तीन Varieties है = सुविधा साधन बाटना, पीड़ा निवारण करे तथा पतन होते हुआ का उद्धार करे (जिसका जीवन पतन की तरफ जा रहा है, उसका सुधार करे)
- भगवान का शरीर मानकर इसका ध्यान रखें, कोई भी आपका रोग दुःख नही सहन करेगा, स्वंय ही करना होगा
- शरीर व मन को स्वच्छ रखना ईश्वर का ही कार्य है, यह स्वस्थ रहेगा तो समाज सेवा भी कर पाएंगे
- Business / व्यापार भी सेवा हो सकता है
- समाज को गरीब होने से भी बचाना है
- शक्ति भी बांट रहे है तो वह भी सेवा होगा
एक महिला का पुंनसवन संस्कार करवाया था, अभी उनका 8वा महीना चल रहा है तथा अब वह हमें सीमान्तो नयन संस्कार करवाने का कह रही है, इस संस्कार को कैसे करवाया जाए
- पहले 16 संस्कार होते थे, गुरुदेव ने अब 12 कर दिए है
- 4 संस्कारो को पुनसवन संस्कार में रख लिया, इसी में सीमन्तो नयन संस्कार भी है
- गर्भाधान संस्कार पहले होता था परन्तु अभी गर्भाधान संस्कार के सूक्ष्म गुणो को पुंनसवन में ले लिया कि बच्चे के गर्भ में आने से पूर्व अपने वीर्य को तेजस्वी बना ले, अपने को निरोग बना ले तथा तप करके शुक्राणुओं को मजबूत बना ले
- गर्भाधान के बाद पुंनसवन व फिर सीमन्तो नयन में गर्भाधान के बाद में पति भी अब सहयोग करे तथा एक खास समय के बाद सहचर्य बंद कर दिया जाता है तथा पूरा ध्यान शिशु के पोषण में लगाया जाता है
- पुंनसवन संस्कार में जो सकल्प लिए गए थे कि गर्भणी को प्रसन्न रखेगे, परिवार में कलह नही करेंगे नही तो बच्चा चिडचिडा दिमाग का हो जाएगा तथा बच्चे को पुष्ट बनाने मे लिए देसी गाय से दुध के बने खीर का सेवन करेगे व औषधि के रूप में एस्टी मधु व अश्वगंधा का 1 महीने सेवन करने से बच्चे पुष्ट होते है तथा कफ की बीमारी निमोनिया नही होती तथा प्रतिदिन सुर्योपासना के साथ गायत्री मंत्र का जप करेंगे, इसी सब के पालन में ध्यान लगेगा तथा इस प्रकार बच्चे के पांचो कोशो का विकास गर्भ में ही हो, की व्यवस्था बनाई गई
- सीमन्तो नयन को अलग से कर्मकाण्ड भास्कर में नही रखा
- गर्भावस्था में भी एक अनुष्ठान कर लेना चाहिए, वह भी सीमन्तो नयन संस्कार का काम करेगा
- 9 महीने गर्भ में रहने के दौरान एक नवरात्री में बीच में अवश्य आएगा तो उसी में एक अनुष्ठान अवश्य कर ले तथा फलाहार या सात्विक आहार लेते हए साधना कर लेगे तो तेजस्वी संतति होगी ।
क्या कारण है कि जानते हुए क्या सामयिक कार्य है क्या नहीं, फिर भी सामयिक कार्य करने का मन नही करता है
- मन इसलिए नही लगता क्योंकि मन रस खोजता है, आनन्द खोजता है, जिसमें उसे रस आएगा वही काम करेगा
- गुरु का कार्य है कि उस कार्य को शिष्यो / अन्यों के लिए रसमय बनाए
- सामयिक कार्य को रसमय बनाना उन लोगों का दायित्व है जो उस प्रकार के कार्यों में लगे हुए हैं
- बुद्धिमान लोग निम्न आचरणो को बदलते है व नए युग के अनुसार नए कार्य करते हैं ना कि पुराने ढर्रे में चलते रहते है, यही युगधर्म है तथा युगधर्म का निर्वाह भी हमें करना है
- अवचेतन मन की पिछली आदतों के कारण मन सामयिक कार्यो में नही लगता है
- ऐसी अवस्था में उन सामयिक कार्यो को करने के फायदे व लाभ मन को समझाएंगे तथा उन कार्यो को न करने के क्या नुकसान है, वे मन को समझाएंगे तो मन रुचि लेने लगेगा 🙏
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