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पंचकोश जिज्ञासा समाधान (14-01-2025)

पंचकोश जिज्ञासा समाधान (14-01-2025)

आज की कक्षा (14-01-2025) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-

कठोपनिषद् में आया है कि हे यमराज ! आप स्वर्ग के साधनभूत अग्निविद्या को भली-भांति जानते हैं, अतः मुझ श्रद्धालु को वह अग्निविद्या भली प्रकार समझाएं, जिसके द्वारा स्वर्गलोक को प्राप्त हुए पुरुष अमृत्व को प्राप्त करते हैं, इस अग्नि विद्या को मैं द्वितीय वर के रूप में मांगता हूं, यहा अग्नि विद्या कौन सी विद्या है

  • अग्निविद्या दो प्रकार की है
  1. एक स्वर्ग प्रदान करेगी
  2. दूसरी स्वर्ग का सुख देते हुए अमृतत्व प्रदान करेगी
  • यहा दूसरी प्रकार की अग्निविद्या का वर्णन किया गया है जिसमें स्वर्ग को प्राप्त हुए पुरुष अमृतत्व की प्राप्ति करते है
  • विभिन्न प्रकार के यज्ञ कराने से भी स्वर्ग की प्राप्ति होती है, कभी कभी ऐसा भी होता है कि यज्ञ से जिस प्रकार का स्वर्ग मिला, वह क्षणिक होता है, जब तक पुण्य है तब तक स्वर्ग का लाभ मिलता है फिर उसके बाद पुनरावर्ती होता है तथा फिर से कर्म फल की व्यवस्था में बध कर जन्म लेना पड़ेगा
  • एक पक्ष यह भी है कि स्वर्ग को भोगते हुए ब्रह्मा लोक से उपर आगे बढ़ते हुए अमृतत्व को पाना, जब प्रजापति लोक से भी उपर जाऐगे तब बीच रास्ते में स्वर्ग पड़ेगा
  • त्रिनचिकेता अग्नियों को गुरुदेव ने उपासना – साधना – अराधना के रूप में कहा
  • तीनो शरीरो की अलग अलग अग्नियां है तथा इसका एक नाम ओजस तेजस वर्चस भी है
  • इन तीनो अग्नियो को जगाया जाएगा तो साधक इनसे परे जाएगा तथा जब तक जीवित है तब तक यही पर स्वर्ग का सुख लेगा
  • मनुष्य मे देवत्व का उदय -> अपने में भी देवता बनेगा + धरती पर स्वर्ग का अवतरण -> इस धरती को भी स्वर्ग बनाएगा और स्वर्ग का सुख धरती पर ही लेगा
  • इससे अधिक और सूक्ष्मीकरण में जाएंगे तो तीन अग्नि, पांच कोश हो जाएगा तथा पाच कोशो के भीतर की अग्नि को पंचांग्नि विद्या कहेंगे
  • यहा दोनो अग्नियों के नाम है -> त्रिनचिकेता अग्नि + पंचांग्नि
  • इसका अर्थ यह है कि उन्होंने तीन शरीरों की साधना भी कराई होगी तथा पांचो कोशो की साधना भी करवाई होगी
  • गुरुदेव लिखते हैं कि कठोपनिषद् में बताई गई पंचांग्नि विद्या पंचकोशीय साधना है
  • इन्हीं कोशो को अनावृत्त करते जाएंगे तो आत्मसाक्षात्कार होगा तथा आत्म साक्षात्कार का होना ही अमृत्व है
  • जैसे पंचकोशो में आनंदमय कोश को अनावृत्त करेंगे तो ईश्वर दर्शन होगा व आनन्द की प्राप्ति भी होगी, इसी को अमृत्व कहते है
  • अमृत्व का अर्थ कि आत्मा की अमरता का बोध होना
  • अग्नि विद्या का अर्थ पांचों कोशो की साधना करना, हर कोश एक कुण्ड है तथा प्रत्येक कोश में एक अग्नि है
  • जैसे अन्नमय कोश में प्राणाग्नि, प्राणमय कोश में जीवाग्नि, मनोमय कोश में योगाग्नि, विज्ञानमय कोश में आत्माग्नि तथा आनन्दमय कोश को बहाग्नि कहते है -> यही 5 अग्नियां है
  • प्रत्येक कोश में साधना के तरीके अलग है, इसे इष्टिका / ईकाइयां / चरण कहा है
  • ये सब भीतर की सब अन्र्तरंग साधनाए है
  • इसमे अग्निहोत्र अपने भीतर ही करना है, प्राण मे अपान तथा अपान में प्राण की आहुति भीतर ही डालनी है
  • पंचांग्नि विद्या यम नचिकेता को सीखा रहे है तथा यही विद्या गुरुदेव प्रज्ञापुत्रों को सीखा रहे है, प्रज्ञापुत्रों को ही नचिकेता कहते है

पैगलोपनिषद् में याज्ञवल्क्य मुनि बता रहे है कि जब ईश्वर की इच्छा हुई तो पंजीकृत करके सृष्टि का निर्माण किया फिर उसकी समेटने की इच्छा हुई तो उसे अपंचीकृत करके कामना की और फिर ब्रहमाण्ड व लोको को पुनः समेट कर ईश्वर में विलीन कर दिया, पंचीकृत महाभूतों द्वारा निर्मित और संचित कर्मो से प्राप्त स्थूल देह कर्मो के क्षय हो जाने तथा सत्कर्मो के परिपाक होने से अपंचीकृत हो जाती है, वह देह सूक्ष्म रूप से एकीभूत होकर कारण रूप को प्राप्त होकर अन्त में उस कारण के ही कारण उस प्रत्याग्यात्मा में विलीन हो जाती है, . . .का क्या अर्थ है

  • कर्मो का क्षय = हर परमाणु की अपनी एक आयु होती है जैसे Neuron, Lifetime रहता है तथा अन्य cell, मरते व बनते रहते है, सुर्य की भी अपनी एक आयु है
  • पंचतत्वो से बना हुआ परमाणुओं का संघनन ठोस दिखता है
  • उन ईश्वर की इच्छा एक से अनेक बनने की हुई तब उन्होंने पंचतत्वों का निर्माण किया
  • आधा भाग एक तत्व तथा बाकी आधे में चारो तत्व आते है
  • तत्वों को आपस में जोड़ने वाली शक्ति का नाम श्रद्धा है, प्रश्नोपनिद् में आया है कि पहले प्राण तत्व आया तथा बाद में श्रद्धा का निर्माण हुआ, यही श्रद्धा ही चिपकाने का कार्य करता है
  • प्रेम नहीं है तो किसी के पास में बैठने पर भी घुटन होती है, श्रद्धा तत्व ही संसार को चला रहा है
  • जब ईश्वर ने श्रद्धा तत्व को अपने में समेट लिया तब बाकी सभी तत्व भरभराकर उसमें विलीन होते चले गए

श्रद्धा कब मोह बन जाता है

  • जब थोडे से दायरे में इसका उपयोग होता है
  • प्रेम एक छोटे से दायरे में रहे तो मोह में बदल जाएगा
  • जब प्रेम / श्रद्धा छोटे से दायरे में खर्च करेंगे तो 3 कीटाणु / राक्षस उत्पन्न होते हैं
  • > लोभ मोह अहंकार -> ये तीनों शरीरों को बंधन में बाध कर रखते हैं
  • इसलिए वासुदेव कुटुम्बकम का भाव रखे
  • सीमित प्रेम को बढ़ा देंगे तो उदार भक्ति भावना कहलाता है
  • उदार भक्ति भावना से ईश्वर मिल जाएगा
  • EGo को छोटे दायरे में रखेंगे तो घमण्ड पैदा होगा परन्तु उसी Ego को बढ़ा देंगे तो ईश्वर मिल जाएगा -> मैं शेयर नहीं आत्मा हूं क्योंकि शरीर का एक बाउंड्री है तथाआत्मा का कोई बाउंड्री नहीं होता
  • सेवा से अंहकार बढ़ता व गलता है
  • सेवा भी की तथा अपना अहसान जताया कि हमारा नाम लिखवा दीजिए -> सेवा के बाद इस प्रकार की इच्छा अहंकर को बढ़ाती है
  • सेवा तो हमारी Duty ही है, हम सभी यहा सेवक है, इसमें हमने कोई अहसान नहीं किया
  • ईश्वर का इतना अहसान है कि कितना भी हम सेवा करे तो एक कण के बराबर भी नहीं चुका सकते, इस भाव से करेंगे तो यही भाव मोक्ष दिला देगा

विश्व को विस्मृत करके तथा एकाग्रता को धारण करके इधर उधर कही भी नहीं दौडता, विषय वासना रूपी उद्यान में विचरण करने वाले मन रूपी गुम्बद गजेन्द्र को वश में करने में यह नाद रूपी अति तीक्ष्ण अंकुश ही समर्थ होता है, यह नाद मन रूपी हिरण को बांधने में जाल का कार्य करता है और मन रूपी अंग को रोकने में तट का काम करता है, ब्रह्म रूप प्रणव में संयुक्त वह यह नाद स्वयं का स्वरूप होता है, यहा नाद की बात जो आई है तो क्या इससे मन की दौड समाप्त हो जाएगी

  • बिल्कुल समाप्त हो जाएगी कर के देखे
  • नाद साधना इसलिए किया जाता है कि हमें Daily Routine वाला नाद सुनाई पड़ता है
  • जो हमने अनाहत नाद (ईश्वर वाला) के विषय में पढ़ा है, वह सुनाई नहीं दे रहा तो इसका अर्थ है कि हमारी नाद पर Command नहीं
  • संसार में ढेर सारी ध्वनिया घूम रही है तो जो हमारे लिए उपयोगी है, वे सब सुने तथा बाकी जाने दे – > यही शब्द साथना होता है
  • नाद की ध्वनि अन्दर भी है तथा बाहर भी है
  • जो पीटने से बजे, उसे आहत नाद कहते है
  • हवा की सरसराहट मनुष्यों के द्वारा नही किया गया यह अनाहात नाद है
  • पचंकोश साधना तंत्र साधना का सबसे Refined स्वरूप है

गीता के दूसरे अध्याय के 56 वे श्लोक में दैहिक दैविक भौतिक दुखः क्या हैं

  • दैहिक -> रास्ते में ठोकर लगने से या पंचभौतिक तत्वों का झटका लगने से जो कष्ट हुआ, यदि पंचभौतिक तत्वो के थपेडों को सहा जाए तो यह दुखः कम होगा
    जो भूतो के द्वारा या जड़ तत्वों के द्वारा जो कष्ट होता है तो वहीं दैहिक कष्ट है
  • दैविक -> जो देवताओं के द्वारा चलाया जाए, जैसे सुर्य की तेज गर्मी, बाढ़ का आना, भुकम्प का आना -> यहा पृथ्वी द्वारा कुछ नही किया गया, देवताओं के द्वारा जो संचालित है उसे भी सहने की सामर्थ्य आ जाए तथा वह हमें कष्ट ना दे पाए, जो Fit होगा वही survive करेगा
  • भौतिक -> समाज या देवताओ के द्वारा नही अपितु स्वयं के द्वारा [ Negative Thought के द्वारा ] दिए जाने वाले कष्ट
  • दैहिक को ही आध्यात्मिक भी कहते है, दैहिक वाला ही सबसे कीमती है
  • आत्मसाधना करेंगे तो तीनों प्रकार के दुःखो को सहने की सामर्थ्य आ जाती है
  • विज्ञानमय कोश की साधना करेंगे तो इन्हे झेलने की शक्ति आ जाती है क्योंकि इसमें तन्मात्रा साधना को पार करके जाना होता है, तब इस अवस्था में शरीर पर तापमान के बढ़ने या घटने का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा
  • मैं शरीर नहीं आत्मा हूं इस भाव में यदि साधक आ जाएगा तो हर प्रकार के कष्टो को झेल सकता है

नौ द्वार वे बारे में अक्सर सुना जाता है रंगमहल के भीतर 10 द्वार है, ना जाने कौन सी खिड़की (एकादश द्वार) खुली थी जिसमें से आत्मा / जीव निकल गया, यहा एकादश द्वार का क्या अर्थ है

  • 7 दरवाजे चेहरे पर है तथा दो नीचे मुत्र मार्ग व गुदा मार्ग तथा दसवा ब्रहरंध्र है
  • एक द्वार नाभी भी है, बाहर से भले ही सूख जाए परन्तु भीतर से वह Pathway बना रहता है, महामुद्रा से यह जगने लगता है तथा सुर्य से सीधा भोजन खीचने लगता है
  • यहा भी एक Brain है, इसी को एकादश कहा गया
  • एकादश यहा नाभी मार्ग है

रावण को विभिषण उसके हित का बात बताते थे, तो भी उनको अहित लगता था तथा अहित वाली बाते हित की लगती थी, वैसा आज के समय में भी है, परन्तु आज थोडा बदलाव भी है कि हमें उन्ही के साथ रहना है तथा छोटी छोटी गलतियों पर उन्हे टोका जाता है तथा Ignore किया जाता है, ऐसे में आत्म बल गिरने लगता है तो क्या करे कि उनका आत्मबल बढ़े

  • आत्मबल बढ़ाना है तो उसकी आत्मसाधना करनी होगी, जिसका बल बढ़ाना है उसकी साधना करनी पड़ती है
  • विभिषण ने भी साधना की थी तो वो सह लिए तथा उन्हे दिक्कत नहीं आई
  • साधक कहीं भी रह लेगा उसे कोई दिक्कत नहीं होगा
  • रावण ने भगा भी दिया तो भी वे उनके प्रति ईष्या द्वेष में नही थे, धर्म के मार्ग पर चलने के लिए वे अन्त तक समझाते रहे, मारने की बारी आई तब भी उन्हे समझाया तथा कुम्भकरण को भी समझाया
  • विभिषण ने अन्त तक आत्म साधना किया
  • रावण भी साधना करते थे परन्तु रावण की साधना भौतिक शरीर की थी, पदार्थ जगत की साधना अधिक किए, आध्यात्मिकी में प्रवेश नहीं किए
  • उनकी साधना नाभी चक्र तक थी, नाभी चक्र में उनका अमृत था, एक चक्र और आगे बढ़े रहते तो सन्त बन जाते, अनाहात में अन्तः करण है तथा यही से व्यक्तित्व बदलता है, उसे दया आने लगती है तथा फिर वह किसी ऋषि को तंग नही करता
  • अनाहात तक आते तो असुरत्व समाप्त हो जाता है, पंचकोषों की साधना मेंब्रह्म ग्रंथ तक पहुंच जाता है तथा ईश्वर में विलीन हुआ जाता है, जब भी हम आनाहात से नीचे रहेंगे तो ईश्वर से दूरी बनी रहती है
  • आज के समय में धरती पर पंचकोशो की साधना अनिवार्य है
  • गुरुदेव ने प्रत्येक गायत्री साधक के लिए यह साधना अनिवार्य / आवश्यक बताया है, यह साधना करेंगे तब स्वर्ग जैसी स्थिति आएगी और व्यक्ति किसी को परेशान भी नहीं करेगा इसके अलावा अन्य कोई मार्ग नहीं बचा है

किसी दिन 4 घंटा सोने का समय मिलता है तो उस के अगले दिन सुबह तो जाग जाते हैं परंतु ऑफिस में बहुत नींद आता है, फिर ऑफिस में काफी पीना पडता है, जिससे अन्नमय कोश भी खराब होता है, तथा शरीर उतना Active भी नहीं रह पाता है, यह किसी कोश की कमजोरी के कारण होता है, सोने का समय परिवर्तित करना तो मुश्किल है तो इसे किस साधना से नियंत्रित किया जाए ताकि किसी भी अवस्था में मस्तिष्क चेतना में रहे

  • एक भी कोश यदि कमजोर रहा तो ताजगी में कमी आएगी
  • अन्नमय कोश की कमजोरी से आलस्य आएगा, निरोग रहते हुए भी आलस आएगा
  • प्राणमय कोश की कमजोरी से Energy की कमी रहेगी तथा Full Energy के लिए ही Deep Rest की जरूरत पड़ती है
  • यदि हमने over work कर दिया तथा केवल 4 घंटे विश्राम किया तो भी दिक्कत होगा तथा देर तक आप शरीर से काम नहीं ले सकते , प्रकृति उसे कही ना कही सुला देगी क्योंकि उतना Rest जो शरीर को चाहिए उसके लिए प्रकृति भी मदद करती है
  • इसलिए Rest के लिए योग निद्रा व प्राणायाम बताए गए है ताकि हम कम समय में पूरी तरह charge हो जाते थे तथा धीरे धीरे क्षमता बढ़ती जाती है
  • संत हरदास केवल 2 मिनट सोते थे पूरी तरह चार्ज हो जाते थे, अवश्य ही उन्होंने पांचो कोशो को Refine किया होगा
  • लक्ष्मण जी वन में जब 12 वर्ष गए तो सोए ही नहीं तब उन्होंने शक्ति पाई
  • इसका अर्थ यह है कि शरीर में कोई ऐसा सिस्टम अवश्य होगा जिसमें यदि हम पहुंच जाए तो नींद की आवश्यकता नहीं होगी और हमें यह भी लगेगा कि हम ताजा बने हुए हैं
  • श्री अरविंदों बताते है कि वह ग्रहण की शक्ति है, जब हम आत्मभाव में योगस्थ होकर कार्य करते रहते हैं तो थकावट नहीं आती
  • आत्मसाधना ही एक मात्र आधार है, पांचों कोशो की भूमिका इसमें है
  • मनोमय कोश कमजोर रहा तो मन में प्रमाद आ जाएगा
  • विज्ञानमय में न रहने पर व्यक्ति ईश्वर का काम समझकर नहीं करता तथा अपना या Boss का काम समझकर करता है
  • इसी प्रकार यदि हर कार्य में हम आनंद की अनुभूति करें तथा मजा लेने लगे तो थकावट कम होती जाएगी तथा धीरे-धीरे सुधार आता जाएगा

तुलसीदास जी ने तीनो तापो में से जिसे दैहिक कहा तो यदि उस पर नियंत्रण पा लिया जाए तो भौतिक व दैविक ताप स्वतः समाप्त हो जाएगे या उन्हें सहन करने की शक्ति हमारे भीतर आ जाएगी

  • निश्चित ही आ जाएगी क्योंकि ये संसार पंचतत्वों से बना है तो भौतिक पर भी आएगा
  • दैहिक आध्यात्मिक है
  • अपना सुधार (संसार की सबसे बड़ी सेवा) से यह स्थिति आने लगती है
  • सभी का comnand इसी के माध्यम से हो रहा है

मकर संक्राति का क्या महत्व है

  • माद्य मकर गत जब रवि होई, तीर्थ पति ही आओ सब कोई -> तीर्थपति प्रयाग राज है
  • पहले भारद्वाज ऋषि यहा कल्प साधना एक एक माह का कराते थे परन्तु अब कल्प साधना उस स्तर का नहीं रह गया तथा केवल प्रवचन तक ही सीमित रह गया है
  • सभी संत अपने अपने मत के जाते है तथा ज्ञान का आदान प्रदान करते है
  • असली उद्देश्य सौर उर्जा वाला देखे -> सुर्य अब मकर पर जाकर करवट बदलेगे तथा उत्तरायण होगे
  • उत्तरायण की प्रतीक्षा में भीष्म पिता मह भी थे
  • इसका अर्थ यह है कि अब उत्तरायण पक्ष में आत्म साधना में भी मदद मिलेगा, सूक्ष्म प्रकृति भी मूलाधार से सहस्तार की यात्रा में सहयोग करती है
  • सुर्योपासना में लग जाना है
  • जो भी संत विज्ञानमय कोश में पहुंच गया है, वह उत्तरायण या दक्षिणायन कभी भी शरीर छोड़े तो वह हमेशा ब्रह्म में ही विलीन होगा

महाकुंभ में उसी स्थान प्रयागराज में स्नान करने का ही महत्व या लाभ मिलता है या कही भी स्नान करेगे तो वही लाभ मिलेगा

  • कही भी स्नान करे, लाभ मिलेगा
  • अपना ध्यान हमेशा रखना है
  • जब भी संक्राति आती है तब प्रकृति में छेड छाड चलती है तो वह समय साधना के लिए बड़ा अनुकूल होता है
  • प्रयाग = मस्तिष्क में त्रिकुटि को कहा जाता है
  • ईडा – पिंगला – सुष्मना दो जगह पर मूलाधार व आज्ञाचक्र में जाकर मिलती है
  • आज्ञा चक्र को प्रयाग कहा जाता है इसलिए हमें आज्ञा चक्र में ध्यान करना चाहिए
  • यदि हम प्रतिदिन आज्ञा चक्र में ध्यान कर रहे हैं तो हम प्रतिदिन प्रयाग में स्नान कर रहे हैं
  • स्थान विशेष का तथा सबसे मिलने जुलने से प्राप्त प्राण उर्जा का भी विशेष महत्व रहता है
  • घर पर रहकर भी यदि इस भाव से करेंगे तो पूरा लाभ मिलेगा

शिवलिंग की आकृति तो हमेशा एक जैसी होती है पर रंग ज्यादातर काला और कभी कभी सफेद संगमरमर के पत्थर या बर्फ का बना होता है। तो क्या इनका अलग-अलग तरह से प्रभाव भी पड़ता है?

  • जी बिलकुल अलग अलग प्रभाव पडता है
  • शिवजी कर्पुर की तरह गौरे भी है (हिमालय वाले है) तथा श्मसान पर भी रहते हैं, यहा ये दक्षिणायन वाले महाकाल है कुण्डलिनी के रूप में विद्यमान है
  • मूलाधार व सहस्तार दोनो में शिव है
  • शिव (सफेद) व शक्ति (काला) दोनो में घुले है, शक्ति ही शिव है, शिव ही शक्ति है इसलिए चेतना जगत व पदार्थ जगत दोनो में अपनी पकड होनी चाहिए
  • चेतना जगत वाले को white (सत) कहा जाता है
  • भौतिक जगत वाले को तम (काला) कहते है

शरीर में सूर्य की गति कब मकर संक्राति में पहुंचती है कृप्या प्रकाश डाला जाय

  • सुर्य भेदन व चद्र भेदन में या अनुलोम विलोम की प्रक्रिया भी उस तरीके से रखी जाती है
  • नीचे मूलाधार में मकर संक्रांति है
  • उपर सहस्तार में कर्क संक्रांति है
  • यही दो Pole मुख्य रखे गए

 ऐतरेय उपनिषद के 12वें श्लोक के भाष्य में लिखा है कि तीन स्वचालित तंत्र – सहस्रार, हृदय चक्र तथा नाभि ग्रंथि हैं, तो जब ये स्वचालित हैं तो इनके अनावरण एवं शुद्धीकरण की आवश्यकता क्यों पड़ती है ?

  • गुरुदेव तीन शरीरो के ध्यान में नाभी, हृदय और सहस्रार का ध्यान लगवाते हैं तो यह उन्ही तीनो शरीरो के सम्बन्धित है    🙏

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