पंचकोश जिज्ञासा समाधान (15-08-2024)
आज की कक्षा (15-08-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
योगशिखोपनिषद् में आया है कि रम्भा का यह शरीर तीन प्रकार का कहा गया है स्थूल, सूक्ष्म व कारण . . . नाद बीज हिरण्यगर्भ को सूक्ष्म कहा गया है का क्या अर्थ है तथा कारण शरीर का भी वर्णन नही है केवल दो शरीरो का ही का वर्णन है
- पचंतत्व से बना (विराट) -> स्थूल शरीर
- हिरण्यगर्भ -> सूक्ष्म
- इच्छा / नाद / बीज -> कारण शरीर है जैसे ॐ (बीज) श्रृष्टि का कारण है
- ॐ ईश्वर वाची है, फिर नाद से सारा संसार उत्पन्न हुआ फिर Sound से / इच्छा से Light निकला उसे हिरण्यगर्भ कहेंगे फिर गाढ़ा हुआ तो पंचतत्व विराट का निर्माण हुआ
- वैज्ञानिको का मानना है कि प्रकाश से संसार उत्पन्न हुआ परन्तु भारतीय वैज्ञानिको ने पहले ही बता दिया था कि प्रकाश की उत्पत्ति नाद से हुई
- मूल रूप में ध्वनि ही पहले विद्यमान थी तथा वही ध्वनि मूल रूप में / इच्छा रूप में परा कहलाती है
- परा से ही विचार आया
- इच्छा ही आदि शक्ति (Will Power है), इच्छा ही कारण है, इच्छा ही नाद है, यदि एक से अनेक बनने की इच्छा ही नही होती तो सृष्टि उत्पन्न ही नही होती, इच्छा से ही विचार उठता है, विचार से क्रिया होती है उसी से पदार्थ बनता है
- प्रत्येक लक्ष्य के पीछे इच्छा छिपी रहती है जैसे सांसारिक इच्छा या परमात्मा को पाने की इच्छा, उसी के अनुरूप फल की प्राप्ति होती है
बलि से बलिदान की उत्पत्ति हुई तो बलिदान का अर्थ अपनी प्रिय वस्तु का त्याग करना है, यहा बलि जानवरो की होती है क्या यह सही है
- हम किसी के प्रति भाव संवेदना देते हैं तो वह भी दान ही हुआ
- त्याग = दान करना
- किसी के प्रति प्रेम भाव में भी आत्मीयता का दान बलि का रूप दे रही है, यह अपने स्वयं का बलि कहलाएंगा, इसे छिन्मस्ता भी कहते है
- जैसे सुर्य अपने आप को काट काट कर प्रकाश के रूप में स्वयं को भेज रहा है,इसे छिन्नमस्ता कहते है
- काम क्रोध लोभ को पशु कहा गया, इसको छोडना है, यह भी बलि है
- आलस्य जो कि हमारे लिए प्रिय है के त्याग से बहुत लाभ मिलता है
- बुराईयो का त्याग = बलि = महामुद्रा
- रुधिर केवल रक्त नही केसर भी होता है
- कुमारी = घृतकुमारी औषधि
- अश्व गंधा औषधि = घोड़े का मास
गायंत्रीरहस्योपनिषद् का पाठ करने से वैसा ही लाभ मिलता है जैसा कि गायंत्री हृदयम में 60000 गायंत्री मंत्र जप का लाभ मिलता है परन्तु यहा केवल माता के बारे में बताया है तो दोनो में समान लाभ कैसे मिलेगा
- यहा इस उपनिषद में एक छोटे रूप में है तथा गायंत्री हृदयम में यह विस्तृत रूप में है
- गायंत्री गीता में भी इसी की व्याख्या है
- पूरा वेद गायंत्री मंत्र की ही व्याख्या करता है
- यह Basic है , गायंत्री का अर्थ प्राण है, जो कुछ भी हम पढ़ते हैं वह सब प्राणिक ऊर्जा ही है
- वेदमाता गायंत्री है, समस्त ज्ञान गायंत्री ही है
- जितना इस उपनिषद् में पूछा गया केवल उसी के अनुरूप यहां उत्तर मिला इसका यह अर्थ नहीं कि यह ज्ञान केवल इतना भर ही है
- जो व्याख्या गायंत्री स्मृति में है, वह इसमें नहीं है
- जितना इसे हम अधिक से अधिक जानेंगे उतना ही हमारा ज्ञान बढ़ेगा तथा स्वयं का Refinement होगा
- निर्भर करता है कि सामने वाले छात्र ने क्या पूछा है तो उसी के अनुरूप हम उसे गायंत्री का अर्थ बताए
- यदि कोई नर्सरी कक्षा का छात्र है तो उसे केवल गायंत्री मंत्र का ही अर्थ बताकर छोड़ दिया जाएगा, फिर धीरे धीरे Deep में जाते है जैसे स्कूल में विज्ञान Basic है परन्तु M Sc. में Deep में है, इसे सूक्ष्मीकरण कहते है फिर गायंत्री हृदयम में जाएंगे तो और अधिक Deeply है वहा याज्ञवल्क ने बह्मा से प्रश्न किया तो पूछने वाला यदि वैज्ञानिक है तो उसका उत्तर भी गहराई में मिला
सर्वोपनिषद् में रुद्र को ही परमपिता कहा गया है, इसमें आता है कि जिनके वाम पाद पर विष्णु ने अपने नेत्र समर्पित कर दिए, उससे प्रसन्न होकर उन्होंने चक्र प्रदान किया, उस रुद्र को नमस्कार, तो यहा नेत्र समर्पित करने का क्या तात्पर्य है
- गुरू को अपने दायने मानना चाहिए
- वाम = अपने Recessive को वाम कहते हैं
- गुरु ज्ञान दाता है और शिष्य Receive करने वाला है, दाया (देने वाला) Dominant होता है
- नेत्र = ज्ञान
- सुदर्शन = सु + दर्शन -> ऐसा ज्ञान जिससे संसार के सभी कष्टो को काटा जा सके, जो उत्पन्न किया है उसका पोषण किया जा सके
- सु = शुभ / अच्छा, दर्शन = Philosophy
- ज्ञान को ही दर्शन कहते हैं, गुरु वह है जो शिष्य के नेत्र को खोलें
- जिसने पैदा किया है वह इसकी जानकारी देगा
रूद्र ने दक्ष के यज्ञ में सारे देवताओ को हराया तथा विष्णु को नाग पाश में बाध दिया, का क्या अर्थ है
- विष्णु को नाग पाश में इसलिए बांध दिया क्योंकि जो (दक्ष) गलत कर रहे है ऐसे लोगो को विष्णु मत बचाए, न्याय पालिका (रुद्र) में हस्तक्षेप न करे
- कुण्डलिनी को नाग कहा जाता है
- दक्ष समग्रता को लेकर नहीं चल रहा था उन्होंने ब्रह्मा व विष्णु को बुलाया परंतु शिव को नहीं बुलाया तो उस व्यक्ति (दक्ष) में जो अंहकार है उसे शिव ने काट दिया
- न्यायपालिका में कोई हस्तक्षेप नही करता है, इसे नागपाश में बांधना कहा गया
नारदपरिव्राजकोपनिषद् में दुष्ट जनो के द्वारा किए गए अपमान, लांछन को शांत मन से सहन कर ले, यदि वे प्रताडित करते है, बांध कर रखते है या क्रिया कलाप में अवरोध उत्पन्न करते हैं तो भी विचलित न होकर शांत बने रहे, अज्ञानी जन किसी पर थूक दे, मल मुत्र भी कर दे तो उन्हे भी सहन कर लेना चाहिए, का क्या अर्थ है
- यहा अज्ञानी शब्द आया है
- अज्ञानी = बालक है तो उसे समझ नही है कि कहा मल मुत्र त्याग करना है तो उसे क्षमा करे
- ईसा मसीह को सूली पर लटका दिया तब भी वे कह रहे थे कि हे ईश्वर इन बच्चों को माफ कर देना इन्हें नहीं पता यह क्या कर रहे हैं
- ज्ञानी ही आपके शब्दो के महत्व को समझेगा
- कृष्ण ने भी गीता में कहा है कि जिन्हें हम पर श्रद्धा ना हो उनके सामने गीता का पाठ न करें
- गुण गुणों में बदलते है इससे चित्त शुद्ध होता है
- अज्ञानी (बच्चो ) के लिए अपराध क्षम्य है
- जैसे शराबी की बात पर हम ध्यान नही देते
पहले जब रोज यज्ञ हुआ करता था एक मंत्र का अर्थ स्पष्ट नही हुआ
हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥ — सूक्त ऋग्वेद -10-121-1
- यहां सृष्टि की उत्पत्ति के रहस्य का वर्णन किया गया है, उसका विज्ञान के माध्यम से यहां वर्णन किया गया है
- इसका अर्थ है सबसे पहले हिरण्यगर्थ उत्पन्न हुआ
- पहले सत् से रज उत्पन्न हुआ, इच्छा से प्रकाश उत्पन्न हुआ
- जैसे आकाश में से पहले सुर्य उत्पन्न हुआ, इसीलिए सूर्य को ही ब्रह्मा व विष्णु कहा गया है
- जिनके गर्भ में सूर्य ही सूर्य होउनके गर्भ सेयह सूर्य उत्पन्न हुआ, इसलिए कहा गया कि सबसे पहले हिरण्यगर्भ रूपी प्रकाश उत्पन्न हुआ फिर इसे विराट कहते है
- फिर इसी विराट से प्रत्यक्ष ब्रह्मा विष्णु एवं महेश उत्पन्न होना शुरू हो गए
- तम = स्थूल
- जितने भी भौतिक 24 तत्व है तथा सृष्टि के सभी जीव जन्तुओं, इन सभी का स्वामी या पति हिरण्यगर्भ हुआ, वही संपूर्ण पृथ्वी को धारण किए हुए हैं, उसे सुख स्वरूप परमात्मा के लिए यहां आहुतियां दी जा रही हैं
गायंत्री महाविज्ञान में आया है कि गायंत्री को सर्वात्मक भाव से जगाने वाला मनुष्य यदि बहुत ही प्रतिग्रह लेता है तो भी उस प्रतिग्रह का दोष गायंत्री के प्रथम पाद उच्चारण के समान भी नहीं होता, यदि समस्त तीन लोको को प्रतिग्रह में लेवे तो उसका दोष प्रथम पाद उच्चारण से नष्ट हो जाता है यदि तीन वेदों का प्रतिग्रह लेवे तो उसका दोष द्वितीय पाद से नष्ट हो जाता है यदि संसार के समस्त प्राणियों का भी प्रतिग्रह लेवे तो उसका दोष तृतीय पाद से नष्ट हो जाता है अतः गायंत्री जपने वाले को कोई हानि नहीं पहुंचती और गायंत्री का चौथा पद पर ब्रह्मा है इसके सदृश्य दुनिया में कुछ भी नहीं है तो यह हर लाइन में प्रतिग्रह का क्या अर्थ है
- यहा भाव से देखे तथा देखे कि क्रिया की प्रतिक्रिया का क्या Side Effect होता है तो वह जब ज्ञान के माध्यम से देखता है तो उसे Side Effect से मुक्त हो जाता है
- जैसे-जैसे सड़क का ज्ञान बढ़ता जाता है तो वह आने वाले कष्टो के रिएक्शन से मुक्त होता जाता है
- प्रति = उलटा = काटने की प्रणाली = Anti
- प्रत्येक तीन प्रकार के कष्टो को केवल ज्ञान के द्वारा ही काटा जा सकता है
- उस समय हम आत्मभाव में थे तब Brain से Neuro Transmitter (Pain killer) निकालकर कष्ट को समाप्त किया
- इसी प्रकार तीनो प्रकार के कष्टो को ज्ञान से काटा जा सकता है
क्या देवता भी स्वार्थी होते है जैसा कि रामायाण में सुर्य नर मुनि सबकी स्वार्थ परस्पर प्रीति का क्या अर्थ है
- यदि अपने लाभ भर के लिए कोई कार्य किया गया हो तो वह स्वार्थ हो सकता है
- संसार के लिए स्वार्थ -> परमार्थ कहलाता है
- देवता भी योनि है, यह प्रजापति भी योनि है
- पंचतत्व भी देवता कहलाते है
- सातवा शरीर प्रजापति योनि से उपर भी होता है
- जब तक हम सातवे शरीर में नही जाएंगे तब तक वह भाव नही आएगा
- यदि मनुष्य शरीर में रहकर पांचो कोशो या सातो शरीरो से बाहर चले जाते है तब वह परमात्म भाव में आ जाता है परन्तु इसके भीतर चेतना ढ़की रहती है
- संत भी स्वार्थी है वह भी अपने परिवार के लिए कमाता है अंतर केवल इतना है कि सम्पूर्ण सृष्टि संत का परिवार है, उनका स्वार्थ बड़ा है
- बड़ा स्वार्थ = परमार्थ है = मोक्षदायी है = आत्मा के हित में आता है
- देवता का स्वार्थ = देवत्व सवर्धन / Divinity रहता है, उसे निम्न स्तर का न माने
- स्वयं भी सुखी रहे वे दूसरो को भी सुखी रखे या दूसरे को सुख देने के लिए हम कष्ट सहे, दूसरे के शरीर को वह अपना शरीर ही मानता है
- कामनाए बंधन व मोक्ष दोनो का कारण बनती है
- सर्वे भवंतु सुखीना वाली कामना मोक्षदाई है
- यहा लोकसेवा वाला स्वार्थ है, पूजनीय स्वार्थ है
- सुर नर मुनि -> तीनो उत्कृष्ट वाले है
- यहा स्वः का अर्थ आत्मा के हित में आया है यह + Ve अर्थ के रूप में आया है 🙏
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