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पंचकोश जिज्ञासा समाधान (23-09-2024)

पंचकोश जिज्ञासा समाधान (23-09-2024)

आज की कक्षा (23-09-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-

पुरुषोत्तम से अखिल जगत की उत्पनि हुई है जैसे . . . स्मृतिया पुरुषोतम से उत्पन्न होती है, 6 शास्त्र पुरुषोतम से लिए जाते हैं, अष्ट सिद्धियां व नव निधिया भी पुरूषोतम से उत्पन्न होती है, पुरुषोतम को यहा क्या समझा जाए

  • पुरुषोत्तम का अर्थ यहा बह्म से है या परमात्मा भी कह सकते है
  • आत्मा से श्रेष्ठ पुरुष / परबह्म है
  • पुरुष परबह्म के लिए आता है जो पूरे बह्माण्ड का नियंत्रक है तथा वह सबसे उत्तम है (आत्मा से भी श्रेष्ठ परमात्मा है)
  • परमात्मा से ही सब उत्पन्न हुआ है
  • उसे पोषण वही परमात्मा देते है उसका एक नाम सविता है, उन्ही को पुरुषोत्तम कहा गया तथा उन्ही से सब ज्ञान विज्ञान निकले है

शाण्डिल्योपनिषद् में आया है कि सुष्मना नाडी के बाई और ईडा नामक नाड़ी है तथा दाई और पिंगला नाड़ी स्थित है, ईडा में चद्रमा चलाएमान रहता है तथा पिंगला में सुर्य विचरण करता है, चंद्रमा तमोगुण के स्वरूप वाला है तथा सुर्य रजोगुण के युक्त है, चंद्रमा अमृत का क्षेत्र है तथा सुर्य विष का प्रभाग है, यह दोनो सम्पूर्ण काल को धारण करते है, सुष्मना नाडी काल का उपभोग करने वाली है, का क्या अर्थ है

  • तम = शक्ति है खराब नही, पूरी अष्टधा प्रकृति तमात्मक है, तम से बनी है, जैसे अर्धनारीश्वर में बाई ओर शक्ति का वास है
  • चंद्रमा तम है -> चंद्रमा ठंडा है जैसे घर में Neutral या Earthing की wire होती है तथा एक गर्म तार main बिजली वाला होता है, यही Sympathetic Nervous System है तथा यही Controller भी है तथा ठंडा तार Earthing वाला है
  • मन बुद्धि के द्वारा हम इसे Handle करते हैं
  • एक ही शब्द का अनेक जगह उपयोग होता है, पढ़ाने वाले शिक्षक के भाव देखे जाते हैं कि किस भाव से कौन सा शब्द उपयोग हुआ है
  • बाई और से सांस लेने पर दाएं तरफ वाला Parietal Lobe Clean होता है तथा यह आध्यात्म का क्षेत्र है
  • दाई और से सांस लेने पर बाएं तरफ वाला Parietal Lobe Clean होता है तथा यह विज्ञान का क्षेत्र है, पदार्थ जगत है
  • संसार को विष इसलिए कहा जाता है क्योंकि संसार हर क्षण बदलता रहता है तथा इसे Left Parietal Lobe साफ करता है
  • सुर्य नाडी को विष = चंद्र नाडी को अमृत कहा गया है
    आध्यात्म को अमृत तथा संसार (परिवर्तनशील) को विष कहा गया है
  • चंद्रमा -> शरीर में सहस्तार चक्र है
  • सारे तारो के स्वामी = चंद्रमा तो यह स्थूल चद्रमा नहीं है तथा इस चद्रमा का अपना प्रकाश भी नहीं होता
  • यहा परमात्मा को (तारापति चंद्रमा को ) चंद्र कहा गया है तथा यही सहस्तार चक्र है, जिससे सारे तारे जन्म लेते है
  • कही कही परमात्मा के लिए भी कनक शब्द का उपयोग हुआ है
  • वेद में एक ही शब्द के अनन्त अर्थ होते है, हमें नए अर्थो में यह देखना होता है कि किस शब्द का उपयोग कहा करना है
  • शब्द में हेर फेर हो सकता है परन्तु उसका विज्ञान ज्यों का त्यों रहेगा

कुण्डकोपनिषद् में कहा जा रहा है कि मै ही नारायण हूँ, नारान्तक हूँ, पुरान्तक हूँ, ईश्वर भी मै ही हूँ, फिर प्राण व अपान के अभ्यास के विषय के वर्णन में आया है कि वृषण व गुदा के बीच में दोनो हाथो को रखे, दांतों से जिहवा को शनै शनै दबाते हुए एक जौ के बराबर बाहर निकाले, . . . दृष्टि को पृथ्वी पर स्थिर करे जिस से श्रवण व नासिका में गंध ना जाती हो, का क्या अर्थ है

  • यहा शीतली प्राणायाम की बात मन को Cool करने के लिए की जा रही है तथा इसके साथ भूचरि मुद्रा की जा रही है
  • दो प्रकार की मुद्राए होती है -> भूचरि व अगोचरि
  • नाक से 8 अंगुल बाहर शून्य में यदि Meditation करना है ताकि यह पता चले कि यहा पदार्थ की कोई सत्ता नहीं है, किसी भी बिंदु पर त्राटक करने पर वह बिंदु गायब हो जा रही है तथा यह सत्य भी है
  • त्राटक करने से पता चलता है कि यहा हर जगह आकाश ही आकाश है तथा त्राटक में किसी भी वस्तु की पोल खुल जाती है, इसलिए आकाश में त्राटक करना शून्य में त्राटक करना है
  • श्रीमदभगवदगीता में भी बताया गया है शरीर गर्दन व सिर को सम में रखते हुए नासिका पर त्राटक करे, इससे गंध (पूरी पृथ्वी) पर नियंत्रण होता है
  • यदि 5 मिनट भी यदि नासिकाग्र पर त्राटक करने पर Mind में कोई खिंचाव उत्पन्न न हो तथा coolness बना रहे तो समझे कि वह सिद्ध हो गया
  • यदि बद्ध पदमासन में यही क्रिया करे तो और भी अच्छा है
  • यह सिद्ध होने के पश्चात रात्री में अलौकिक गंध आने लगती है, बह्मकमल जैसा गंध आने लगेगा परन्तु ऐसा फूल पृथ्वी में कही पर भी किसी भी फूल में नहीं है
  • मस्तिष्क के Neuron से वे अलग अलग गंधो का अनुभव देने लगते है
  • इन सबकी जानकारी दी है कि यह सब अनुभव हमें साधना से ही मिलेंगे, केवल पढने से नहीं

शून्य में ध्यान कैसे करे, यदि हम शून्य में ध्यान करते है तो उसका Background भी दिखने लगता है

  • उपर छत पर जाकर पीठ के बल सो जाए तथा आकाश में देखे तो अपना शरीर भी नही दिखाई देगा
  • आकाश ही मेरा शरीर है और मै इसकी आत्मा हूँ, उसमें त्राटक का अभ्यास करे, अब संसार हमें नही दिख रहा केवल आकाश दिख रहा है -> यही आकाश तत्व की साधना है
  • मेरा शरीर आकाश तत्व से बना है, मै चिदाकाश हूं, मै आकाश की आत्मा हूँ, आत्मा भी एक आकाश है तथा इस आकाश के भीतर में मन भी एक आकाश है, बुद्धि भी एक आकाश है, प्राण भी एक आकाश है, आत्मा भी एक आकाश है व उसके भीतर में परमात्मा भी एक आकाश है, इसका ध्यान इसी अवस्था में होगा अन्यथा बाए दाए तो वस्तु या शरीर दिखता ही रहेगा तो इस तरीके से लाभ लेना चाहिए
  • साधना को पकाने के लिए प्रैक्टिकल पक्ष पर अधिक ध्यान देना होगा

अमृतनादोपनिषद् में योगाभ्यास की यह क्रिया कल्पवृक्ष की भांति कुछ ही काल में फल प्रदान करने वाली है, इसका अभ्यास पहले से सुनिश्चित योजना अनुसार ही करने योग्य है अर्थात बीच में उसे घटाना बढ़ाना या रुकना नही चाहिए, द्वादश मात्राओं की आवृति भी समान समय में ही पूर्ण करनी चाहिए, यहा द्वादश मात्राएं क्या है

  • यदि हम कोई भी साधना (पचंकोश जागरण / कुण्डलिनी जागरण / तीन शरीरो की साधना कर रहे है तो जो भी अपना Package बनाए तो उसे रोज रोज न बदला जाए तो उसका Result नहीं आएगा-> एक महीने तक एक ही Routine Continue करना चाहिए, तभी उसका प्रभाव पडता है व Result आने लगता है
  • इसलिए अपना सुबह जगने का, पढ़ने का एक Routine बनाना चाहिए, जिसमें योग करने का, स्कूल / कालेज / आफिस जाने का समय Fix करे, सोने का, मनोरंजन का एक समय Fix करे व इसे प्रतिदिन बदले नहीं, अपने मन से बनाए है तो कुछ दिन लगातार उसे Follow करे
  • यह मन का स्वभाव है, अपने ढर्रे को Follow करने में आनाकानी करता है परन्तु एक सप्ताह तक भी उसे continue किया जाए तो फिर हा में हा मिलने लगता है
  • गुरुदेव ने कहा है कि किसी भी साधना पद्धति को कुछ दिन तक लगातार करने पर वह तुरन्त फल देने लगता है साधना रूपी वह वृक्ष तुरन्त फल देने लगता है, यह विशुद्ध विज्ञान है तथा ना का कोई प्रश्न ही नही है
  • द्वादश मात्रा = जैसे प्राणायाम में तीन बार गायंत्री बोलते समय खींचा जाए, फिर तीन बार रोका जाए तथा तीन बार छोडा जाए व तीन बार में ही रोका जाए -> यही द्वादश मात्रा है
  • या तीन तीन Second में यदि एक बार इसी आवृति में बोला जाए तो Brain, Alpha तरंगें निकालकर समाधि में चला जाता है, तब पूरे पृथ्वी के Schumen Rays के साथ तालबद्ध होकर जुड जाएगा, सभी Researches इसी Alpha State में होते हैं, सबसे अधिक लाभ इसी Speed में मिलता है
  • यदि इसे 15 मिनट लगातार किया जाए तो शरीर के प्रत्येक परमाणु 34 अरब कंपन पैदा कर देते हैं, तब व्यक्ति का मन समष्टि चेतना से जुड़ जाता है
  • यह Practical करके हमें Feel करना चाहिए कि शरीर में क्या हो रहा है, यह सम्पूर्ण विज्ञान है
  • यदि हम रेचक – कुंभक – पूरक – कुंभक की स्थिति में मानसिक जप भी करते है तो उसे अनुभव करते हुए जाए तथा अच्छा लगने तक प्रत्येक क्रिया करे अन्यथा परिणाम नही मिलता है
  • इन्ही प्रक्रियाओ को द्वादश मात्रा कहा गया है तथा एक मात्रा एक सैंकड के बराबर है

पृथ्वी के schuman Rays से जुड़ने का पता कैसे चलता है तथा इस अवस्था में मंत्र जप चलेगा या हम अपने Research में प्रशन का उत्तर वहा खोजते हैं

  • यदि हम कुछ काम कर रहे है तथा मन ही मन मानसिक जप भी कर रहे है
  • तब एक मन जप करता रहेगा तथा एक मन उठते चलते फिरते काम भी करता रहेगा तब मन के विभिन्न Layer अपना अपना काम करते रहते है तब उस अवस्था में मन प्रकृति के रजोगुणी व तमोगुणी स्वभाव को दबा देता है व सत Dominant रहता है, उसमें विक्षेपण नहीं आता तथा Research work जल्दी perform होते है
  • Research work में सोहम भाव में रहकर सास तो चलता ही रहेगा (अजपा गायंत्री के रूप में) तथा Reasearch का काम भी चलता रहता है
  • प्रत्येक जीव भी सोहम भाव में अजपा गायंत्री मंत्र जप रहा है, गायंत्री मंत्र शरीर की रक्षा करता है, अजपा गायंत्री के रूप में शरीर में प्राण आ रहा है व जा रहा है तभी सभी जीवित है, हम भी अपने मन ही मन सांसो के साथ सोहम भाव में ईश्वर में घोले तब वह अभ्यास में आ जाता है

पुरुसुक्त में आता है कि वे सारे बह्माण्ड को आवृत करके भी दंस अंगुल शेष रहते हैं, का क्या अर्थ है

  • दशांगुलम का अर्थ गुरुदेव ने कई ढंग से बताया कि सारे बह्माण्ड को चारो ओर से आवृत करके भी वह अंगुष्ठ मात्र रूप में वह अंत:करण में भी है
  • आत्मा का ध्यान छोटे सूर्य के रूप में अतःकरण में किया जाए
  • उसके (ईश्वर के) एक Phase में सारा बह्माण्ड चल रहा है तथा तीन हिस्सा तो इस बह्माण्ड को छूता भी नहीं, यह जड़ चेतन जगत से भी उपर है तथा अमृत रूपी है व उसमें कोई हलचल नहीं होती, वह अनन्त है
  • दशांगुलम का एक अर्थ होता है कि पूर्णाक 9 तक होता है तथा वह उससे भी अधिक है
  • सारे बह्माण्ड में से अनन्त भी निकाल दे तब भी वह पूर्ण ही रहता है, यह Infinite है तो यहा दशांगुलम अनन्तता के लिए आया गया है
  • यह दस दिशा व दस प्राण से भी परे है
  • पृथ्वी के उपर दिशाओ का भी अंत हो जाता है, सभी दिशाएं केवल सापेक्षता के सिद्धान्त पर ही होती है क्योंकि जब यह पृथ्वी या दिशाएं नही थी तब भी वह बह्म था

हवि का अनेक रूपो में यहा क्या अर्थ है

  • हवि = Mental चिंतन
  • यहा इस स्थूल यज्ञ को हवि नही कहा गया है
  • ऋषि ईश्वर को समझने लिए Meditation में तरह तरह की अपनी परिकल्पनाओ की आहुति डाल रहा है तथा यह सोच रहा है कि ईश्वर को हम देखे तो इसी प्रकार वह ऋषि पूरे साल भर इसी प्रकार की कल्पनाओं में ईश्वर को देखता है
  • बसन्त ऋतु में प्रसन्नता Enjoy मिलता है तो इसे घी कहा गया
  • ईंधन = आग = ग्रीष्म ऋतु
  • शारद हवि = Cold Energy है, इसका भी आहुति डाला जा सकता है
  • इसी सुत्र के आधार पर हमने अपने Sinus को हटाया था तो जब जब पता लगा कि शरद हवि है तो उस Cold Energy को फैकने की बजाया इस Energy को खाया जा सकता है फिर इसे शरीर में ही Recycle कर डाला तथा इसी कफ को सुर्यभेदन प्राणायाम से उर्जा के रूप में खा लिया
  • गुरुदेव प्राणायाम में लिखते हैं कि शीत ऋतु को सूर्यभेदन प्राणायाम से खाया जा सकता है, तब पता लगा कि कोल्ड एनर्जी बहुत बड़ी एनर्जी है तथा अगले दिनों वैज्ञानिक इस पर बहुत अधिक काम करेंगे तथा इससे उम्र को फिर से 1000 वर्षो तक बढ़ाया जा सकता है
  • ऋषियों ने इन्हीं सूत्रों के आधार पर बहुत गहन शोध किया है

साधना के कम्र में आगे बढने पर वह रुकी हुई लगती है, आगे बढने का क्या उपाय है

  • अवस्था परिवर्तन में ऐसी स्थिति आती ही है
  • जैसे पानी को ठंडा करते करते वह coldness वाली स्थिति खो जाती है तथा 0 degree पर पानी भी रहता है व बर्फ भी रहती है परन्तु अवस्था नही बदलती तो वह उर्जा कहा जा रही है
  • तभी उस समय एक कक्षा में आने पर Blank सा लगने लगता है, उस अवस्था से आगे बिल्कुल उल्टी अवस्था आने वाली है, वही गुरु की आवश्यकता पडती है
  • मनोमय का कोई भी नियम विज्ञानमय में काम नहीं करता है, इसलिए अगले कोश में प्रवेश के लिए एक समय के बाद साधना पद्धति / क्रिया योग भी बदलने पडते है, एक ही तरह की क्रिया से अन्त तक नही पहुच सकते
  • जैसे Brush से दातों की सफाई हो सकती है परन्तु ब्रश से ही सभी अंगो जैसे आँख, नाक, कान . . . की सफाई नहीं की जा सकती
  • जैसे अन्त में ॐ को भी छोड़ना पडता है तथा केवल आत्मा की यात्रा ही आगे आनन्दमय कोश में चलती है, वहा अशब्दम / मौन हो जाना पड़ता है

सुर्यभेदन प्राणायाम में प्रचलित तरीके में दाई नासिका से श्वास लेते है, रोकते है तथा बाई नासिका ईंडा से श्वास बाहर छोड़ते है, परन्तु सावित्री कुण्डलिनी एवं तंत्र वांगमय में आया है कि ईडा धारा द्वारा मूलाधार तक पहुंचाना व वहा प्रसुप्त चिंगारी को जोड़ना तथा अन्य एक पक्ष में आया है कि प्राण को पिंगला मार्ग से वापस लाया जाता है, यह विपरित प्रतीत हो रहा है

  • कही कही पर अनुलोम विलोम को भी सुर्य भेदन कहा गया है तब वहा चंद्रमा का ध्यान किया जाता है, जब ईडा से खीच रहे हो
  • जितनी भी औषधिया है, सब चंद्रमा की किरणों से बनता है तथा जो बाहर है वही भीतर भी है
  • तब उस स्थिति में हम सविता से ही cold Energy लेकर अपने भीतर Parasympathetic System के अन्दर चेतना भर सकते है, आरोग्यता भर सकते है, Medicinal Property हमें हर Body System में भरना है, जिसका High BP है, वे इस माध्यम से करेंगे
  • जो Cold Blooded है, वे सुर्य भेदन के माध्यम से करेंगे, इसमें दोनो प्रक्रियाए आती है
  • मुंगेर योगा विश्वविद्यालय के अनुसार पिंगला से पिंगला सूर्यभेदन प्राणायाम है
  • हम देखे कि योगकुण्डलिनीपनिषद् में जो सुर्यभेदन दिया है वह भी अधिक प्रामाणिक लगता है तो हम अपनी शरीर की स्थिति के अनुसार लाभ ले, मुख्य उद्देश्य कुण्डलिनी जागरण ही होता है   🙏

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