पंचकोश जिज्ञासा समाधान (26-09-2024)
आज की कक्षा (26-09-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
शाण्डिल्योपनिषद् में आया है कि मस्तक में संयम करने से बह्मलोक का ज्ञान होता है, पैर के नीचे में संयम करने से अतल लोक का ज्ञान होता है, पैर मैं संयम करने से वितल लोक का ज्ञान होता है, पैर के जोड टखने में चित्त का संयम करने से नितल लोक का ज्ञान होता है,
पैर की जंघा में संयम करने से सुतल लोक का ज्ञान होता है, जानु (घुटने) में संयम करने से महातल लोक का ज्ञान होता है, ऊरू (जाँघ) में संयम करने से रसातल लोक का ज्ञान होता है, कमर मे संयम करने से तलातल लोक का ज्ञान होता है, नाभी में चित्त का संयम करने से भू लोक का, पेट में संयम करने से भुवः लोक का, हृदय में चित्त का संयम करने से स्वः लोक का व हृदय के उधर्व भाग में संयम करने से महः लोक का ज्ञान प्राप्त होता है, कण्ठ में संयम करते से जनः लोक का ज्ञान प्राप्त होता है, भौहों के मध्य में संयम करने से तपः लोक का ज्ञान प्राप्त होता है, मस्तक में चित्त का संयम करने से सत्यलोक का ज्ञान प्राप्त होता है, धर्म तथा अधर्म में संयम करने से भूत भविष्य का ज्ञान होता है, अधर्म में संयम करने से भूत भविष्य का ज्ञान कैसे होता है
- यह सब आज्ञा चक्र के उपर की स्थिति को बता रहे है
- धर्म = पुरुष
- अधर्म = प्रकृति = परिवर्तन शील जगत को अधम कहते है
- इसमें जानकारी लेने से भूत भविष्य का ज्ञान होता है क्योंकि प्रकृति के सभी परमाणु अवस्था बदलते है जब अवस्था परिवर्तन होगा तभी भूत भविष्य व वर्तमान होगा तभी भूत भविष्य व वर्तमान का ज्ञान होता है
- जहां कोई अवस्था परिवर्तन ही न हो रहा हो तो वहां पर भूत भविष्य व वर्तमान की क्या आवश्यकता है जैसे आकाश में भूत भविष्य व वर्तमान क्या हो सकता है
- काल समय होता है तथा समय का निर्धारण प्रकृति करती है, Absolute Truth में ध्यान करने से जानकारी मिल जाती है
- पिपलाद ऋषि भी त्रिकालदर्शी थे
- वहा अपनी चेतना को ले जाना जहां तीनो एक बिंदु पर मिलते है, तरगों की गति के स्वरूप के आधार पर यह जाना जा सकता है कि अभी ऐसा है तो पहले कैसा होगा तथा आगे क्या गति होगी
- अधर्म = प्रकृति = जड जगत
- अभी की गति के आधार पर यह पता लगा सकते है आगे Train कहा पर होगी
कैवल्योपनिषद् में आया है कि जब जीवात्मा माया के अधीन अति मोहग्रस्त होकर शरीर को ही अपना स्वरूप स्वीकार करते हुए सभी तरह के कर्मो को करता रहता है, वही जागृत अवस्था में स्त्री, अन्न-पान आदि विभिन्न प्रकार के भोगों का उपभोग करता हुआ तृप्ति लाभ प्राप्त करता है, स्वप्न अवस्था में वही जीव अपनी माया के द्वारा कल्पित जीव लोक में सभी तरह के सुख और दुख का उपभोग करने वाला बनता है तथा सुषुप्ति काल में माया द्वारा रचित समस्त प्रपंचों के विलीन होने के उपरांत वह जीव तमोगुण से अभीपूरित हुआ सुख के स्वरूप को प्राप्त करता है, का क्या अर्थ है
- अपने को देखे कि जागृत अवस्था में शरीर के कौन कौन से अंग काम करते है, Frontal Lobe में ये सारे कार्य होते है
- सारी कर्मेंद्रियां व ज्ञानेंद्रियां स्थूल जगत से अपना कार्य करती है व संसार का उपभोग हम करते हैं
- स्वपनावस्था में देखे कि शरीर की इंद्रिया स्थिर है, आँखे भी बंद है तथा चुपचाप वह सो रहा है फिर भी सूक्ष्म शरीर इधर उधर दौडता है, इसका अर्थ यह है कि अवचेतन मन में दबे पडे हुए संस्कार / दृश्य / घटनाकर्म / तृष्णाओं के आधार पर विचार / सुत्र उभर आते है तथा नाडियों में इनका गति रहता है
- जब गहरी सुषुप्ति अवस्था आ जाए तो यह ज्ञान नही रहता कि मै पुरुष हूँ या स्त्री हूँ पक्षी हूँ
- तम यहा जडत्व / Inertia को कहा जाता है
- पत्थर / पर्वत भी ध्यान लगाते है यह छान्दग्योपनिषद् में है, पर्वत ने इतना गहरा ध्यान किया कि वह र्निबीज समाधि में पहुंच गया, तब उसे यह पता नही चलता है कि कौन यह सब महमूस कर रहा है, वह भी ईश्वर में विलीन होते हुए सुख लेता रहता है
- गहरी नींद में भी यदि हम भी stress रहित होकर नींद ले तो शरीर मे किसी प्रकार का Stress नहीं रहता, इसलिए गहरी नींद कम समय में ही पूरी हो जाती है
- माया द्वारा रचित सृष्टि की में वह उसे अपनी मूल प्रकृति से पोषण देता है
- वह पोषण की शक्ति इस शरीर में से चुबंकीय धाराओं के बीच में से गुजरने लगती है
- तुरीयावस्था में शरीर सो रहा है तथा चेतना जग रही होती है तथा परबह्म के साथ विहार कर रही होती है, उसे परमसुख भी कहा जाता है
गायंत्रीपनिषद् में आया है कि वायु से अग्नि की उत्पत्ति होती है तथा अग्नि से जल तथा जल से पृथ्वी का प्रार्दुभाव हुआ, पृथ्वी आकार होती है, आकार से उकार तथा उकार से मकार उत्पन्न होता है, का क्या अर्थ है
- वायु में गति होती है तथा जहा गति होती है तो वहा घर्षण होंने पर अग्नि उत्पन्न होती है, यह विज्ञान सर्वविदित है
- वायु के परमाणुओं को Leptons कहा जाता है, उसके दौडने से ईथर के परमाणुओ में घर्षण पैदा होता है, घर्षण से अग्नि पैदा हुई तथा अग्नि ठंडी होकर जल बन जाता है
- जैसे भाप को ठंडा करे तो पानी तथा पानी को ठंडा कर देंगे तो बर्फ बन कर ठोस हो जाता है
- ठोस को पृथ्वी कहेंगे इसी प्रकार जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई, यही सामान्य विज्ञान है
- इस प्रकार जब हम विज्ञान से समझेंगे तो संसार के रहस्य को समझना सरल हो जाएगा
जब हम साधना करते है तो ऋषि मुनियो के तप का भी योगदान होता है तो वह हमारी साधना में कैसे मदद करता है
- गायंत्री मंत्र का जप इस बह्माण्ड में सबसे अधिक से अधिक किया गया है
- जप में मस्तिष्क से विचार तरंगे निकलेगी, यही एक विद्युत चुम्बकीय तरंग है, इनमें एक चुम्बकत्व होता है, वह चुम्बक अपने से सहधर्मी विचारो को बटोरेगा / इक्कठा करेगा
- पहले से यह विचार गायंत्री मंत्र के रूप में इतने अधिक फैके गए है कि थोडे से ही जप से ऋषियो के विचार लबादा बन कर हमारे पास लौट आते है
- जैसे क्रोध में जब व्यक्ति अपशब्द बोलता है तो अपशब्दों का भी एक लंबा सा अलग अलग अपशब्द निकालने लगते है
- इसी प्रकार मंच से बोले गए किसी विशेष विषय पर किए गए प्रवचन , उसी के जैसे अन्य विचारों को भी इक्कठा करके नए नए विचार देने लगता है तब पता नहीं लगता कि इस प्रकार के नए नए विचार कहा सै आने लगते है
- विचारो में सहधर्मिता होती है, इनके चुम्बकत्व से उसके जैसे विचार खीचे चले आते है
- मिलते विचारों से ही दोस्ती होती है तथा यदि विचार नही मिलते हो तो साथ बैठने मात्र से ही घुटन होने लगती है
- विचारों से दोस्ती होती है तथा उसी को स्वभाव कहा जाता है
- सृष्टि का प्रत्येक कण एक चुंबक है तथा वह चुंबक के आधार पर ही जुड़ता है
ईशावास्योपनिषद् में आया है कि पृथ्वी तत्व की धारणा के समय, समय में ओंकार रूप प्रणव की 5 मात्राओं का वरूण अर्थात जल तत्व की धारणा के समय चार मात्राओं का, अग्नि तत्व की धारणा के समय तीन मात्राओं का, वायु तत्व की धारणा के समय दो मात्राओं के स्वरूप का ध्यान किया जाता है तथा आकाश तत्व की धारणा के समय एक मात्रा के स्वरूप का ध्यान किया जाता है, का क्या अर्थ है
- जैसे कोई दवा जब हम खरीदते है तो उसमें Ingradient लिखा रहता है इसका अर्थ यह है कि उस दवा को बनाने में कितनी कितनी घटक / मात्रा का उपयोग हुआ है
- इसी प्रकार पृथ्वी में 50% पृथ्वी तत्व है तथा बाकी 50% में चारों तत्व समान रूप से है
- पृथ्वी तत्व का ध्यान करे तो पांचो तत्वो का ध्यान करे, इसी को कहते हैं कि ॐकार की पांच मात्राओं का ध्यान करे
- जल तत्व में पृथ्वी अपना अस्तित्व समाप्त कर विलीन हो जाती है तथा अब केवल 4 तत्व शेष बचे इसलिए ऊँकार की 4 मात्रा का ध्यान करे
- हम सब व सृष्टि में भी सब ॐ कार से बने है, ऊँकार एक Sound Energy है
- सभी तत्वो के गुणो का ध्यान करें जैसे आकाश का विशालता, वायु से गतिशीलता / प्रगतिशीलता धारण करे, अग्नि हमें तेजस्विता प्रदान करे, Mind में Brilliancy हो, जल हमें शीतलता प्रदान करे तथा उसका दिमाग ठंडा रहे, पृथ्वी हमें सहनशीलता / विनयशीलता / क्षमाशीलता / सहिष्णुता प्रदान करें
- इन्ही गुणो को धारण करने को ॐ कार का जप कहेंगे अन्यथा खाली ॐ जपने से कुछ नही मिलने वाला
मंत्राधीनम् देवता का व्यवहारिक जीवन में क्या आशय है कृपया प्रकाश डाला जाय
- सारा संसार देवताओ के अधीन चलता है
- सभी देवता शक्ति धाराए है, इन्ही शक्तियों से सारी सृष्टि चल रही है
- ये सभी देवता शक्ति (धाराएं), मंत्रो (विचारों) के अधीन है
- किसी को कुछ अच्छे शब्द बोले जाए तो उससे हमें आर्शीवाद मिलता है
- तानसेन ने संगीत से मृगो को बुला लिया तथा एक को माला पहना दिए
- बैजू ने तोडी मृग रंजनी राग बजाया तो केवल वही मृग आया जिसने माला पहनी थी, मंत्रो के अधीन सब कुछ है तथा मंत्र तपस्वी के अधीन है, यदि हम तपस्वी तथा चरित्र चिंतन के धनी बनेंगे तो हमारा प्रत्येक शब्द मंत्र हो जाएगा
- फिर किसी को आर्शीवाद दे देंगे तो वह भी फलेगा फूलेगा
- किसी को श्राप देते है तो वह भी घटित होगा
- साधको को श्राप से बचना चाहिए यानि किसी को अपशब्द ना कहे, केवल कल्याणकारी शब्द बोले तब दोनो का कल्याण होगा 🙏
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