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Pragyopnishad – Part 4

Pragyopnishad – Part 4

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 27 Mar 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: प्रज्ञोपनिषद् – चतुर्थ मण्डल

Broadcasting: आ॰ अमन जी

आ॰ किरण चावला जी (USA)

वर्तमान युग की गीता ‘प्रज्ञोपनिषद्‘ जिसमें आज के हर एक अर्जुन की जिज्ञासाओं के समाधान विद्यमान हैं‌।

1. देवसंस्कृति जिज्ञासा प्रकरण – मनुष्य जन्मतः पशु प्रवृत्ति का होता है @ नरपशु। चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण करते हुए जो व्यवहार (संस्कार) संचित किया जाता है वो मानवोचित गरिमा के अनुरूप नहीं होता है, अतः उन्हें छोड़ना होता है। मानवीय गरिमा के अनुरूप ‘व्यक्तित्व’ (गुण, कर्म व स्वभाव) को धारण करने हेतु अभ्यास करने होते हैं। इसी छोड़ने व ग्रहण करने की उभयपक्षीय प्रक्रिया @ पशु स्तर त्याग कर मानवीय गरिमा में प्रवेश करना ही प्रकरान्तर से  ‘देवसंस्कृति’ कही जाती है।
‘शिक्षा’ ही नहीं ‘विद्या’ भी। ‘शिक्षा’ मनुष्य के बहिरंग जीवन को सुविकसित करती है और ‘विद्या’ अंतरंग को। अध्यात्म = अंतरंग परिष्कृत + बहिरंग सुव्यवस्थित।
प्रथम गुरु की भूमिका में माता-पिता होते हैं फिर गुरू जनों की भूमिका होती है।
देने वाले (परमार्थी) तत्त्व ‘देव’ और लेने वाले (स्वार्थी) तत्त्व ‘दैत्य’ कहे जाते हैं।
आत्मसत्ता का पदार्थ सत्ता पर नियंत्रण हो। आत्मनिर्माणी ही विश्वनिर्माणी होते हैं। ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु य पश्यति स पण्डितः’ एवं ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ जैसे आदर्शों संग भारतीय संस्कृति विश्ववारा बनीं।

2. वर्णाश्रम धर्म प्रकरण – भारतीय संस्कृति का मेरुदण्ड (spinal cord) वर्णाश्रम धर्म है।
4 वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, व शुद्र। चार वर्णों से तात्पर्य है क्रियाकलापों में उच्चस्तरीय प्रयोजनों के लिए निर्धारण। यह समग्र विभाजन ‘गुण, कर्म व स्वभाव’ के अनुरूप हुआ:-
१. लोक शिक्षण में संलग्न समुदाय को – ‘ब्राह्मण’,
२. कुकर्मों के कुप्रचलनों के विरुद्ध जूझने वालों को – ‘क्षत्रिय’,
३. उपार्जन का दायित्व संभालने एवं समाज को भौतिक दृष्टि से सुसंपन्न बनाने वालों को – ‘वैश्य’ एवं
४. श्रमिक समुदाय को – ‘शुद्र’
कहा गया है। इन चारों का ही समान महत्व और समान गौरव-सम्मान है।
4 आश्रम – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व संन्यास।  चार आश्रमों से तात्पर्य है – आयुष्य का भौतिक एवं आत्मिक उद्देश्यों के लिए सुनियोजन। जब 100 वर्ष की आयु थी तब 25 वर्ष – ‘ब्रह्मचर्य’ व 25 वर्ष – ‘गृहस्थ’ जीवन में लगते थे, यह पूर्वार्ध निजी जीवन था। उत्तरार्द्ध के 25 वर्ष ‘वानप्रस्थ’ – परिव्राजक बनकर और 25 वर्ष स्थान विशेष पर आश्रम संचालन में लगते थे, यह ‘संन्यास’ था।
आश्रम व्यवस्था सर्वसुलभ थी – वर्ण, वेश व वंश के आधार पर कोई भेदभाव नहीं था।
वस्तुतः मानव जीवन में हर एक व्यक्ति के दैनंदिन जीवन में वर्णाश्रम धर्म @ धारणे इति धर्मः सन्निहित है।

3. संस्कार पर्व महातम्य प्रकरण – मनुष्य ‘पशु’ भी है ‘पिशाच’ भी, मान्य ‘मानव’ भी व ‘देवता’ भी। मानव की गुण, कर्म व स्वभाव अर्थात् चिंतन, चरित्र व व्यवहार @ चेतनात्मक उन्नयन के आधार पर निम्नांकित 4 वर्गों में बांटा गया है:-
१. नर-पशु
२. नर-पिशाच
३. नर-मानव
४. देव-मानव
संस्कार – मानव जीवन को ‘पवित्र’ एवं ‘उत्कृष्ट’ बनाने वाले आध्यात्मिक उपचार का नाम ‘संस्कार’ है। पुंसवन, नामकरण, अन्नप्राशन, मुण्डन, विद्यारंभ, दीक्षा, उपनयन, विवाह, वानप्रस्थ, जन्मदिवस व विवाह दिवस आदि संस्कारों से व्यक्तित्व में सुसंस्कारिता का समावेश होता है।

4. तीर्थ देवालय प्रकरण – ‘धर्म संस्थानों’ का उद्देश्य श्रद्धा एवं सदाचार संवर्धन में निहित हैं। मूर्तियां दृश्यमान (खूली) पाठ्य पुस्तकें हैं जिसके अर्थों को तत्त्वतः जानने, समझने व आचरण में लाने से बात बनती हैं।
धर्म संस्थान के 2 रूप हैं – 1. स्थानीय – ‘देवालय’ एवं 2. सुविस्तृत – ‘तीर्थ’। ‘ईशावास्यं इदं सर्वं’ – सर्वव्यापी हैं। साकार व्यवस्था (देवालयों व तीर्थों) का उद्देश्य जनजागरण व प्रेरणा प्रसार है।

5. मरणोत्तर जीवन प्रकरण – ‘आत्मा’ अजर अमर अविनाशी है। अमरता का आभास – विश्वास इसलिए कराया जाता है की ‘शरीर’ की मृत्यु को अंत मानकर पनपने वाली ‘निराशा’ व ‘नास्तिकता’ किसी के सर ना चढ़े।
हर एक व्यक्ति “हर दिन नया जन्म व हर रात नई मौत” के रूप में अपने जीवनोद्देश्य के प्रति सोचने हेतु ‘संयम’ की साधना कराई जाती हैं।
पितरों को श्रद्धा दें – हमें शांति (सुख समृद्धि) मिलेगी।

आ॰ प्रज्ञा शाण्डिल्य जी

6. आस्था संकट प्रकरण – देवसंस्कृति, वर्णाश्रम धर्म, संस्कारों, धर्म संस्थान, मरणोत्तर जीवन की अवधारणा के बाद भी मानव अपने गरिमा के अनुरूप आचरण क्यों नहीं करता … भेद-भाव क्यों …. ‘विग्रह क्यों’!?
हम ‘परंपराओं’ की जगह ‘विवेक’ को महत्व देंगे। समयानुसार युगकालीन व्यवस्था को महत्व देना होता है अर्थात् ‘लकीर का फकीर’ बनने से बात नहीं बनती। यूं समझिए की ‘अनंत’ की यात्रा में ‘रूक जाना’ आत्म-प्रगति को अवरूद्ध करने जैसा है।
संकीर्ण स्वार्थपरता की वजह से ‘दुराग्रही’ प्रथाओं/ प्रचलनों को ‘दुराचार’ का माध्यम बना लेते हैं। अतः विवेक का जागरण आवश्यक है। अतः प्रथाओं में युगकालीन सुधार (upgradation/ updation) की आवश्यकता होती है।
‘आस्था’/ श्रद्धा संकट उत्पन्न होने का कारण ‘भेड़ चाल’ है। ‘श्रद्धा’ विवेक युक्त ना हो तो दुराग्रही द्वारा जन-मानस के शोषण का कारण बन जाती हैं। श्रद्धावान लभते ज्ञांनं। श्रद्धया सत्यमाप्यते।

7. प्रज्ञावतार प्रकरण –  भगवान बुद्ध का उत्तरार्द्ध ‘प्रज्ञावतार’ हैं। आस्था संकट के निवारण हेतु विवेक @ प्रज्ञा का जागरण युग की अनिवार्यता है। ‘प्रज्ञावतार’ आस्था संकट निवारण हेतु है जिसका आधार-स्तंभ प्रेरणापुंज बन प्रेरणा प्रसारण है।

प्रश्नोत्तरी सेशन विद् श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

गुरूदेव‘ ने खर्चीली (आडंबर युक्त) शादियों को पाप, बेईमानी को बढ़ावा देने वाला ‘दुष्कृत्य’ बताया है। ‘दहेज’ को ‘दानव’ की संज्ञा दी है।
‘दान’ स्वेच्छा पूर्वक होता है जबकि ‘दहेज’ जबरन मांग बतौर एक कुप्रथा है।
मध्यकालीन युग में सामंती युग का दौर था जिसे ‘अंधकार युग’ का नाम से जाना जाता है जिसमें अनेक कुप्रथाओं ने जन्म लिया जिनके विष-दंशों को आज तक झेला जा रहा है।

नर व नारी एक समान। जाति वंश सब एक समान। पुत्र व पुत्री – संतान रूपी रत्न हैं जो सृष्टि संचालन के नायक-नायिका हैं।

मानव आयुष्य काल को 4 आश्रमों में बांटा जाना क्रमशः ‘जिम्मेदारी’ का विस्तृत होते जाना है।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand.

 

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