प्राणमय कोश की साधना – 2
प्राणायाम (Pranayam)
श्वास को खींचने उसे अंदर रोके रखने और बाहर निकालने की एक विशेष क्रियापद्धति है , इस विधान के अनुसार प्राण को उसी प्रकार अंदर भरा जाता है जैसे साईकिल के पम्प से ट्यूब में हवा भरी जाती है। यह पम्प इस प्रकार का बना होता है कि हवा को भरता है पर वापस नहीं खींचता । प्राणायाम की व्यवस्था भी इसी प्रकार की है । साधारण श्वास प्रश्वास प्रक्रिया में वायु के साथ वह प्राण भी इसी प्रकार आता जाता रहता है जैसे रास्ते पर मुसाफिर चलते फिरते रहते हैं। किन्तु प्राणायाम विधि के अनुसार जब श्वास प्रश्वास क्रिया होती है तो वायु में से प्राण खींचकर खासतौर से उसे शरीर में स्थापित किया जाता है जैसे कि धर्मशाला में यात्री को व्यवस्थापूर्वक टिकाया जाता है ।
भारतीय योगशास्त्रों में षट्चक्र में सूर्यचक्र को बहुत अधिक महत्त्व दिया गया है । अब पाश्चात्य विद्वानों ने भी सूर्य ग्रंथि को सूक्ष्म तंतुओं का केंद्र स्वीकार किया है और माना है कि मानव शरीर में प्रतिक्षण होती रहने वाली क्रिया प्रणाली का संचालन इसी के द्वारा होता है । कुछ विद्वानों ने इसे पेट का मस्तिष्क नाम दिया है । यह सूर्यअ चक्र या सोलर प्लेक्सस आमाशय जे ऊपर हृदय की धुक धुक के पीछे मेरुदंड के दोनों ओर स्थित है । यह एक प्रकार की सफ़ेद और भूरि गद्दी से बना हुआ है । पाश्चात्य वैज्ञानिक शरीर की आंतरिक क्रिया विधि पर इसका अधिकार मानते हैं और कहते हैं कि भीतरी अंगों की उन्नति अवनति का आधार यहि केंद्र है। किन्तु सच बात यह है कि खोज अभी अपूर्ण है। सूर्य चक्र का कार्य और महत्त्व उससे अनेक गुना अधिक है जितना वे लोग मानते हैं । ऐसा देखा गया है कि उस केंद्र पर यदि जरा कड़ी चोट लग जाये तो मनुष्य की तत्काल मृत्यु हो जाती है। योगशास्त्र इस केंद्र को प्राणकोश मानता है और कहता है कि वहीँ से निकलकर एक प्रकार का मानवी विद्युत् प्रवाह सम्पूर्ण नाड़ियो में प्रवाहित होता है । ओजस शक्ति इस संस्थान में रहती है।
प्राणायाम द्वारा सूर्य चक्र की एक प्रकार की हलकी हलकी मालीश होती है जिससे उसमे गर्मी तेजी और उत्तेजना का संचालन होता है और उसकी क्रियाशीलता बढ़ती है। प्राणायाम से फुफ्फुसों में वायु भरती है और वे फुलते हैं और यह फूलकर सूर्यचक्र की परिधि में स्पर्श करता है।
बार बार स्पर्श करने से जिस प्रकार काम सेवन वाले अंगो में उत्तेजना उत्पन्न होती है उसी प्रकार प्राणायाम द्वारा फुफ्फुस से सूर्य चक्र का स्पर्श होना वहां एक सनसनी उत्तेजना और हलचल पैदा करता है। यह उत्तेजना व्यर्थ नहीं जाती वरन सम्बंधित सारे अंग प्रत्यंगों को जीवन और बल प्रदान करती है, जिससे शारीरिक और मानसिक उन्नतियों का द्वार खुल जाता है ।
मेरुदंड के दाहिने, बाएं दोनों ओर नाड़ी गुच्छकों की दो श्रृंखलाएं चलती हैं । ये गुच्छक आपस में सम्बंधित हैं और इन्हीं में सर, गले, छाती, पेट आदि के गुच्छक भी आकर शामिल हो गए हैं । अन्य अनेक नाड़ी तंतुओं का भी वहां जमघट है । इनका प्रथम विभागजिसे मस्तिष्क मेरु विभाग कहते हैं शरीर ज्ञान तंतुओं से घनीभूत हो रहा है। इसी संस्थान से असंख्य बहुत ही बारीक भूरे तंतु निकालकर रुधिर नाड़ियों में फ़ैल गए हैं और अपने अंदर रहने वाली विद्युत् शक्ति से भीतरी शारीरिक अवयवों को संचालित किये रहते हैं ।
ऊपर बताया जा चूका है कि मेरुदंड के दायें बाएं नाड़ी गुच्छको की दो पृथक श्रृंखलाएँ चलती है , इन्हीं को योग में इडा और पिंगला कहा गया है। रुधिर संचार, श्वास क्रिया, पाचन आदि प्रमुख कार्यों को सुसंचालित रखने की जिम्मेदारी उपरोक्त नाड़ी गुच्छकों के ऊपर प्रधान रूप से है । प्राणायाम साधना में इन इडा पिंगला नाड़ियो को नियत विधि के अनुसार बलवान बनाया जाता है , जिससे उनसे सम्बंधित शरीर की सहानुभावी क्रिया के विकार दूर होकर आनंदमयी स्वस्थता प्राप्त हो सके ।
अत्यंत प्राचीन काल से अध्यात्मवेत्ता पुरुष प्राणायाम के महत्त्व और उनके लाभों को अनुभव करते रहे हैं । तदनुसार समस्त भू- मंडल में योगी अपनी विधि से इन क्रियाओ को करते रहे हैं । महापुरुष ईसामसीह अपने शिष्यों सहित एक पर्वत पर चढ़कर ईश्वर प्रार्थना किया करते थे । कहा जाता है कि इस ऊँची चढ़ाई में आध्यात्मिक श्वास- क्रियाओं का रहस्य छिपा हुआ था ।
बौद्ध धर्म में जजन नामक प्राणायाम बहुत काल से चलता आया है। प्रसिद्ध जापानी पुरोहित हकुइन जेशि ने प्राणायाम का खूब विस्तार किया था। यूनान में प्लेटो से भी बहुत पहले इस विज्ञानं की जानकारी का पता चलता है। अन्यान्य देशों में भी किसी न किसी रूप में इस विद्या के अस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं ।
योगदर्शन साधनापाद के सूत्र 52, 54 में बताया गया है कि प्राणायाम से अविद्या का अन्धकार दूर होकर ज्ञान की ज्योति प्रकट होती और मन एकाग्र होने लगता है। ऐसी गाथाएं भी सुनी जाती हैं कि प्राण को वश में करके योगी लोग मृत्यु को जीत लेते हैं और जब तक चाहें वे जीवित रह सकते हैं । प्राण शक्ति से अपने और दूसरे के रोगों को नष्ट करने का एक अलग विज्ञान , अनेक प्रकार के प्राणायामों से होने वाले लाभ सुने और देखे जाते हैं। यह लाभ कभी कभी इतने विचित्र होते हैं कि उन पर आश्चर्य करना पड़ता है।
इन पंक्तियों में उन अद्भुत और आश्चर्यजनक घटनाओं की चर्चा न करके इतना कहना पर्याप्त होगा कि प्राणायाम से शरीर की सूक्ष्म क्रिया पद्धति के ऊपर अदृश्य रूप से ऐसे विज्ञानं सम्मत प्रभाव पड़ते हैं , जिनके कारण रक्त संचार, नाड़ी सञ्चालन पाचन क्रिया, स्नायविक दृढ़ता, प्रगाढ़ निद्रा, स्फूर्ति एवं मानसिक विकास के चिह्न स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं एवं स्वस्थता, बलशीलता , प्रसनता, उत्साह तथा परिश्रम की योग्यता बढ़ती है।
आत्मोन्नति, चित्त की एकाग्रता, स्थिर दृढ़ता आदि मानसिक गुणों की मात्रा में प्राण साधना के साथ साथ ही वृद्धि हो जाती है । इन लाभों पर विचार किया जाये तो प्रतीत होता है कि प्राणायाम आत्मोन्नति की महत्वपूर्ण साधना है । प्राण तत्व का वायु से विशेष सम्बन्ध है । पाश्चात्य वैज्ञानिक तो प्राण को वायु का ही एक सूक्ष्म भेद मानते हैं । सांस को ठीक तरह से लेने न लेने पर प्राण की मात्रा का घटना बढ़ना निर्भर रहता है। इसलिए कम से कम सांस लेने के सही तरीके से प्रत्येक बाल वृद्ध को परिचित होना चाहिए।
हमें गहरी और पूरी सांस लेनी चाहिए, जिससे वायु फेफड़े के हर भाग में जाकर सम्पूर्ण वायु मंदिरों में रक्त की सफाई कर सके । अधूरी और उथली सांस लेने से कुछ थोड़े से वायु मंदिरो की सफाई हो पाती है ; क्योंकि उथली सांस का दबाब इतना नहीं होता कि वह हर एक कोष्ठ तक पहुँच सके । जब हवा वहां तक पहुंचेगी ही नहीं तो सफाई किस प्रकार होगी ? सांस का संपर्क होने पर रक्त की अशुद्धता कार्बोनिक एसिड गैस बाहर निकल जाती है और सांस का प्राण आक्सीजन में घुल जाता है ।
यह प्राण शक्ति उस शुद्ध रक्त के दूसरे दौरे के साथ शरीर के अंग प्रत्यंगों में पहुंचकर उन्हें ताजगी और स्फूर्ति प्रदान करती है। शुद्ध रुधिर में एक चौथाई भाग ऑक्सीजन का होता है । यदि इसमें न्यूनता हो जाये तो उसका प्रभाव पाचन क्रिया पर अनिवार्य रूप से पड़ता है। ऐसे व्यक्तियों की जठराग्नि मंद होने लगती है।
इन सब क्रियाओ पर विचार करने से यह स्पष्ट होता है कि हमें पूरी गहरी साँस लेने की आवश्यकता है। जिससे रक्त में पर्याप्त ऑक्सीजन मिलनजाये, अंग प्रत्यंग में ताजगी एवं स्फूर्ति पहुँचती रहे और पाचन शक्ति में निर्बलता न आने पाये। जठराग्नि मंद होने से अन्य अंगो में शिथिलता आने लगती है और वे अपने को अधूरा व् दोषपूर्ण बनाते हैं । यही क्रम यदि कुछ समय जारी रहे , तो जीवन यात्रा में नाना प्रकार की विघ्न बाधाएं उपस्थित हो सकती हैं और विविध भाँती के रोगों का सामना करना पड़ता है ।
अधूरी सांस लेने वाले के फेफड़े का बहुत सा भाग निकम्मा पड़ा रहता है। जिन मकानों की सफाई नहीं होती उनमे गन्दगी , मकड़ी, मच्छर , छिपकली, कीड़े मकोड़े आदि का जमघट होने लगता है। इसी तरह फेफड़े के जिन वायु कोष्ठों में सांस की वायु नहीं पहुँचती उनमे क्षय, खांसी, जुकाम, उरक्षत, कफ,दमा, आदिनके रोग किट जड़ जमा लेते हैं। धीरे धीरे वहां वे निर्बाध गति से पलटे रहते हैं और भीतर ही भीतर अपना इतना आधिपत्य जमा लेते हैं कि फिर उनका निकाल बाहर करना कठिन या असम्भव हो जाता है।
प्राणायाम विज्ञानं का सबसे पहला और आरंभिक पाठ यही है कि हमें पूरी तरह गहरी साँस लेनी चाहिए । ऐसी आदत डालने का प्रयत्न करना चाहिए कि सदैव इस प्रकार सांस ली जाए कि वायु से पुरे फेफड़े भर जाएँ। यह कार्य झटके से या उतावाली में नहीं होना चाहिए। धीरे धीरे इस प्रकार पूरी साँस खींचनी चाहिए कि छाती भरपूर चौड़ी हो जाये और फिर उसी क्रम में धीरे धीरे वायु को बाहर निकाल देना चाहिए ।
यही रीति फेफड़ो को स्वस्थ रखने वाली है, रक्त को शुद्ध करने वाली, शरीर के अंग प्रत्यंग में चैतन्यता देने वाली, पाचन शक्ति ठीक बनाये रखने वाली है, इसलिये आरोग्य और दीर्घ जीवन देने वाली भी है।
पूरी साँस लेने का अभ्यास डालने से छाती की चौड़ाई बढ़ती है, फेफड़ों की मजबूती और वजन में वृद्धि होती है, हृदय की कमजोरी में सुधार होकर रक्तसंचार की क्रिया में चैतन्यता दिखाई देने लगती है। पाठकों का श्वास विज्ञानं के इस तथ्य को गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए और अविलंब पूरी व् गहरी साँस लेने की आदत डालने का अभ्यास आरम्भ कर देना चाहिए । कुछ दिन श्वास क्रिया पर ध्यान रखने से भूल सुधरती रहने से यह आदत भली प्रकार पद जाती है।
प्राणायाम विज्ञान की दूसरी शिक्षा नाक से सांस लेना है । यद्यपि मुंह से भी साँस ली जा सकती है पर वह इतनी उपयोगी कदापि नहीं हो सकती जीतनी कि नाक से साँस लेने पर होती है। एक बार एक जंगी जहाज के यात्रियों में चेचक बड़े उग्र रूप से फैली। मृतको के बारे में डॉक्टरों की रिपोर्ट थी कि ये सभी मुँह से साँस लेते थे। उस जहाज में एक भी ऐसा आदमी नहीं मरा जिसे नाक से साँस लेने की आदत थी। जुकाम और सर्दी के रोगों के बारे में भी डाक्टरी जाँच का यही निष्कर्ष है कि मुह खोलकर साँस लेने से इसका प्रकोप विशेष रूप से होता है। और भी अनेक छोटे बड़े रोग इस आदत के कारन होते देखे गए हैं ।
नाक से फेफड़ो तक जो हवा पहुचने वाली नली है उसकी रचना इस प्रकार हुई है कि वह वायु को उचित रूप से संशोधन परिमार्जन करके भीतर पहुचाये। नासिका छिद्रो में छोटे छोटे बाल होते हैं । यह एक प्रकार की चलनी है जिसमे धूल व् गन्दगी के कण अटके रह जाते हैं और छनि हुई वायु भीतर जाती है । जब आप नासिका के छिद्रों में उंगली डालकर उसकी सफाई करते हैं तो उनमे से मेल निकलता है। यही मैल कचरा है जो वायु के छानने के बाद बचा रहता है।
नासिका में एक प्रकार का तरल पदार्थ स्रावित होता रहता है , बालो में अटकने के सिवाय जो कचरा बचा रहता है वह इस स्राव में चिपक जाता है। वायु का इतना संशोधन नासिका छिद्रो में हो जाने में उपरांत वह आगे चलती है। श्वास नली जो फेफड़ो तक मस्तिष्क में होती हुई गयी है काफी लंबी है। इतनी लम्बाई में यात्रा करती हुई वायु का तापमान सह्य हो जाता है । यदि ठंडी हुई तो गर्म हो जाती है । इस प्रकार फेफड़ो तक पहुँचते पहुचते वह सब प्रकार संशोधित हो जाती है। किन्तु यदि मुंह से साँस लें तो परिणाम बिल्कुल दूसरी प्रकार का हो जाता है।
मुंह में नासिक की तरह बाल नही होते जो वायु को छाने, दूसरे मुंह का छिद्र इतना बड़ा है कि उसमे वायु गर्द गुबार बिना रुकावट के चल सकता है । तीसरे मुंह से फेफड़ो की दुरी बहुत कम है, इसलिए वायु की सर्दी गर्मी में भी विशेष परिवर्तन नहीं होने पाता है। इस प्रकार बिना छनी गर्द गुबार युक्त सर्द गर्म हवा मुंह के द्वारा जब फेफड़ो में पहुचती है तो उन्हें हानि पंहुचती है और बीमारियो की उत्पत्ति करती है। देखा गया है जो लोग रात को मुंह से साँस लेते हैं सुबह उनका मुख सुखा, कड़वा और बदबूदार होता है। रोगियो को यह लत हो तो उनको स्वस्थ होने में अनावश्यक देरी हो जाती है।
प्राणायाम के अभ्यासियों को योगियों की यह कड़ी ताकीद होती है कि वे सदा नाक से सांस लिया करें। यदि नासिका भाग में कुछ रुकावट हो जिसके कारण मुंह से साँस लेने के लिए बाध्य होना पड़ता है तो नासिका रंध्रों की सफाई कर लेनी चाहिए।
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