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Mudgalopnishad (मुद्गलोपनिषद्) – 2

Mudgalopnishad (मुद्गलोपनिषद्) – 2

PANCHKOSH SADHNA नवरात्रि साधना सत्र – Online Global Class – 24 Oct 2020 (5:00 – 06:30 am IST) – Pragyakunj Sasaram – प्रशिक्षक Shri Lal Bihari Singh

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: मुद्गलोपनिषद् – 2

Broadcasting. आ॰ नितिन आहुजा जी

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

पुरूष सूक्त‘ सभी को जानना चाहिए। गुरुदेव ने अधिकारी (सुपात्र) व अनाधिकारी (कुपात्र) से तटस्थ होकर वर्तमान में यह गुढ़/ रहस्यात्मक ‘ब्रह्मज्ञान‘ सर्वसाधारण हेतु सर्वसुलभ किया। आपातकाल (emergency) ‘संस्कृति रही कराह’ के पुनरूत्थान में सभी को पार्टिसिपेट करना होता है।

मूर्ति‘ – पत्थर की खुली पाठ्य पुस्तक हैं। जनसामान्य के बीच शिक्षण/ प्रेरणा प्रसारण/ श्रद्धा – निष्ठा हेतु अनेक मुर्तियां (पाठ्य पुस्तकों) की रचना की। ‘मुर्ति’ की एक-एक संरचना तत्त्व ज्ञान रखती है जिसे ‘जानना, समझनाजीना‘ होता है।

अहंकारी ‘सहस्रबाहू’ के संहार हेतु संरक्षक ‘परषुराम’ के साथ भयानक लड़ाई हुई। ‘सासाराम‘ तीर्थ उसी स्थल पर स्थित है।

गुरूदेव कहते हैं कि ‘हृदय में कुछ अदृश्य कांटे (दोष-दुर्गुण/विकार) होते हैं जिन्हें निकालने के लिए गुरू की आवश्यकता होती है।
दोष दृष्टि‘ (परदोष दर्शन) हटाने के लिए सर्वप्रथम अपने दृष्टिकोण को सभी के हेतु प्रशंसनीय/ सकारात्मक बनाना होता है। छिद्रान्वेषक (दोषदर्शी) व्यक्ति को संसार में कुरूपता के सिवाय और कुछ दीखता ही नहीं।
परदोष-दर्शन की दुर्बलता त्यागकर ‘आत्म दोष दर्शन’ का साहस विकसित कीजिए।” @ ‘आत्मसुधार‘ ही संसार की सबसे बड़ी सेवा है – परम पुरुषार्थ है। पुरूष के अर्थ को जानने – समझने हेतु ‘पुरूष सूक्त’ का स्वाध्याय करें।

परमात्मा‘ – आनंदस्वरुप हैं। अतः हर परिस्थिति में शांत व आनंदित रह उनकी सर्वव्यापकता का बोधत्व किया जा सकता है।

तृतीय खण्ड. परमात्मा के अजन्मे स्वरूप का वर्णन है, जो विभिन्न रूपों में अपने अंश को प्रकट करता रहता है। उस विराट पुरुष की उपासना सभी साधकों ने ‘अग्निदेव‘ के रूप में की है। यजुर्वेदीय याज्ञिक उसे ‘यह यजु है‘ ऐसा मानते हैं और उसे सभी यज्ञीय कर्मों में नियोजित करते हैं। उसे – देवगण ‘अमृत‘ रूप, सामान्य जन ‘जीवन‘ रूप, असुर ‘माया‘ रूप, पितर ‘स्वधा‘ रूप, देवोपासक ‘देव‘ रूप, गन्धर्वगण ‘रूप-सौन्दर्य‘ रूप, अप्सराएँ ‘गन्धर्व‘ के रूप में जानते हैं। जो भी (साधक) भी जिस ‘भाव‘ से उपासना करता है, वह ‘परमतत्त्व’ उसके लिए उसी भाव (रूप) का हो जाता है।

जाको राखी भावना जैसी प्रभु मूरत तिन देखी तैसी‘।
ब्रह्मज्ञानी – ‘अहम् ब्रह्मास्मि‘ के भाव से उन्हीं के अनुरूप हो जाता है। जो भी ‘साधक’ इस रहस्य को इस भाँति समझता है, वह स्वयमेव उसी के अनुरूप हो जाता है॥

चतुर्थ खण्ड. वह ‘ब्रह्म‘ – त्रिताप शून्य, छ: कोषों से परे, षड् ऊर्मियों से रहित, पंच कोषों से रहित और षड्भाव विकारों से अतीत है, विलक्षण हैं।
3 ताप: ‘अध्यात्मिक’, ‘आधिभौतिक’ व ‘आधिदैविक’।
6 कोश: चर्म, मांस, अस्थि, स्नायु, रक्त व मज्जा।
6 विकार: काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद व मात्सर्य।
पंचकोश: अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय व आनन्दमय।
6 भाव विकार: प्रिय होना, प्रादुर्भूत होना, वर्द्धित होना, परिवर्तित होना, क्षय एवं विनाश होना।
6 उर्मियां: क्षुधा, पिपासा, शोक, मोह, वृद्धावस्था व मृत्यु।
6 भ्रम: कुल, गोत्र, जाति, वर्ण, आश्रम व रूप।
वह (तत्) परमात्मा उपरोक्त सभी के योग से जीव-शरीर में प्रवेश करता है साथ ही इन सभी भावों से ‘तटस्थ‘ (परे) भी है। ऐसी सामर्थ्य किसी अन्य में नहीं है।
जो व्यक्ति प्रतिदिन ‘उपनिषद स्वाध्याय‘ करते हैं – वह अग्नि की भांति पवित्र, वायु की भांति शुद्ध, आदित्य के समान प्रखर, सभी रोगों से रहित, श्री-सम्पन्न व पुत्र-पौत्रादि से समृद्ध एवं सभी विकारों से मुक्त हो जाता है
ऐसा ज्ञान प्राप्त करने वाला ‘गुरु व शिष्य, दोनों ही इसी जन्म में ‘पूर्ण पुरुष का पद’ प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।

गुरूदेव ने युगकालीन “वैज्ञानिक अध्यात्म दर्शन‘ का प्रतिपादन कर सर्वसाधारण हेतु सर्वसुलभ किया है।
पंचकोश – चेतनात्मक आवरण हैं इनका कोई एनाटॉमी (संरचना) नहीं है। प्राण, मन, भाव संवेदना, आनंद आदि की क्या एनाटॉमी हो सकती हैं!?
हां! वह अव्यक्तअभिव्यक्त हेतु पंचभूत रचित सृष्टि को माध्यम बनाता है।

पुरूषार्थ’ हेतु wait नहीं करते हैं। कबीर जी कहते हैं “काल करे सो आज कर, आज करे सो अब। पल में प्रलय होयगी, बहुरी करेगा कब!?”
ईशा मसीह कहते हैं की अगर आपके बायें हाथ में दान हेतु कुछ भी है तो उसे बायें हाथ से ही दान दें। क्योंकि और अच्छे के लिए दायें‌ हाथ में लेते लेते कहीं आपके विचार ना बदल जाय।

प्रश्नोत्तरी सेशन

नर व नारी एक समान‘ – आत्मिकी का सुत्र है। दृश्य जगत में शारीरिक संरचना में ‘भेद’ सृष्टि सृजन क्रम व्यवस्था को बनाए रखने हेतु है।
नारियां भी ‘ब्रह्मवादिनी’ रही हैं। आज सभी field में नारियां (females) – नरों‌ (males) के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रही हैं; बस अवसर मिले तो कमाल हो जाए। विज्ञानमयकोश के उज्जवल होने से नर – नारी का भेद मिट जाते हैं।

पिप्लाद ऋषि -पीपल के फल, पत्ते व दुर्वासा ऋषि – दूब का सेवन करते थे। चक्र – उपचक्र शक्तियों का केन्द्र है इनके जागरण (activation) से शक्ति मिलती हैं।

आत्म-भाव‘ में स्थित हो किये कर्म बन्धनकारी नहीं होते हैं अर्थात् वह पाप-पुण्य आदि से परे होते हैं।
हर एक कार्य में अपने ‘नीयत‘ (भाव) को जरूर देखें। क्योंकि नीयत के अनुसार ही कर्म फलित होते हैं @ जो दूसरों के लिए गड्ढा खोदते हैं उसमें वे स्वयं गिरते हैं।

समानता‘ के भाव विकसित हेतु – परमात्मा-अंश आत्मा को सर्वत्र देखें। समत्व के भाव हेतु ‘root’ (जड़) को देखें। शाखाएं अलग अलग होती हैं किंतु जड़ तो एक ही होता है। सब परमात्मा की ही संतान हैं तो सब परिवारजन ही है @ ‘वसुधैव कुटुंबकम्‘।
विज्ञानमय कोश के क्रियायोग (सोऽहम, आत्मानुभूति, स्वर संयम व ग्रंथि भेदन आदि) के अभ्यास से ‘समत्व’ का संधान किया जा सकता है।

वीतराग‘ – रागों के बीच रहकर वैराग्य को धारण करते हैं।

ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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