Pragyopnishad – Part 3
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 30 Jan 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: प्रज्ञोपनिषद् तृतीय मण्डल
Broadcasting: आ॰ अमन जी
आ॰ मीणा शर्मा जी (नई दिल्ली)
गुरूदेव द्वारा हमें प्रज्ञोपनिषद् के रूप में ऐसी युग-गीता दी गई जिसमें आज के सारे अर्जुनों के सारे जिज्ञासा/ चुनौतियों/ समस्याओं के समाधान निहित हैं। पुण्यदाई कुम्भ महापर्व पर हरिद्वार क्षेत्र में महर्षि धौम्य जी ने सद्गृहस्थों के मार्गदर्शन हेतु एक विशेष सात दिनों के सत्र का आयोजन किया।
प्रथम अध्याय – परिवार व्यवस्था प्रकरण
उपस्थित सद्गृहस्थों को सम्बोधित करते हुए महर्षि धौम्य जी ने गृहस्थ धर्म की अद्भुत गरिमा बताई:-
‘धर्म‘ ने गृहस्थाश्रम को तपोभूमि कहकर उसकी महत्ता स्वीकार की है। गृहस्थ यज्ञ करते हैं। गृहस्थ तपस्वी हैं। गृहस्थाश्रम चारों आश्रमों में शिरमौर है। गृहस्थ धर्म का पालन भी एक प्रकार का योगाभ्यास है; जिसमें ‘आत्मसंयम’ की साधना की जाती है। परमार्थ, सेवा, प्रेम, सहायता, त्याग, उदारता से निःस्वार्थ प्रेम सधता है। योग के विभिन्न प्रयोजनों का सार्वभौम उद्देश्य है आत्मभाव को विस्तृत करना।
आत्मवत्सर्वभूतेषु @ ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ में गृहस्थाश्रम की भूमिका – योग के विभिन्न प्रयोजनों का सार्वभौम उद्देश्य है आत्मभाव को विस्तृत करना। गृहस्थाश्रम में आत्मीयता/स्नेह/प्रेम/करूणा का क्रमशः विस्तार – अकेले से हम पति-पत्नी 2 में, फिर संतति के साथ 3 में, संबंधियों में – पड़ोसियों में, गांव – प्रान्त – प्रदेश – राष्ट्र और विश्व में क्रमशः बढ़ती जाती है। अन्ततः समस्त जड़ चेतन में आत्मभाव फैल जाता है और जीव पूर्णतया आत्मसंयमी बन जाता है। गृहस्थ-योग की सर्वसुलभ साधना जब अपनी विकसित अवस्था तक पहुंचती है तो आत्मा परमात्मा बन जाता है और पूर्णता की प्राप्ति होती है।
परिवार एक छोटा सा राष्ट्र या समाज है। आदर्श परिवार ही किसी समाज की सशक्त आधारशिला बनाते हैं। परिवार सद्भावना व सहकार के आधार की पृष्ठभूमि पर विनिर्मित पावन संगठन है। परिवार का प्राण आत्मीयता/ मित्रता/ निष्ठा है। महत्ता संगठन संरचना की नहीं वरन् उस भावना, निष्ठा की है जिससे आत्मभाव पल्लवित पुष्पित विकसित होती है जिसकी पूर्णता आत्मसंयम के रूप में परिलक्षित होती हैं।
परिवार में बड़ों का आदर्श बनना चाहिए ताकि छोटे अनुकरण कर सके और छोटे बड़ों के प्रति श्रद्धा रखें। सम्मान, शिष्टाचार, सहकार, परमार्थ, त्याग, उत्तरदायित्व, सदुपयोग, स्वच्छता व सुव्यवस्था आदि परिवार के आधार हैं।
द्वितीय अध्याय – गृहस्थ जीवन प्रकरण
सद्गृहस्थ किसी भी आश्रम से अपने को हीन ना समझे। लोभ, मोह व विलास की दुष्प्रवृत्तियां अपनाने से कोई भी कहीं भी पतनोन्मुखी हो सकता है। विवेकशील स्वयं को इनसे बचाते हुए आत्मकल्याण – लोककल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
गृहस्थ धर्म में उपार्जित क्षमता के सदुपयोग का प्रशिक्षण एवं अनुभव प्राप्त होता है। उठती आयु में स्वास्थ्य संवर्धन, शिक्षा अर्जन, अनुभव संपादन, अनुशासन, अवलंबन, संयम जैसी अनेक क्षमताएं उपलब्ध होती हैं। विकासक्रम सुनियोजित किया जाता है। मातृ-पितृ ऋण, गुरू ऋण व देव ऋण चुकाने योग्य दिव्य कार्य संपादित होते हैं।
विवाह गृहस्थ धर्म की पावन पुनीत क्रिया है। विवाह परिपक्व होने पर करनी चाहिए। जोड़ी निश्चित करने में रूप -सौन्दर्य को नहीं, गुण, कर्म, स्वभाव को महत्व देना चाहिए। दहेज, आभूषण, प्रदर्शन, भीड़ भाड़, धुमधाम जैसे अपव्यय वाले धन प्रदर्शन विवाह – आसुरी विवाह हैं। पति-पत्नी एक प्राण दो देह बन कर रहें। सहिष्णुता के साथ ही मैत्री का निर्वाह होता है। युवावस्था में उपार्जन – स्वावलंबन अनिवार्य है। ‘सादा जीवन – उच्च विचार’ जीवन में उत्कृष्टता का समावेश करता है। मृतक भोज, भिक्षावृत्ति, जातिगत भेद भाव, पर्दा प्रथा में असीम हानि है। भाग्यवाद, चित्र विचित्र किंवदंती, आश्रित देवी देवताओं का चलन, भविष्य कथन, मुहुर्तवाद जैसी भ्रान्तियों में विज्ञजनों को नहीं फंसना चाहिए।
तृतीय अध्याय – नारी महातम्य प्रकरण
नारी का सम्मान वहां है – संस्कृति का उत्थान वहां है। नारी परिवार की धुरी हैं व पुरुष उनके सहायक। एक सफल पुरूष के जीवन के पीछे एक आदर्श स्त्री होती हैं। समुन्नत नारी ही परिवार को स्वर्ग बनाती हैं। परिवार नर व नारी के संयुक्त अनुदानों का प्रतिफल है। श्रेष्ठ नारियां अपने जैसे गुण, कर्म व स्वभाव की संतानें जनती हैं। नारी में स्नेह सौजन्य की प्रकृति प्रदत्त क्षमता होती है जिसे व्यक्तित्व निर्माण की प्रमुख क्षमता कहते हैं। नारी कल्पवृक्ष हैं जो उसे लगन पूर्वक सींचता पालता है वह उसकी छाया में बैठकर मनोरथ पूर्ण करता है और इच्छित फल वरदान के रूप में प्राप्त करता है। नारी राष्ट्र की जननी व निर्मात्री हैं अतः उन्हें सुविकसित व स्वावलंबी होना चाहिए।
घर परिवार के कार्यों में पुरुष नारी का हाथ बंटाये। नारी को सुविकसित, सुसंस्कृत व सुयोग्य बनने हेतु आदर्श स्थिति उत्पन्न करना पुरूष का पुनीत पावन कर्तव्य है। नवयुग नारी प्रधान होगा। नारी का शोषण ना हो इस हेतु समस्त समाज को जागरूक रहना चाहिए। नर और नारी एक समान – अतः दोनों के अधिकार व कर्तव्य में समानता होनी चाहिए। पुरूष व नारी एक ही रथ के दो पहिए हैं – असमानता पतन पराभव का कारण बन जाती हैं। नारी अपनी पुनीत पावन गरिमा को जानें पहचानें और पुरुष उनके सहयोगी बनें @ दोनों शक्ति धाराओं का मिलन पूर्णता।
चतुर्थ अध्याय – शिशु निर्माण प्रकरण
आज का बालक कल का समाज संचालक व राष्ट्रनायक बनता है। विवाह का उद्देश्य परस्पर प्रीति युक्त रहकर राष्ट्र को सुसन्तति देना है। ऋग्वेद का निर्देश है – जिनके हृदय शुद्ध, निर्मल व पवित्र हों तथा जिनकी आयु इस हेतु पूर्ण हो चुकी वही युवक व युवती पाणिग्रहण (विवाह) करें। वे शक्ति जन विवाह करके परिवार को सतेज बनायें।
मनुष्य को सद्गति मिलती है सत्कर्मों से। सन्तान उत्पत्ति उतनी ही की जाये जिनका उचित भरण पोषण हो सके। अधिक सन्तानें सदा कष्ट का कारण बनती हैं। माता-पिता का शारीरिक विकास (ओजस्), मानसिक स्वास्थ्य (तेजस्) व अर्थ प्रबंध (श्री) ऐसा होना चाहिए ताकि नवागत (शिशु) को आरंभ से ही उपयुक्तता उपलब्ध हो सके। परिवार में जैसा वातावरण होता है, प्रवृत्तियां पनपती हैं, बच्चे सहज ही उनका अनुकरण करते हैं। कन्या व पुत्र को एक समान माना जाए। जैसे आत्मा – पुत्र के रूप में जन्म लेती हैं वैसे ही पुत्री के रूप में भी जन्म लेती हैं। पुत्र से भी अधिक श्रेयस्कर पुत्रियों को समझना चाहिए। बच्चों के भविष्य का ध्यान रखते हुए उन्हें सुसंस्कारी वातावरण में सुसंस्कृत बनाया जाए। संतति पालन के क्रम में माता-पिता व अभिभावकों को ‘एक आंख दुलार की – दूसरी सुधार की’ सुत्र को धारण करना चाहिए। जैसा संग – वैसा रंग। अतः बच्चों को कुसंग में नहीं रहने देना चाहिए। उनकी शिक्षा-दीक्षा सोद्देश्य होने चाहिए। संतति का विवाह तब करें जब वे सुसंस्कृत व स्वावलंबी बन जाएं।
आ॰ शैली अग्रवाल जी (पंचकुला, हरियाणा)
महर्षि धौम्य जी वृद्ध, जो पारिवारिक कर्तव्यपालन से मुक्त होने के बाद समाज में अपने को विगलित महसूस करते हैं उनके वृद्धावस्था की महत्ता व उनके सुनियोजन को समझाया है:-
पंचम अध्याय – वृद्ध जन महात्म्य प्रकरण
गृहस्थ धर्म में वयोवृद्धों का भी महत्वपूर्ण स्थान है। शारीरिक क्षमता घट जाने पर भी उनकी मानसिक क्षमता अपेक्षाकृत अधिक परिपक्व – परिष्कृत होती है। इसका लाभ केवल उस परिवार को ही नहीं वरन् समस्त क्षेत्र एवं संसार को मिलना चाहिए। वे चाहें तो नया जीवन जी सकते हैं, नया कार्यक्रम अपना सकते हैं, नये क्षेत्र में प्रवेश कर सकते हैं। आत्मलाभ की दृष्टि से यह समय सुयोग्य साबित हो सकता है।
ढलती आयु में वानप्रस्थ धर्म अपनाना उचित है। बच्चे की संख्या कम रखने से जीवन के उत्तरार्ध में अनावश्यक भार नहीं पड़ता। बड़ी सन्तान जब गृहकार्य संभालने लगे तो तो बुजुर्ग अध्यात्म प्रयोजनों के प्रति अधिक ध्यान दें। जिनकी योग्यता एवं सुविधा, प्रव्रज्या के लिए उपयुक्त हों वो तीर्थाटन के लिए बाहर निकलें। जिनका कारणवश बाहर जाना संभव नहीं है वो परिवार के विधि व्यवस्था में सहयोग करते हुए स्वयं को लोक-मंगल प्रयोजनों में निरत रखें। अपने वंशधरों तक ही सीमित ना रहें वरन् आत्मीयता का विस्तार करें। संतति आर्थिक रूप से सबल हों तो अर्जित संपदा को लोकसेवा में लगावें। अपने को अधिकाधिक संयमी, सेवाभावी, उदार व परिपक्व बनाते चलने से लोक सुख व शान्तिमय बनता है।
षष्ठम अध्याय – सुसंस्कारिता संवर्धन प्रकरण
परिवार की जिम्मेदारी से युक्त हों अथवा मुक्त – हम सभी को ४ महापुरूषार्थ – साधना, स्वाध्याय, सत्संग व सेवा में संलग्न रहना चाहिए। इसे कैसे जीवन में शामिल करें इस संदर्भ में सद्गृहस्थों को संबोधित करते हुए महर्षि धौम्य जी:-
परिवार में आस्तिकता संवर्धन हेतु उपासना आराधना को नित्य कर्मों में सम्मिलित रखें। कथा कीर्तन पारिवारिक गोष्ठियो के लिए नियत समय रख कर सत्संग की व्यवस्था बनायें।
महापुरुषों की जीवन गाथा, कथानक माध्यम से आदर्श मनःक्षेत्र में अमिट छाप छोड़ जाते हैं। स्वाध्याय में कभी प्रमाद ना बरता जाए। जीवन में स्वाध्याय – सत्संग को भोजन व शयन की तरह आवश्यक स्थान दिया जाए। घर में पुस्तकालय @ ज्ञान-मंदिर की व्यवस्था अनिवार्य रूप से बनाया जाए।
साधना द्वारा परिवार में आस्तिकता का वातावरण बनाना चाहिए। आस्तिकता का प्रथम उद्देश्य ईश्वर के अस्तित्व और कर्मफल विधान पर विश्वास दिलाना है जिससे दुष्प्रवृत्ति कृत दुष्कर्मों से बचाव हो सके और भावऩायें, मान्यताएं, आकांक्षाएं उर्ध्वगामी हों।
उपासना @ सेवा का लक्ष्य है – ईश्वर की महानता के समीप पहुंचना, घनिष्ठ बनना अर्थात् अपने चिन्तन, चरित्र में आदर्शों को भरते बढ़ते चलना। ईश्वर की उपस्थिति कण कण में, प्राणियों में अनुभव करते हुए चेतना के प्रति सद्भाव रखना, सद्व्यवहार करना साथ ही साथ पदार्थ संपदा को ईश्वरीय संपदा मानते हुए सर्वश्रेष्ठ उपयोग करना।
सप्तम अध्याय – विश्व परिवार प्रकरण
सद्गृहस्थ, परिवार की चारदिवारी तक ही सीमित ना हों जायें वरन् उनके उत्तरदायित्व क्रमशः देश, धर्म व संस्कृति के प्रति भी है। इस विषय पर सद्गृहस्थों को संबोधित करते हुए महर्षि धौम्य जी:-
वसुधैव कुटुंबकम्। घर परिवार को व्यायामशाला – पाठशाला के समान समझते हुए इस छोटे क्षेत्र में उपार्जित उपलब्धियों को लोकहित में नियोजित करना चाहिए। इसी में मनुष्य जन्म की सार्थकता व ईश्वर की प्रसन्नता सन्निहित है। साकार परमेश्वर – यह संसार विराट ब्रह्म है। पारिवारिकता में आस्तिकता, आध्यात्मिकता व धार्मिकता तीनों का समावेश हो। इसे ही अपनाने से उपासना, साधना व अराधना का प्रयोजन पूर्ण होता है। इससे ही चिंतन, चरित्र व व्यवहार उर्ध्वगामी होते हैं। पारिवारिकता वंश कुटुंब पोषण, रक्षण व परिष्करण तक ही सीमित नहीं वरन् धर्म व दर्शन की तरह व्यापक है। अगले दिनों विश्व भर में एक भाषा बोली जायेगी एवं मानवीय गरिमा के अनुरूप सभी का चिंतन व चरित्र ढलेगा। विश्व परिवार में मात्र मनुष्य ही नहीं, पशु पक्षी भी सम्मिलित होते हैं।
प्रश्नोत्तरी सेशन विद् श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी.
दोनों दीदी व अमन भैया को सादर आभार। सार्थक व प्रभावी उपदेश वह है जो केवल वाणी से नहीं प्रत्युत् अपने आचरण से प्रस्तुत किया जाए। Approached, Digested & Realised @ उपासना, साधना व अराधना @ ज्ञान, कर्म व भक्ति की त्रिवेणी संगम (त्रिपदा गायत्री) से उत्कृष्ट चिंतन, आदर्शवादी चरित्र व शालीन व्यवहार लभ्य होते हैं।
सर्वसामान्य हेतु गृहस्थाश्रम में उपासना, साधना व आराधना हेतु आदर्श व्यवस्था व स्थिति होती है। परिवारिकता @ गृहस्थ योग में अनुशासन, शिष्टाचार, समानता, स्वावलंबन, उपार्जन, संपदा का सुनियोजन, संयम, सेवा व सहिष्णुता आदि को समझने, सीखने व व्यवहार में लाने को मिलता है।
अभिभावक (माली) संतति का पोषण, संवर्धन व परिशोधन हेतु ‘एक आंख दुलार की – दुसरी सुधार की’ सुत्र का अनुसरण करना चाहिए।
वृद्ध जन अनावश्यक रूप से बच्चों के जीवन में हस्तक्षेप ना करें। व्यर्थ के टोका-टाकी से बचें। आशा स्वयं से रखी जाये तो बेहतर है अर्थात् यथा संभव स्वावलंबन को बरकरार रखें।
बड़ों को सम्मान – छोटों को प्यार @ आत्मीयता की खेती करें। सम्मान दें – सम्मान पायें। प्रेरणाओं का धारण कर प्रेरणापुंज बन प्रेरणा का प्रसारण करें।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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