Chhandagyopnishad – 3
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 14 Mar 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह।
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: छान्दोग्योपनिषद् – 3
Broadcasting: आ॰ अंकुर जी
आ॰ चन्दन प्रियदर्शी जी
पंचम अध्याय में कुल 24 (चौबीस) खण्ड हैं। इस अध्याय में ‘प्राण’ की सर्वश्रेष्ठता एवं पंचाग्नि विद्या का विशद वर्णन किया गया है।
‘प्राण‘ ज्येष्ठ व श्रेष्ठ है। ‘वाक्’ ही वशिष्ठ है। ‘चक्षु’ ही प्रतिष्ठा है। ‘श्रोत्र’ ही सम्पत्ति है। ‘मन’ ही आयतन है। शरीर में जो स्थान ‘प्राण’ का है, वह किसी अन्य इन्द्रिय का नहीं है। एक बार सभी इन्द्रियों में अपनी-अपनी श्रेष्ठता को लेकर विवाद छिड़ गया। तब सभी ने प्रजापति ब्रह्मा से निर्णय जानना चाहा कि सर्वश्रेष्ठ कौन है?
ब्रह्मा जी ने उत्तर दिया ‘तुममें जिस तत्त्व के निकल जाने से शरीर अत्यंत पापिष्ठ (निष्क्रिय व प्राणहीन) दिखाई देने लगे, वहीं तत्त्व श्रेष्ठ है।’
सबसे पहले वाणी (voice) ने फिर, नेत्र (eyes), श्रोत्र (ears), मन ने बारी बारी से शरीर छोड़ा। किन्तु हर बार शरीर का एक अंग ही निश्चेष्ट हुआ। शेष शरीर सक्रिय बना रहा। वाग्इन्द्रिय के बिना शरीर एक गुंगा (dumb), चक्षु के बिना नेत्रहीन (blind), ‘श्रोत्र’ के बिना बधिर (deaf) व ‘मन’ के बिना एक छोटे बच्चे (baby) की तरह जीवित व समर्थ रहा। किंतु प्राण के बिना शरीर जीवित नहीं रह सकता है। अतः ‘प्राण’ श्रेष्ठ है। इसलिए लोक में समस्त इन्द्रियों, वाणी, श्रोत्र, चक्षु, मन ना कहकर ‘प्राण’ से संबोधित करते हैं।
प्राणियों में ‘प्राण‘ के रहते ही ‘अन्न’ की आवश्यकता होती है, प्राण के निकलने के बाद नहीं। अतः अन्न प्राण की आवश्यकता है। अन्न धातु से “प्र + अन्न = प्राण, वि + अन्न = व्यान, सम + अन्न = समान, उत् + अन्न = उदान, अप + अन्न = अपान।” प्राण का वस्त्र ‘जल’ है।
‘तत्त्सवितुर्वृणीमहे, वयं देवस्य भोजनम्, श्रेष्ठं सर्वधातमम् व तुंरभगस्य धीमहि’ मन्त्रों को कहते हुए मन्थ का एक-एक ग्रास भक्षण करे।
गायत्री महामंत्र का प्रायोगिक पक्ष (practical) गायत्री पंचकोशी साधना है जो हमें ‘नरपशु’ से ‘देवमानव’ में रूपांतरित करता है।
खण्ड 3-10 में पांचाल नरेश के दरबार में ‘आरूणि’ पूत्र ‘श्वेतकेतू’ व ‘जीवल’ पूत्र ‘प्रवाहण’ संवाद है। प्रवाहण के 5 प्रश्नों का उत्तर देने में श्वेतकेतू स्वयं को असमर्थ पाते हैं। फिर प्रवाहण द्वारा ऋषि आरूणि व श्वेतकेतू को समाधान प्राप्त होता है।
‘आपः’ तत्त्व श्रद्धा व सोम (अमृत) रस के रूप में है। अन्न ग्रहण से लेकर गर्भ धारण तक की प्रक्रिया, यज्ञीय भाव अर्थात् दिव्य भाव में वर्णित है।
‘पंचाग्नि’ विद्या से गृहस्थ प्रकाश मार्ग से परलोक गमन करते हैं।
‘गहणाकर्मणोगति‘ – आसक्ति (लोभ, मोह व अहंकार) का जब तक रूपांतरण निष्काम भाव में नहीं होता तब तक ‘जीव’ कर्मफल स्वरूप जरा मरण के चक्र में आवागमन करते रहते हैं।
खण्ड 11-18 में अश्वपति ‘सावित्री’ के पिता हैं। अश्वपति प्राण संज्ञक हैं, गतिशीलता के द्योतक हैं। मनोमयकोश के प्रतिनिधि देवता ‘इन्द्र’ व विज्ञानमयकोश में चेतना के प्रतिनिधि देवता ‘सूर्य’ की किरणों को भी अश्व की संज्ञा दी जाती है। यहां भौतिक, प्राणिक व अध्यात्मिक विभूतियों के राजा के रूप में ‘अश्वपति’ को ले सकते हैं।
‘द्वैत’ (difference) भाव से की गई ‘उपासना, साधना व अराधना’ से पूर्णता प्राप्त नहीं होती।
अभेद दर्शनं ज्ञानं। सा विद्या या विमुक्तये। आत्मवत् सर्वभूतेषु य पश्यति स पण्डितः।
खण्ड 19-24 में – पंच प्राणों की उपासना साधना आदि का वर्णन है।
षष्ठम अध्याय में श्वेतकेतू व उनके पिता महर्षि आरूणि उद्दालक संवाद है। इसमें ‘अद्वैत’ का अद्भुत अनुपम अद्वितीय वर्णन है।
‘श्वेतकेतु‘ के ज्ञानाभिमान के रूपांतरण हेतु ‘आरूणि’ संवाद करते हैं। ‘ज्ञान’ की अनुभूति ना हो तो ‘अहंकार’ (मान्यता) बन जाती है। आत्मानुभूत ज्ञान से आत्मप्रगति बन पड़ती है।
‘तत्त्वमसि‘ श्वेतकेतु महावाक्य इस अध्याय में उद्धृत है। जीव व ब्रह्म के एकत्व को अलग अलग उदाहरणों से समझाया गया है।
प्रश्नोत्तरी सेशन – छान्दोग्य उपनिषद में ‘वैश्वानर’ ब्रह्म संज्ञक हैं।
प्रश्नोत्तरी सेशन विद श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी
‘उपनिषद्‘ ब्रह्म संज्ञक अर्थात् शाश्वत ज्ञान (absolute truth) बोध कराती हैं।
उप – सामीप्येन, नि – नितरां, प्राम्नुवन्ति परं ब्रह्म यया विद्यया सा उपनिषद अर्थात् जिस विद्या के द्वारा परब्रह्म का सामीप्य एवं तादात्म्य प्राप्त किया जाता है, वह ‘उपनिषद्’ है।
अहं जगद्वा सकलं शुन्यं व्योमं समं सदा …। शुन्य यहां blank नहीं प्रत्युत् सार्वभौमिकता सर्वांगीणता अनश्वर अनादि व अनंत का पर्याय है।
व्यष्टि गत प्राण/चेतना – कुण्डलिनी ‘जीव’ एवं व समष्टि गत कुण्डलिनी – ‘वैश्वानर’/ ‘महाप्राण’/ ‘शिव’। जीवो शिवः – शिवो जीवः। व्यष्टिगत चेतना ‘जीव’ को समष्टिगत चेतना ‘ब्रह्म’ में समर्पण भाव से सायुज्यता स्थापित करना होता है ~ नमन – वंदन – समर्पण – विलय – विसर्जन।
‘ब्रह्म‘ सायुज्यता में बाधक ‘आत्मविस्मृति’ है। आत्मविस्मृति का कारण पंचकोश की विकृति है। क्योंकि ‘चेतना’ पंचकोश में स्वयं को भिन्न-भिन्न स्वरूप में व्यक्त करती है जिससे आसक्ति वश जीव भाव अर्थात् ‘द्वैत’ की उत्पत्ति होती है।
पंचकोश अनावरण से ‘आसक्ति’ (लोभ, मोह व अहंकार) के तिरोहित होने से ‘आत्मभाव’ जाग्रत होता है फलस्वरूप सायुज्यता @ ‘परमात्मभाव’ संभव बन पड़ता है।
‘परमात्मा‘ ज्वाला तो ‘आत्मा’ चिंगारी। आत्मा के पंच आवरण – पंचकोश (तीन शरीर) आत्मा को जीव भाव से युक्त करते हैं। यकीन मानिए सर्वसाधारण द्वारा पंचकोश के 19 क्रियायोग/साधनों के प्रयोग से आत्म-परमात्म साक्षात्कार (साध्य) किया जा सकता है। यह सर्वथा निरापद व सर्वसुलभ है।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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