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Yogtatva Upanishad – 2

Yogtatva Upanishad – 2

PANCHKOSH SADHNA – Chaitra Navratri Sadhna Satra – Online Global Class – 14 Apr 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: योगतत्त्व उपनिषद् – 2

Broadcasting: आ॰ नितिन आहुजा जी

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

आज चैत्र नवरात्रि का दुसरा दिन। उपनिषद् के हर एक मंत्र में गहन अर्थात् सुक्ष्मातिसुक्ष्म अर्थ समाहित हैं।
आत्मसाधक नचिकेता को यमाचार्य ने पंचाग्नि विद्या @ आत्मविद्या का ज्ञान दिया।
युगऋषि ने वशिष्ठ विश्वामित्र परंपरा को आयाम देते हुए महाकाल विद्या @ गायत्री पंचक्रोशी साधना सर्वसुलभ बनाया @ ऋषि मुनि यति तपस्वी योगी, आर्त अर्थी चिंतित भोगी। जो जो शरण तुम्हारी आवें, सो सो मनोवांछित फल पावें।।
यज्ञ पिता – गायत्री माता। सद्ज्ञान – सत्कर्म। ज्ञान यज्ञ की ज्योति जलाने हम घर घर में जायेंगे। प्राण का अपान में हवन @ प्राणायाम।
अन्नमयकोश की उपलब्धि @ आरोग्यता। जीवन जीने की कला को हम गायत्री स्मृति के शिक्षण व प्रशिक्षण से आत्मसात कर सकते हैं।

योगो हि बहुधा ब्रह्मन्भिद्यते व्यवहारतः। मन्त्रयोगो लयश्चैव हठोऽसौ राजयोगतः॥१९॥
हे ब्रह्मन्! व्यवहार की दृष्टि से योग के अनेकानेक भेद बताये गये हैं, जैसे – मन्त्रयोग, लययोग, हठयोग एवं राजयोग आदि॥
‘योग’ के अनेकानेक प्रकार (types) हैं। परमचेतना (परमात्मा) का हर एक सृफुल्लिंग चेतना (आत्मा) अपनी विशिष्टता @ अद्वितीय (unique) है अतः different kinds of Yoga defined हैं। हम अपना मूल्य समझें अर्थात् अपनी विशिष्टता (speciality/ uniqueness) को जानें और यकीन मानें की copy & paste से नहीं प्रत्युत् creativity से बात बनती हैं।

आरम्भश्च घटश्चैव तथा परिचयः स्मृतः। निष्पत्तिश्चेत्यवस्था च सर्वत्र परिकीर्तिता॥२०॥
योग की चार अवस्थायें सर्वत्र वर्णित की गई हैं। ये अवस्थायें – आरम्भ, घट, परिचय एवं निष्पत्ति हैं॥
आधार मजबूत हों तो उड़ान अच्छी होती हैं। अन्नमयकोश की परिपक्वता – आरम्भ, प्राणमयकोश की परिपक्वता – घटावस्था, मनोमयकोश की परिपक्वता – परिचयावस्था, विज्ञानमयमयकोश की परिपक्वता – निष्पत्ति।

एतेषां लक्षणं ब्रह्मन्वक्ष्ये शृणु समासतः। मातृकादियुतं मन्त्रं द्वादशाब्दं तु यो जपेत्॥२१॥
इनके लक्षण संक्षेप में वर्णित किये जाते हैं – (मन्त्रयोग) जो मातृका आदि से युक्त मन्त्र को बारह वर्ष जप करता है॥

क्रमेण लभते ज्ञानमणिमादिगुणान्वितम्। अल्पबुद्धिरिमं योगं सेवते साधकाधमः॥२२॥
वह क्रमशः अणिमा आदि का ज्ञान प्राप्त कर लेता है; परन्तु इस तरह का योग अल्प बुद्धि वाले लोग करते हैं तथा वे अधम कोटि के साधक होते हैं॥
मन्त्रों से चिपकाव रखकर केवल माला की संख्या बढ़ाने से पूर्णता प्राप्त नहीं की जा सकती। मन्त्र का सामर्थ्य ध्वनि विज्ञान तक ही सीमित हैं। ‘अधम’ का अर्थ निम्न कोटि का नहीं प्रत्युत्  variableness से है अर्थात् यह मूल सत्ता नहीं है।
12 वर्ष तक मन्त्रयोग करके पूर्णता को प्राप्त नहीं किया जा रहा है – time taking procedure है। गुरूदेव कहते हैं की ईमानदारी से गायत्री पंचक्रोशी साधना द्वारा 10 वर्ष  में लक्ष्य का वरण किया जा सकता है।

लययोगश्चित्तलयः कोटिशः परिकीर्तितः। गच्छंस्तिष्ठन्स्वपन्भुञ्जन्ध्यायेन्निष्कलमीश्वरम्॥२३॥
स एव लययोगः स्याद्धठयोगमतः शृणु। यमश्च नियमश्चैव आसनं प्राणसंयमः॥२४॥
प्रत्याहारो धारणा च ध्यानं भ्रूमध्यमे हरिम्। समाधिः समतावस्था साष्टाङ्गो योग उच्यते॥२५॥
चित्त का लय ही ‘लययोग’ है, वह करोड़ों तरह का कहा गया है, चलते, बैठते, रुकते, शयन करते, भोजन करते, कलारहित परमात्मा का निरन्तर चिन्तन करता रहे॥ इस प्रकार वह तो ‘लययोग’ हुआ। अब ‘हठयोग’ का श्रवण करो – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, भृकुटी के मध्य में श्रीहरि का ध्यान तथा समाधि – साम्यावस्था को ‘अष्टांग-योग’ कहते हैं॥२४-२५॥
निर्मल मन जो सो मोहि पावा। “हरि व्यापक सर्वत्र समाना। प्रेम ते प्रकट होहिं मैं जाना।’’ Four steps of freedom –  समाधिपाद, साधनपाद, विभूति पाद व कैवल्यपाद।  साधनपाद – हठयोग है। हठयोग क्रिया पक्ष है इसमें भावना (आत्मभाव) के समावेश से क्रियायोग अर्थात् राजयोग बन जाता है।

महामुद्रा महाबन्धो महावेधश्च खेचरी। जालन्धरोड्डियाणश्च मूलबन्धैस्तथैव च॥२६॥
दीर्घप्रणवसन्धानं सिद्धान्तश्रवणं परम्। वज्रोली चामरोली च सहजोली त्रिधा मता॥२७॥
महामुद्रा, महाबन्ध, महावेध और खेचरी मुद्रा, जालन्धर बन्ध, उड्डियान बन्ध, मूलबन्ध, दीर्घ प्रणव संधान, परम सिद्धान्त को सुनना तथा वज्रोली, अमरोली एवं सहजोली ये तीन मुद्रायें हैं॥२६-२७॥

एतेषां लक्षणं ब्रह्मन्प्रत्येकं शृणु तत्त्वतः। लघ्वाहारो यमेष्वेको मुख्या भवति नेतरः॥२८॥
ब्रह्मन्! अब आप इनमें से प्रत्येक के लक्षणों को सुनें । यमों में एक मात्र सूक्ष्म आहार ही प्रमुख है।
उपनिषद् कार कहते हैं यमों में आहार शुद्धि प्रमुख है। वर्तमान में ‘आहार शुद्धि’ की सिद्धि हेतु अन्नमयकोश की साधना (आसन, उपवास, तत्त्वश़ुद्धि व तपश्चर्या) हैं।

अहिंसा नियमेष्वेका मुख्या वै चतुरानन। सिद्धं पद्मं तथा सिंहं भद्रं चेति चतुष्टयम्॥२९॥
तथा नियमों के अन्तर्गत अहिंसा प्रधान है। सिद्ध, पद्म, सिंह तथा भद्र ये चार मुख्य आसन हैं॥
नियमों के अंतर्गत ‘अहिंसा’ प्रधान हैं। वर्तमान में अहिंसा को हम सौजन्यता/ सज्जनता/ शालीनता के अर्थ में लें। वैदिक हिंसा हिंसा न भवति @ धर्मो रक्षति रक्षितः। हमें भाव संवेदना @ आत्मीयता को विकसित करनी होती है। शल्य चिकित्सक आपरेशन करके जीवनदान देते हैं। अवतार प्रकरण से हमें समझने में आसानी होगी। राम जी विनय गुण के अवतार और रावण का संहार कर मर्यादा की रक्षा की। वर्तमान में प्रज्ञायोगासन सर्वथा सर्वोपयोगी है।

प्रथमाभ्यासकाले तु विघ्नाः स्युश्चतुरानन। आलस्यं कत्थनं धूर्तगोष्टी मन्त्रादिसाधनम्॥३०॥
हे चतुरानन ! सर्वप्रथम अभ्यास के प्रारम्भिक काल में ही विघ्न उपस्थित होते हैं, जैसे आलस्य, अपनी बड़ाई, धूर्तपने की बातें करना तथा मन्त्रादिक का साधन॥
आत्म-सुधार संसार की सबसे बड़ी सेवा है। हमें अपने दोष दुर्गुणों को भूंज कर बाहर निकालना (भर्गो – निष्पाप) होता है।

धातुस्त्रीलौल्यकादीनि मृगतृष्णामयानि वै। ज्ञात्वा सुधीस्त्यजेत्सर्वान्विघ्नान्पुण्यप्रभावतः॥३१॥
श्रेष्ठ, बुद्धिमान् साधक को धातु (रुपया आदि धन), स्त्री, लौल्यता (चंचलता) आदि को मृगतृष्णा रूप समझकर तथा विघ्नरूप जानकर त्याग देना चाहिए॥
सिद्धियों को धूल समझकर झाड़ते चलें। सिद्धियों से चिपके नहीं प्रत्युत् चरैवेति चरैवेति।

प्राणायामं ततः कुर्यात्पद्मासनगतः स्वयम्। सुशोभनं मठं कुर्यात्सूक्ष्मद्वारं तु निर्व्रणम्॥३२॥
तदनन्तर उस श्रेष्ठ साधक को पद्मासन लगाकर प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। इसके लिए सबसे पहले एक छोटी-सी पर्णकुटी छोटे द्वार से युक्त तथा बिना छिद्र वाली विनिर्मित करे॥
आधार मजबूत अर्थात् आरंभावस्था के परिपक्वता उपरांत घटावस्था में प्रवेश करें।

सुष्ठु लिप्तं गोमयेन सुधया वा प्रयत्नतः। मत्कुणैर्मशकैर्लूतैर्वर्जितं च प्रयत्नतः॥३३॥
तत्पश्चात् उस कुटी को गाय के गोबर से लीपकर शोभनीय बनाये तथा ठीक तरह से स्वच्छ करे और प्रयत्नपूर्वक खटमल, मच्छर, मकड़ी आदि जीवों से रहित करे॥

दिने दिने च संमृष्टं संमार्जन्या विशेषतः। वासितं च सुगन्धेन धूपितं गुग्गुलादिभिः॥३४॥
प्रतिदिन उस (कुटिया) को झाड़-बुहार करके स्वच्छ करता रहे एवं साथ ही उसे धूप, गूगल आदि की धूनी देकर सुवासित भी करता रहे॥
स्वच्छता (hygiene and sanitation) की बात रखी गई है। युगानुकुल स्वच्छता के साधनों ‌की व्यवस्था रखी जा सकती है। घर में एक कक्ष एकांत साधना स्थली की व्यवस्था रखी जाए।

नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम्। तत्रोपविश्य मेधावी पद्मासनसमन्वितः॥३५॥
जो न तो बहुत अधिक ऊँचा तथा न ही अतिनीचा हो, ऐसे वस्त्र, मृगचर्म या कुश के आसन पर बैठकर पद्मासन लगाना चाहिए॥
सहजता – साधना पद्धति का अनिवार्य अंग।

प्रश्नोत्तरी सेशन

परम सिद्धांत को सुनना ~ तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्ध च। मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम्‌ ॥
भावार्थ : इसलिए हे अर्जुन! तू सब समय में निरंतर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धि से युक्त होकर तू निःसंदेह मुझको ही प्राप्त होगा॥

दीर्घ प्रणव संधान अर्थात् नादयोग साधना। स्वाध्याय, मन्त्र-योग को आयाम देते हैं अर्थात् सुक्ष्मातिसुक्ष्म अर्थ को स्पष्ट करते हैं।

पांचों शरीर में एक नाम ओंकार ‘ॐ’ को भाव रूपेण संस्थिता। ओंकार के प्रकाश से पांचों शरीर को प्रकाशित/ उज्जवल बनना।
कामना को शुभकामना में रूपांतरण @ वसुधैव कुटुंबकम् @ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुख भागभवेत।

लोकसेवी को परावलंबी नहीं होनी चाहिए। परावलंबन परतंत्रता का पोषण करती हैं। हम  freedom fighters हैं अतः ‘स्वावलंबन’ को जीवन साधना का अनिवार्य अंग रखेंगे।

निष्पत्ति अर्थात् लक्ष्य की प्राप्ति।

आत्मविश्वास आत्मसाधकों हेतु आवश्यक ही नहीं प्रत्युत् अनिवार्य भी।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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