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Gayatri Smriti

Gayatri Smriti

PANCHKOSH SADHNAOnline Global Class – 29 May 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|


https://youtu.be/5TN0jXxWH7A

SUBJECT:  गायत्री स्मृति

Broadcasting: आ॰ अमन जी

आ॰ उमा सिंह जी (बैंगलोर, कर्नाटक)

गायत्री महामंत्र सार्वभौम मानव-धर्म का बीज मंत्र है।
भूर्भुवः स्वः ॐ युत जननी। गायत्री नित कलिमल दहनी॥ अक्षर चौबिस परम पुनीता। इनमें बसें शास्त्र, श्रुति, गीता॥ …. चार वेद की मातु पुनीता। तुम ब्रहमाणी गौरी सीता॥ महामंत्र जितने जग माहीं। कोऊ गायत्री सम नाहीं॥

गायत्री महामंत्र को आत्मसात् करने हेतु  इसके दर्शन को जानना, समझना व धारण करना अर्थात् तदनुसार जीना होता है अर्थात् गुण, कर्म व स्वभाव – गायत्री- मय @ ब्रह्म से ओतप्रोत हो – approached, digested and realised.

भूः (पृथ्वी), भुवः (पाताल), स्वः (स्वर्ग) –  तीन लोक है। उन तीनों लोकों में ॐ ब्रह्म व्याप्त है। जो बुद्धिमान उस ब्रह्म को जानता है वह ही वास्तव में ‘ज्ञानी’ है।।1।। @ सर्वत्र, सर्वव्यापी, सर्वेश्वर, सर्वात्मा –  सर्व खल्विदं ब्रह्म।

तत् – तत्त्वदर्शी विद्वान ब्राह्मण अपने एकत्रित तप के द्वारा संसार में अज्ञान से उत्पन्न अंधकार को दूर करें।।2। @ ब्राह्मणत्व को धारण करने की प्रेरणा – तत्त्वदर्शी, ज्ञानी बनें। ब्राह्मण, भुसुर अर्थात् पृथ्वी के देवता (देने वाला) हैं। स्वावलंबन – अध्यात्मिक गुण हैं।

– सत्तावन वीर संसार के रक्षक, क्षत्रिय अन्याय और अशक्ति से उत्पन्न होने वाली आपत्तियों को नष्ट करें।।3।। क्षत्रियत्व धारण करने की प्रेरणा – शक्ति की साधना।

वि – वित्त (धन) की शक्ति द्वारा तो उचित अभावों की पूर्ति करनी चाहिए। उस शक्ति द्वारा घमंड तथा उदण्डता का प्रदर्शन नहीं करना चाहिए।।4।। @ प्रेरणा – वैश्य वर्ण / वित्त उपार्जन की महत्ता एवं उसका सदुपयोग परमार्थ में। 

तु – तुषारापात में भी प्रयत्न करना आत्मा का धर्म है। श्रम की महिमा और प्रतिष्ठा अपार है ऐसा कहा गया है।।5।। प्रेरणा – शुद्र वर्ण @ श्रम शक्ति की महत्ता। विवेक, धैर्य, साहस व प्रयत्न – संघर्ष में मनुष्य के सच्चे साथी हैं। संघर्ष ही जीवन है।

चार वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र) हमारे अंदर गुण, कर्म व स्वभाव के रूप में निवास करते हैं। इन चारों को धारण करना दैनंदिन जीवन की आवश्यकता है। श्रद्धा-विश्वास, प्रज्ञा, निष्ठा व श्रमशीलता से सफलता सुनिश्चित होती हैं।

– नारी के बिना मनुष्य को बनाने वाला दूसरा और कौन है अर्थात् मनुष्य की निर्मात्री नारी को अपनी रचना शक्ति का महत्व समझना चाहिए।।6।। @ शिव, शक्ति के बिना शव के समान हैं। नारी अपनी महत्ता को जानें व समझें तदनुसार आचरण करें।

रे – सज्जन पुरुष को हमेशा नर्मदा नदी के समान निर्मल नारी की पूजा करनी चाहिए। क्योंकि विद्वानों ने उसको इस संसार में साक्षात लक्ष्मी माना है।।7।।
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।। भावार्थ: जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ स्त्रियों की पूजा नही होती है, उनका सम्मान नही होता है वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं।

ण्य – जो मनुष्य प्रकृति के आज्ञानुसार पैरों को रखते हैं अर्थात् प्रकृति के आज्ञानुसार चलते हैं वे मनुष्य स्वस्थ होते हुए निश्चय ही रोगों से मुक्त हो जाते हैं।।8।। @ प्राकृतिक जीवन-शैली की प्रेरणा।

– मानसिक उत्तेजना को छोड़ दो। सभी आवश्यकताओं में मन को शान्त और संतुलित रखो।।9।। @ अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्यते की प्रेरणा।

गो – अपने मनोभावों को नहीं छिपाना चाहिए। मनुष्य को असहिष्णु नहीं होना चाहिए। दूसरे की स्थिति को देखकर उस अनुसार आचरण करना चाहिए।।10।। @ कथनी व करनी में समानता व सदाचरण की प्रेरणा।

दे – मनुष्यों को अपनी समस्त इन्द्रियां वश में करनी चाहिए। ये असंयत इन्द्रियां स्वामी को खाती हैं।।11।। @ आत्मनियंत्रण की प्रेरणा।

– मनुष्य को बाहर और भीतर सब तरह से पवित्र होकर रहना चाहिए। क्योंकि पवित्रता में ही प्रसन्नता रहती है।।12।। @ बाह्याभ्यन्तरः शुचि।

आ॰ शैली अग्रवाल जी (पंचकुला, हरियाणा)

योग साधकों को सर्वप्रथम ‘तप’ @  गलाई अपने दोष-दुर्गुणों की (आत्मसमीक्षा व आत्मसुधार) then ‘योग’ @ ढलाई (आत्मनिर्माण व आत्मविकास)। प्रारंभिक तप ही उत्तरार्ध में योग में परिणत हो जाते हैं।

स्य – दूसरों का प्रयोजन सिद्ध करना परमार्थ का रथ है ऐसा बुद्धिमानों ने कहा है। जो विचारवान दुसरे लोगों को सुख देता है, उसका दुःख नष्ट हो जाता है।।13।।

धी – धीर पुरुष को एक ही प्रकार की प्रगति से संतुष्ट ना रहना चाहिए। मनुष्य को जीवन में सभी दिशाओं में उन्नति करनी चाहिए।।14।।
अन्नमयकोश में ओजस, प्राणमयकोश में तेजस्, मनोमयकोश में प्रज्ञा, विज्ञानमयकोश व आनंदमयकोश में वर्चस (दीप्ति व कांति) को धारण @ पंचकोश को परिष्कृत परिमार्जित @ उज्जवल बनाने की प्रेरणा।

– परमात्मा के न्यायपूर्ण नियमों को समझकर और उसकी सत्ता को स्वीकार करते हुए निश्चय ही परमात्मा की उपासना करे।।15।। @ ईश्वरीय अनुशासन को जीवन में धारण कर ईश्वरीय साहचर्य।

हि – हितकारी ज्ञान केन्द्र को समझकर स्वतंत्रता पूर्वक विचार करें। कभी भी कोई किसी का अन्धानुसरण ना करें।।16।। @ विवेकशीलता – हम परंपराओं की जगह विवेकानुकूल आचरण को तरजीह दें।

धि – बुद्धि से मृत्यु का ध्यान रखें और जीवन के मर्म को समझें तब अपने लक्ष्य की ओर निरंतर अपने पैरों को चलावे अर्थात् निरंतर अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ें।।17।। @ उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।

यो – जो धर्म संसार का आधार है, उस धर्म को अपने आचरण में लाओ। उनकी विडंबना मत करो। वह तुम्हारे मार्ग में अद्वितीय सहायक है।।18।। @ धर्मों रक्षति रक्षितः।

यो – व्यसनों से योजन भर दूर रहें अर्थात् व्यसनों से बचा रहे क्योंकि वे मनुष्य के शत्रु हैं। ये सब मिलकर मनुष्यों को मार देते हैं।।19।। @ आदत बुरी सुधार लो, बस हो गया भजन – भजन। मन की तरंग मार लो, बस हो गया भजन भजन। 

नः – हमारी यह एक बात सुनो की तुम हमेशा जागृत रहो। क्योंकि निश्चय ही सोते हुए मनुष्य पर दुश्मन आक्रमण कर देते हैं।।20।। @ धूर्तों की खिचड़ी, मुर्खों की हांडी में पकती है। सरलता की सार्वभौमिकता में सजगता समाविष्ट होती हैं।

प्र – स्वभाव से ही उदार होओ, कभी भी अनुदार मत बनो, उदार दृष्टि से ही विचार करो ऐसा करने से चित्त शुद्ध हो जाता है।।21।। @ अपने लिए कठोरता व अन्यों के लिए उदारता – सहृदयता।

चो – सत्संग बुद्धि को प्रेरणा देता है। इस सत्संग का बल महान है। इसलिए विद्वान अपने आपको हमेशा सत्पुरुषों से घिरा हुआ रखें अर्थात् सज्जनों का संग करें।।22।। @ स्वाध्याय व सत्संग की महत्ता व अनिवार्यता।

– आत्मा का दर्शन करके आत्मा के गौरव को पहचानो। उसको जान कर तब आत्मा के पूर्ण उन्नति के ओर चलो।।23।। @ आत्मा के प्रकाश में आत्मा स्वयं का अनावरण करता है। आत्मा वाऽरे ज्ञातव्यः। आत्मा वाऽरे श्रोतव्यः। आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः।

या – पिता अपने उत्तरदायित्व को निभाता हुआ जीवन में चले क्योंकि कुपिता भी उसी तरह पापी होता है जैसे कुपुत्र होता है।।24।। @ आदर्श सुसंतति देने वाले सद्गृहस्थ दंपत्ति हजारों संतों के सदृश।

– मनुष्य दूसरे के साथ उसी प्रकार का आचरण करे जैसा वह स्वयं के साथ चाहता है। और उसे नम्र, शिष्ट, कृतज्ञ और सच्चाई के साथ सहयोग वाली भावना वाला होना चाहिए।। @ शालीन व्यवहार।

चरित्र, चिंतन व व्यवहार” – हमारे व्यक्तित्व का त्रि-आयामी क्षेत्र है। चिंतन – उत्कृष्ट, चरित्र – आदर्श व व्यवहार – शालीन हों … के से को गायत्री साधक स्वयं की प्रगति को माप सकते हैं।

आ॰ कीर्ति पाण्डेय जी

स्वाध्याय‘ व ‘सत्संग‘ से thought process @ दृष्टिकोण में उत्कृष्टता का समावेश हुआ। ‘क्रियायोग‘ का अभ्यास सामुहिक रूप से करने से इसकी क्रियाविधि में सिद्धि मिली।

जिज्ञासा समाधान (श्री लाल बिहारी सिंह ‘बाबूजी’)

दोनों बहनें – सुशिक्षित, आदर्श ग्लोबल शिक्षिका – ब्रह्म बीज हैं। हम सभी के लिए पुलकन का विषय है की गुरुदेव का उद्देश्य आदर्श शिक्षक का निर्माण हो रहा है।

तत्सवितुर्वरेण्यं‘  – का भाव हर एक व्यक्तित्व (चरित्र + चिंतन + व्यवहार) में उस स्वयंभू, सर्वव्यापक, सर्वेश्वर, सर्वात्मा/ विश्वात्मा/ परमात्मा का दिग्दर्शन कराने में समर्थ हैं। सविता सर्वभूतानां सर्वभावान् प्रसूयते।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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