Amritnaad Upanishad – 2
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 06 June 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
SUBJECT: अमृतनाद उपनिषद् – 2
Broadcasting: आ॰ अंकुर जी
टीकावाचन – आ॰ किरण चावला जी (USA)
श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी
मूल प्रश्न श्रद्धा व विश्वास का है। मनुष्य के अन्तःकरण में जिज्ञासा पैदा होनी चाहिये – ज्ञान की @ आत्मा के रहस्य जानने के तीव्र आकाँक्षा ही इसका मूल आधार है। उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।
अमृतनाद उपनिषद् (मंत्र सं॰ २२-३९)
इस प्रकार प्राणायाम के द्वारा सभी दोषों का शमन करते हुए पूर्व निर्दिष्ट क्रम के अनुसार ‘ओंकार’ का ध्यान करते हुए प्राणायाम करे। इस तरह का ‘प्रणव गर्भ’ प्राणायाम नाभि के ऊर्ध्व भाग अर्थात् हृदय में ध्यान करते हुए स्थूलातिस्थूल मात्रा में सम्पन्न करे॥२२॥ @ चरैवेति चरैवेति। बोधत्व तक अनवरत यात्रा जारी रखी जाती है।
अपनी दृष्टि को ऊपर अथवा नीचे की ओर तिरछा घुमाकर केन्द्रित करते हुए बुद्धिमान् साधक स्थिरता पूर्वक निष्कम्प भाव से स्थित होकर योग का अभ्यास करे॥२३॥ @ स्थिर शरीर – शांत चित्त।
योगाभ्यास की यह क्रिया तालवृक्ष की भाँति कुछ ही काल में फल प्रदान करने वाली है। इसका अभ्यास पहले से सुनिश्चित योजनानुसार ही करने योग्य है अर्थात् बीच में उसे घटाना, बढ़ाना या रोकना नहीं चाहिए। द्वादश मात्राओं की आवृत्ति भी समान समय में ही पूर्ण करनी चाहिए॥२४॥
Slow and steady wins the race. संतुलित व नियमित अभ्यास ही सफलता का द्वार खोलती हैं।
इस प्रणव नाम से प्रसिद्ध घोष का उच्चारण बाह्य प्रयत्नों से नहीं होता है। यह व्यञ्जन एवं स्वर भी नहीं है। इसका उच्चारण कण्ठ, तालु, ओष्ठ एवं नासिका आदि से भी नहीं होता। इसका दोनों ओष्ठों के अन्त: में स्थित दन्त नामक क्षेत्र से भी उच्चारण नहीं होता। ‘प्रणव’ वह श्रेष्ठ अक्षर है, जो कभी भी च्युत नहीं होता। ओंकार का प्राणायाम के रूप में अभ्यास करना चाहिए तथा मन गुञ्जायमान घोष में सदैव लगाए रहना चाहिए॥२५॥
योगी पुरुष जिस मार्ग का अवलोकन करता है अर्थात् मन के माध्यम से जिस स्थान को प्रवेश करने योग्य मानता है, उसी मार्ग से प्राण और मन के साथ गमन कर जाता है। प्राण श्रेष्ठ मार्ग से गमन करे, इस हेतु साधक को नित्य-नियमित अभ्यास करते रहना चाहिए॥२६॥
तन्मात्रा साधना द्वारा नियंत्रित संतुलित शांत मन परम मित्र बन जाता है। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्यते।
वायु के प्रवेश का मार्ग हृदय ही है। इससे ही प्राण सुषुम्णा के मार्ग में प्रवेश करता है। इससे ऊपर ऊर्ध्वगमन करने पर सबसे ऊपर मोक्ष का द्वार ब्रह्मरन्ध्र है। योगी लोग इसे सूर्यमण्डल के रूप में जानते हैं। | इसी सूर्यमण्डल अथवा ब्रह्मरन्ध्र का बेधन करके प्राण का परित्याग करने से मुक्ति प्राप्त होती है॥२७॥
अनाहत चक्र पर सूर्य मण्डल का ध्यान करते हुए प्राणाकर्षण प्राणायाम।
भय, क्रोध, आलस्य, अधिक शयन, अत्यधिक जागरण करना, अधिक भोजन करना या फिर बिल्कुल निराहार रहना आदि समस्त दुर्गुणों को योगी सदैव के लिए परित्याग कर दे॥२८॥
भगवद्गीता – युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।6.17।। भावार्थ: दुःखों का नाश करने वाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करने वाले का, कर्मों में यथायोग्य चेष्टा करने वाले का और यथायोग्य सोने तथा जागने वाले का ही सिद्ध होता है॥
इस प्रकार नियम पूर्वक जो भी साधक क्रमशः उत्तरोत्तर प्रगति करता हुआ नियमित अभ्यास करता है, उसे तीन मास में ही स्वयमेव ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है, इसमें कुछ भी संशय नहीं है॥२९॥
वह योगी-साधक नित्य-नियमित अभ्यास करता हुआ चार मास में ही देव दर्शन की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। पाँच माह में देव-गणों के समान शक्ति-सामर्थ्य से युक्त हो जाता है तथा छ: मास में अपनी इच्छानुसार निःसन्देह कैवल्य को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है॥३०॥
शरीर को अयोध्या (अजेय) कहा गया है।
पृथिवी तत्त्व की धारणा के समय में ओंकार रूप प्रणव की पाँच मात्राओं का, वरुण अर्थात् जल तत्त्व की धारणा के समय में चार मात्राओं का, अग्नि तत्त्व की धारणा के समय में तीन मात्राओं का तथा वायु तत्त्व की धारणा के समय में दो मात्राओं के स्वरूप का ध्यान करना चाहिए॥३१॥
आकाश तत्त्व की धारणा करते समय प्रणव की एक मात्रा का तथा स्वयं ओंकार रूप प्रणव की धारणा करते समय उसकी अर्द्धमात्रा का चिन्तन करे। अपने शरीर में ही मानसिक धारणा के माध्यम से पंचभूतों की सिद्धि प्राप्त करे और उनका ध्यान करे। इस तरह के कृत्य से प्रणव की धारणा द्वारा पञ्चभूतों पर पूर्ण अधिकार प्राप्त होता है॥३२॥
क्रमशः पंच तत्त्व पृथ्वी – जल में, जल – अग्नि में, अग्नि – वायु में, वायु – आकाश में, आकाश – ॐ में रूपांतरित होते जाते हैं @ प्रतिप्रसवन। प्राणों का उर्ध्वगमन @ कुण्डलिनी जागरण।
साढ़े तीस अङ्गुल लम्बा प्राण श्वास के रूप में जिसमें प्रतिष्ठित है, वही इस प्राण वायु का वास्तविक आश्रय है। यही कारण है कि इसे प्राण के रूप में जाना जाता है। जो बाह्य प्राण है, उसे इन्द्रियों के द्वारा देखा जाता है॥३३॥
इस बाह्य प्राण में एक लाख तेरह सहस्र छ: सौ अस्सी नि:श्वासों का आवागमन एक दिन एवं रात्रि में होता है॥३४॥
आदि प्राण का निवास हृदय क्षेत्र में, अपान का निवास गुदा स्थान में, समान का नाभि प्रदेश में एवं उदान का निवास कण्ठ प्रदेश में है॥३५॥
व्यान समस्त अङ्ग-प्रत्यङ्गों में व्यापक होकर सदैव प्रतिष्ठित रहता है। अब इसके पश्चात् समस्त प्राण आदि पाँचों वायुओं के रंग का क्रमानुसार वर्णन किया जाता है॥३६॥
इस प्राण वायु को लाल रंग की मणि के सदृश लोहित वर्ण की संज्ञा प्रदान की गई है। अपान वायु को गुदा के बीचो-बीच इन्द्रगोप-बीर बहूटी नामक गहरे लाल रंग का माना गया है॥३७॥
नाभि के मध्य क्षेत्र में समान वायु स्थिर है। यह गो-दुग्ध या स्फटिक मणि की भाँति शुभ्र कान्तियुक्त है। उदान वायु का रंग धूसर अर्थात् मटमैला है और व्यान वायु का रंग अग्निशिखा की भाँति तेजस्वी है॥३८॥
जिस श्रेष्ठ योगी अथवा साधक का प्राण इस मण्डल का बेधन कर मस्तिष्क के क्षेत्र में प्रविष्ट कर जाता है, वह अपने शरीर का जहाँ कहीं भी परित्याग करे, पुनः जन्म नहीं लेता अर्थात् जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है, यही उपनिषद् है॥३९॥
जिज्ञासा समाधान
प्राणों का उर्ध्वगमन @ षट्-चक्र दर्शन बेधन @ कुण्डलिनी जागरण।
षट्-चक्र, शक्ति केन्द्रों @ office. आवश्यकता व उपयोगिता अनुसार आफिस का चुनाव करके control & management किया जा सकता है। अधिकारी के पदोन्नति संग आफिस का स्तर higher होता जाता है और finally सर्वोच्च Headquarters में पदासीन होकर सारे duties संपन्न किये जाते हैं। साथ ही साथ जरूरत के अनुसार field का दौरा भी कर लिया जाता है।
प्राण तत्व एक है पर प्राणी के शरीर में उसकी क्रियाशीलता के आधार पर कई भागों में विभक्त किया गया है। मानव शरीर में प्राण 10 भागों में विभक्त माना गया है। 5 प्राण व 5 उपप्राण। पाँच प्राण – पाँच देव पर गुरूदेव के साहित्य का स्वाध्याय किया जा सकता है। पाँच प्राणों की साधना – पंचकोशी साधना के माध्यम से संपन्न की जाती है।
जीव शरीर की अकर्मण्यता, मृत्यु समान है। आत्मा अकर्ता हैं। जीवात्मा के दो उद्देश्य – 1. स्वयं को जानना (आत्मज्ञान) व 2. धरा को स्वर्ग बनाना (निष्काम कर्म)। जिनके संगम से भक्तियोग लभ्य होते हैं।
पंचकोश, चेतनात्मक आवरण हैं। स्थूल शरीर से प्राण निकलने (देहावसान/ मृत्यु) के बाद भी ये चेतनात्मक आवरण साथ जाते हैं। प्रज्ञोपनिषद् में मरणोत्तर प्रकरण का स्वाध्याय कर जिज्ञासा शांत की जा सकती है।
आकाश तत्त्व को बढ़ाने का अर्थ ज्ञान में उत्तरोत्तर वृद्धि है। प्रातः बिस्तर छोड़ने के बाद ऊषापान alongwith स्वाध्याय को नियमित daily routine में शामिल करने से आकाश तत्त्व में अभिवृद्धि की जा सकती है। इसके शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक तीनों लाभ @ “ओजस्, तेजस् व वर्चस” में अभिवृद्धि की जा सकती है।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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