Granthi Bhedan
PANCHKOSH SADHNA – Gupt Navratri Sadhna – Online Global Class – 19 Jul 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
SUBJECT: ग्रंथि भेदन Theory & Practical
Broadcasting: आ॰ नितिन जी
श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी
कठोपनिषद् में यमाचार्य ने नचिकेता को तीन अग्नि (त्रिनचिकेता) विद्या का ज्ञान दिया है।
त्रिणाचिकेतस्त्रयमेतद्विदित्वा य एवं विद्वांश्चिनुते नाचिकेतम्। स मृत्यृपाशानृ पुरत: प्रणोद्य शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥१८॥ भावार्थ: जो विद्वान् इस त्रिनचिकेता अग्नि के त्रय को जानकर नचिकेत अग्नि का चयन करता है, वह मृत्यु के पाश को तोड़ कर शोक से पार हो जाता है। और स्वर्गलोक में आनंदित होता है॥
गुरूदेव ने इस अग्नि के त्रय को ओजस् (स्थूल शरीर – प्राण तत्त्व – प्राणाग्नि), तेजस् (सुक्ष्म शरीर – मनस् तत्त्व – जीवाग्नि + योगाग्नि) व वर्चस् (कारण शरीर – आत्म तत्त्व – आत्माग्नि + ब्रह्माग्नि) का नाम दिया है।
ओजस् – अन्नमयकोश क्रियायोग ‘आसन, उपवास, तत्त्वशुद्धि व तपश्चर्या’, संतुलित आहार (ऋतभोक्, मितभोक् व हितभोक्) व विहार (इन्द्रिय संयम, विचार संयम, समय संयम व अर्थ संयम), आयुर्वेदिक औषधियों के सेवन से आरोग्य, स्वास्थ्य संवर्धन किया जा सकता है।
तेजस् – प्राणमयकोश क्रियायोग (प्राणायाम, बंध व मुद्रा) व मनोमयकोश क्रियायोग (जप, ध्यान, त्राटक व तन्मात्रा साधना), स्वाध्याय व सत्संग आदि द्वारा तेजस्विता धारण किया जा सकता है।
वर्चस् – विज्ञानमयकोश व आनंदमयकोश क्रियायोग, सेवा @ भक्ति @ निःस्वार्थ प्रेम @ आत्मीयता द्वारा वर्चस् धारण किया जा सकता है।
विज्ञानमय कोश में हमें 3 सुक्ष्म बन्धन – ग्रन्थियां, ‘रूद्र ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि व ब्रह्म ग्रन्थि’ बांधे रखती हैं। इन्हें तीन गुण – तम (रूद्र ग्रन्थि), रज (विष्णु ग्रन्थि) व सत् (ब्रह्म ग्रन्थि) भी कह सकते हैं। इन तीनों गुणों से अतीत हो जाने पर, ऊंचा उठ जाने पर हम शांति और आनंद (peace and bliss) के अधिकारी होते हैं। यह बन्धन केवल शरीरधारियों में ही नहीं प्रत्युत् भौतिक शरीर ना होने पर भी देव, गंधर्व, यक्ष, भूत, पिशाच आदि योनियों में भी बांधे रखते हैं।
इन तीनों ग्रन्थियों को खोलने/भेदने/जागरण को ध्यान में रखने हेतु तीन तार का यज्ञोपवीत (जनेऊ) कंधे पर धारण किया जाता है। अर्थात् ‘तम, रज व सत’ के तीन गुणों द्वारा ‘स्थूल, सुक्ष्म व कारण शरीर’ बने हुए हैं। जनेऊ के अंत में तीन ग्रन्थियां (गांठें) लगाईं जाती हैं। इसका तात्पर्य यह है कि ‘जीव’ – रूद्र ग्रन्थि विष्णु ग्रन्थि व ब्रह्म ग्रन्थि से बंधा पड़ा है। इन तीनों ग्रन्थियों को खोलने का नाम ही ‘पितृ ऋण, ऋषि ऋण व देव ऋण’ है।
व्यवहारिक जगत में तम को सांसारिक जीवन, रज को व्यक्तिगत जीवन व सत् को आध्यात्मिक जीवन कह सकते हैं।
दार्शनिक दृष्टिकोण से तम् – शक्ति, रज – साधन व सत् – ज्ञान के अर्थों में ले सकते हैं। ये ग्रन्थियां जब सुप्त अवस्था (न्युनता, विकृत अवस्था) में रहती हैं तब व्यक्ति ‘अशक्ति, अभाव व अज्ञान’ @ ‘वासना, तृष्णा व अहंता’ वश साधारण, दीन हीन अवस्था में कष्ट भोगता रहता है। जब इन तीनों (शक्ति – तम, साधन – रज, ज्ञान – सत्) की स्थिति संतोषजनक @ संतुलित होती है तो हम इसे त्रिगुणातीत अवस्था प्राप्त होती हैं। गायत्री त्रिपदा हैं। ‘ज्ञान, कर्म, भक्ति’ @ ‘ब्रह्मा, विष्णु, महेश’ @ ‘महासरस्वती, महालक्ष्मी, महाकाली’ की ‘उपासना, साधना, अराधना’ से पूर्णता प्राप्त की जा सकती है। गायत्री साधक का चिंतन – उत्कृष्ट, चरित्र – आदर्श/ प्रखर व व्यवहार – शालीन होते हैं।
साधक की जब विज्ञानमयकोश में स्थिति होती है तो उसे ऐसा अनुभव होता है मानो उसके भीतर तीन कठोर, गठीली, चमकदार, हलचल करती हुई हल्की गांठें हैं:-
१. मूत्राशय के समीप – रूद्र ग्रन्थि (महाकाली – क्लीं) की शाखा ग्रन्थियां – मूलाधार चक्र व स्वाधिष्ठान चक्र।
२. अमाशय के उर्ध्व भाग में – विष्णु ग्रन्थि (महालक्ष्मी – श्रीं) की शाखा ग्रन्थियां – मणिपुर चक्र व अनाहत चक्र।
३. मस्तिष्क मध्य केन्द्र में – ब्रह्म ग्रन्थि (महासरस्वती – ह्लीं) की शाखा ग्रन्थियां – विशुद्धि चक्र व आज्ञा चक्र।
हठयोग की विधा में षट्चक्रों का वेधन (जागरण) किया जाता है।
तपश्चर्या से रूद्र ग्रन्थि, विष्णु ग्रन्थि व ब्रह्म ग्रन्थि पकती अर्थात् परिपाक होती हैं। यौगिक क्रियाओं में तीनों ग्रन्थियों को भेदन/ खोलने (जागरण) के लिए उस ग्रन्थि में निवास करने वाली बीज शक्तियों (क्लीं, श्री व ह्लीं) का संचार करना होता है।
मूलबंध लगाकर केंचुकी द्वारा (अश्वनी मुद्रा/ शक्तिचालिनी मुद्रा) अपान व कूर्म प्राण के आघात से क्लीं बीज जागृत होती है अर्थात् रूद्र ग्रन्थि खुलती है।
जालंधर बंध लगाकर पूरक प्राणायाम द्वारा समान व उदान प्राणों द्वारा दबाकर श्रीं बीज जागृत होती है अर्थात् विष्णु ग्रन्थि खुलती है।
उड्डियान बंध लगाकर व्यान व धनंजय प्राणों द्वारा ब्रह्म ग्रन्थि को पकाया जाता है।
षट्चक्र बेधन का हठयोग सम्मत विधान व महायोग का ग्रन्थि भेद दोनों ही समान स्थिति हैं। साधक अपनी स्थिति के अनुसार दोनों को अपनाते हैं और दोनों से ही विज्ञानमयकोश का परिष्कार होता है।
जिज्ञासा समाधान
नाभि चक्र पर ध्यान करते समय हमें मूलाधार, स्वाधिष्ठान व मणिपुर चक्र के cleaning and healing का भाव रखना चाहिए। कर्मेंद्रियां, ज्ञानेंद्रियां, पाचन तंत्र आदि स्वस्थ हो रहे हैं।
क्रियायोग के अभ्यास दौरान विचारों के त्राटक (चिंतन मनन निदिध्यासन) meditational अभ्यास द्वारा ‘वासना, तृष्णा व अहंता’ की गांठें फोड़ी जा सकती हैं। प्रातः ऊषापान संग स्वाध्याय के उपरांत योगाभ्यास में विचारों द्वारा cleaning and healing संभव बन पड़ता है। तन्मात्रा साधना के महती प्रभाव हैं। मन शांत/ संतुलित होने पर उच्चस्तरीय ध्यान @ भाव समाधि लभ्य होते हैं।
कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना …। आत्मबोध व तत्वबोध की दैनंदिन साधना से स्वमूल्यांकन की कसौटी विकसित की जा सकती है तदनुरूप … सत्प्रवृत्ति संवर्धनाय दुष्प्रवृत्ति उन्मूलनाय आत्मकल्याणाय लोककल्यणाय वातावरण परिष्कराये।
‘महामुद्रा + महाबंध + महाबेध‘ के समन्वित अभ्यास क्रम में ग्रन्थि भेदन किया जाता है। जिसमें तीन शरीर (स्थूल, सुक्ष्म व कारण) के तीन सूर्य का ध्यान नाभि मध्य, हृदय मध्य, मस्तिष्क मध्य किया जा सकता है।
शक्तिचालिनी मुद्रा में काम ऊर्जा का उर्ध्वगमन किया जाता है। इसमें प्राणन अपानन की क्रिया संपन्न होती है। इसे ध्यान परक बनाकर लाभ में उत्तरोत्तर वृद्धि की जा सकती हैं।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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