Tanmatra Sadhna
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 31 Jul 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
SUBJECT: तन्मात्रा साधना
Broadcasting: आ॰ अमन जी
आ॰ शरद निगम जी (चित्तौड़, राजस्थान)
गायत्री का तृतीय मुख – मनोमयकोश (योगाग्नि)। मनोमयकोश अनावरण/ जागरण/ उन्नयन/ उज्जवल बनाने के ४ साधन – जप, ध्यान, त्राटक व तन्मात्रा साधना।
पंच तत्त्वों की जो सूक्ष्म शक्तियां हैं उनकी इन्द्रिय जनित अनुभूति को ‘तन्मात्रा‘ कहते हैं। पंच तन्मात्रायें:-
१. शब्द (तत्व – आकाश, ज्ञानेन्द्रिय – कान)
२. रूप (तत्व – अग्नि, ज्ञानेन्द्रिय – नेत्र)
३. रस (तत्त्व – जल, ज्ञानेन्द्रिय – जीभ)
४. गंध (तत्त्व – पृथ्वी, ज्ञानेन्द्रिय – नाक)
५. स्पर्श (तत्त्व – वायु, ज्ञानेन्द्रिय – स्पर्श)
संसार की विविध पदार्थों में जो हमें मनमोहक आकर्षण (आसक्ति) प्रतीत होता है उनका एक मात्र कारण ‘तन्मात्रा – शक्ति‘ है। मन स्वयं एक इन्द्रिय है। उसका लगाव सदैव तन्मात्राओं की ओर रहता है। मन का विषय ही रसानुभूति है।
हमारा मन, आसक्ति वश @ रसानुभूति हेतु जिन कार्यों को बारंबार दुहराता है वैसी ही हमारी आदतें तदनुरूप स्वभाव व आचरण बनता चला जाता है। जो हमारे चित्त में संस्कार के रूप में जमा होता जाता है। चित्त परिष्कृत परिमार्जित ना हो तो हम स्वतः अचिंत्य चिंतन व अयोग्य आचरण में लिप्त रहते हैं।
चित्त के शोधन परिमार्जन में तन्मात्रा साधना की भूमिका अहम है। शब्द, रूप, रस, गंध व स्पर्श का जीवन चलाने में उतना ही उपयोग है जितना की मशीन के पूर्जों में तेल का। इनमें आसक्त होने की आवश्यकता नहीं है।
मन को साधनात्मक रसानुभूति (आत्मसाधना) में लगाया जा सकता है जो चिरस्थाई आनंद का मार्ग प्रशस्त करती हैं।
गायत्री महाविज्ञान में वर्णित छोटी छोटी सरल साधनाओं से तन्मात्रा साधना में आगे बढ़ा जा सकता है। http://literature.awgp.org/book/Super_Science_of_Gayatri/v10.18
आ॰ संजय शर्मा जी (नई दिल्ली)
तन्मात्रा साधना स्वतः चलने वाली दैनंदिन साधना है। APMB के तरह कम समय के अभ्यास से बात नहीं बनती वरन् लंबे निरंतर अभ्यास की आवश्यकता है।
हम नित्य प्रतिक्षण तन्मात्रा शक्ति से रूबरू होते रहते हैं। अभ्यास है उनके प्रति सहजता की जो संभव बन पड़ता है सजगता (जागरूकता) से। सजगता अर्थात् हम आसक्त ना हों। मन को समझाया जाए की तन्मात्रायें की रसानुभूति (विषयानंद) परिवर्तनशील (variable) हैं। अतः अनवरत इसमें रस लेने की प्रवृत्ति खुजली की तरह हो जाती है जितना खुजाओ आनंद तो आता है लेकिन दुर्गति – दुर्दशा संग। हमें इससे परे चिरस्थाई आनंद @ अखंडानंद के स्रोत आत्मप्रकाश का साक्षात्कार करना है।
आ॰ भैया ने गंध, रस व स्पर्श तन्मात्रा साधना के व्यक्तिगत प्रयोगों से “काम बीज का उन्नयन – ज्ञान बीज में परिवर्तन” को अपने अनुभवों से सर्वसमक्ष रखा है।
आ॰ शरद निगम जी व आ॰ संजय शर्मा जी को नमन व हृदय से आभार।
जिज्ञासा समाधान (श्री लाल बिहारी सिंह ‘बाबूजी’)
मन की संकीर्णता ‘क्षुद्रता‘ @ जीव भाव को ‘महानता‘ @ समष्टि भाव से जोड़ देने से बात बनती है।
जब अंतरात्मा का स्वार्थ विकसित होकर परमार्थ में बदल जाता है। तो इसे ‘स्व’ की सुपर इगो में, चेतन की सुपर चेतन में परिणति कहते हैं। योगी इसी मनःस्थिति में रमण करते हैं।
जीवात्मा की सामर्थ्य सीमित है – परमात्मा की असीम। एक लघु है दूसरा विभु। लघु के विभु, बिन्दु के सिन्धु, सीमित के असीम और चेतना के महाचेतना में विकसित होने की प्रक्रिया जिस माध्यम से संपन्न होती है उसे ‘योग’ कहते हैं।
तन्मात्रा शक्ति के सदुपयोग को हम अनासक्त कर्मयोग से समझ सकते हैं। ‘कर्म’ आत्मा व परमात्मा को एकाकार कर देने वाला ‘योग’ तब बन जाता है जब वह निष्काम हों। @ तेन त्यक्तेन भुंजीथाः। अर्थात् – संसार को भोगें, परन्तु निर्लिप्त होकर, निस्संग होकर, निष्काम भाव से।
‘अध्यात्म‘ को जीवन में धारण करने का सहज सुत्र है – आत्मीयता का प्रसार।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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