Pragyakunj, Sasaram, BR-821113, India
panchkosh.yoga[At]gmail.com

Soham Sadhna and Atmanubhti Yoga

Soham Sadhna and Atmanubhti Yoga

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 27 Aug 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

Please refer to the video uploaded on youtube.

SUBJECT:  सोऽहम साधना व आत्मानुभूति योग

Broadcasting: आ॰ अमन जी

आ॰ गोकुल मुन्द्रा जी (कलकत्ता, प॰ बंगाल)

विज्ञानमय कोश (Cosmic body) का स्थान ‘हृदय’ माना जाता है, क्योंकि यह भावना का उद्गम स्थान माना गया है। अतः हम इसे भाव संवेदना का स्तर कह सकते हैं। आत्मभाव का आत्मीयता का विस्तार इसी क्षेत्र में होता है। अन्तःकरण विज्ञानमय कोश‌ का ही नाम है। उत्कृष्ट दृष्टिकोण और आदर्श क्रियाकलाप अपनाने की‌ महानता इसी क्षेत्र में विकसित होती है। दयालु, उदार, सज्जन, सहृदय, संयमी, शालीन और परोपकार परायण का अन्तःकरण ही विकसित होता है।
चेतना का यह परिष्कृत स्तर – सुपर ईगो, उच्च अचेतन आदि नामों से जाना जाता है। इसकी गति सुक्ष्म जगत में होती है। अचेतन ही वस्तुतः व्यक्ति का मूलभूत आधार होता है। अतीन्द्रिय क्षमता का जागरण व उसका सदुपयोग परिष्कृत विज्ञानमय कोश‌ के लिए ही संभव होता है।

लाभ:-
१. अतीन्द्रिय क्षमता
२. दिव्य दृष्टि
३. दैवीय गुण
४. सज्जनता, सहृदयता

उपाय :-
१. सोऽहं साधना
२. आत्मानुभूति योग
३. स्वर संयम
४. ग्रन्थि-भेदन

सोऽहम साधना (अजपा जाप):-
धारणा – हृदय स्थित सूर्य-चक्र के प्रकाश बिन्दु में आत्मा के तेजोमय स्फूल्लिंग
पूरक  – (सूक्ष्म ध्वनि) सो ॊ ॊ ॊ (अनुभव करें कि यह तेज बिन्दु  परमात्मा का प्रकाश है ‘स’ अर्थात् परमात्मा @ शिव भाव)
कुंभक (अंतः व बाह्य) – (सूक्ष्म ध्वनि) अ ऽ ऽ ऽ (परिवर्तन के अवकाश का प्रतीक @ प्रकृति)
रेचक – (सूक्ष्म ध्वनि) हं ….. (भावना करें कि यह मैं हूं @ जीव भाव)
इन तीनों ध्वनियों पर ध्यान केंद्रित करने  से, अजपा जाप की “सोऽहं” साधना होने लगती है।

स्कन्द उपनिषद् – जीवः शिवः शिवो जीवः स जीवः केवलः शिवः । तुषेण बद्धो व्रीहिः स्यात्तुषाभावेन तण्डुलः॥६॥ एवं बद्धस्तथा जीवः कर्मनाशे सदाशिवः । पाशबद्धस्तथा जीवः पाशमुक्तः सदाशिवः॥७॥ अर्थात् जीव ही शिव है और शिव ही जीव है। वह जीव विशुद्ध शिव ही है। (जीव-शिव) उसी प्रकार है, जैसे धान का छिलका लगे रहने पर व्रीहि और छिलका दूर हो जाने पर उसे चावल कहा जाता है॥६॥ इस प्रकार बन्धन में बँधा हुआ (चैतन्य तत्त्व) जीव होता है और वही (प्रारब्ध) कर्मों के नष्ट होने पर सदाशिव हो जाता है अथवा दूसरे शब्दों में पाश में बँधा जीव ‘जीव’ कहलाता है और पाशमुक्त हो जाने पर सदाशिव हो जाता है॥७॥

सोऽहंसाधना की उन्नति जैसे जैसे होती जाती है, वैसे ही वैसे विज्ञानमय कोश परिष्कृत होता जाता है। आत्मज्ञान बढ़ता है और धीरे धीरे आत्मसाक्षात्कार की स्थिति निकट आती चलती है।
आगे चलकर सांस पर ध्यान जमाना छूट जाता है और केवल मात्र हृदय स्थित सूर्य-चक्र में विशुद्ध ब्रह्म तेज के ही दर्शन होते हैं। उस समय समाधि की सी अवस्था हो जाती है।

सोऽहम् ध्वनि को निरन्तर करते रहने से उसका एक शब्द चक्र बन जाता है जो उलट कर हंस सदृश प्रतिध्वनित होता है। इसी आधार पर उस साधना का एक नाम ‘हंस-योग भी रखा गया हैं। हंस-योग की परिपक्वता से साधक ब्राह्मी स्थिति का अधिकारी हो जाता है।

आत्मानुभूति – योग
शिथिलासन
आत्मदर्शन
आत्मबोध व तत्त्वबोध की दैनंदिन साधना

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ भावार्थ – परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है। यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उसी पूर्ण से ही उत्पन्न हुआ है। उस पूर्ण में से पूर्ण को निकाल देने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है।

जिज्ञासा समाधान (श्री लाल बिहारी सिंह ‘बाबूजी’)

गोकुल भाई साहब को हार्दिक आभार। व्यवहारिक अध्यात्म इनकी विशेषता है। हम सभी हेतु प्रेरणास्रोत।

जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत तिन देखी तैसी….. अर्थात जिसकी जैसी दृष्टि होती है, उसे वैसी ही मूरत नज़र आती है।
परदोष दर्शन (महाशूल) –  जिनकी निंदा-आलोचना करने की आदत हो गई है, दोष ढूंढने की आदत पड़ गई है, वे हज़ारों गुण होने पर भी दोष ढूंढ लेते हैं!
दुनिया में ऐसी कोई भी चीज नहीं है, जो पूरी तरह सर्वगुण संपन्न हो या पूरी तरह गुणहीन हो। एक न एक गुण या अवगुण सभी में होते हैं।
मात्र ग्रहणता की बात है कि आप क्या ग्रहण करते हैं, गुण या अवगुण?
नीर – क्षीर की विवेकपूर्ण दृष्टिकोण – हंस‌ की विशेषता है।
आत्मीयता के विस्तार से हमें दिव्य दृष्टि व अतीन्द्रिय क्षमता लभ्य होते हैं।
आत्मज्ञान – आत्मदर्शन – आत्मानुभव‘ के चरणों से गुजरकर परमात्म दर्शन संभव बन पड़ता है।
आत्मशोधन + परमार्थ।

सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा॥ आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥1॥ भावार्थ: ‘सोऽहमस्मि’ (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखंड (तैलधारावत कभी न टूटने वाली) वृत्ति है, वही (उस ज्ञानदीपक की) परम प्रचंड दीपशिखा (लौ) है। (इस प्रकार) जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है,॥1॥

योग साधना के एकांत अभ्यास के practical को दैनंदिन कर्मों में प्रयुक्त करने के उपरांत अनुभव रूपी संपदा प्राप्त होती है जो बोधत्व में मददगार हैं। ये नित नये आयाम की यात्रा करती हैं। ‘अद्वैत’ की यात्रा है। 
चरैवेति चरैवेति मूल मंत्र है अपना till अद्वैत.

उपनिषद् स्वाध्याय में जो self intuition को छूएं (जागरण) वो ही गुरू (प्रकाश – ज्ञानामृत) तुल्य बन जाती हैं।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

No Comments

Add your comment