Shvetashvatara Upanishad – 2
PANCHKOSH SADHNA – Navratri Sadhna Special Online Global Class – 08 Oct 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
SUBJECT: श्वेताश्वतरोपनिषद्-2
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी
टीका वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)
श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह (बाबूजी)
श्वेताश्वतर उपनिषद् – द्वितीय अध्याय में कुल 17 सुत्र हैं। प्रथम अध्याय में उपनिषद् के ऋषि आत्म – परमात्म साक्षात्कार हेतु ‘ध्यान-योग’ की विधा को समक्ष रखा।
वह सविता देवता हमारे मन तथा बुद्धि को परमात्मा में लगाते हुए हमारी इन्द्रियों को पार्थिव पदार्थों से उपर उठाकर उसमें दिव्य अग्नि का प्रकाश स्थापित करें, ताकि हम जगत् के सार तत्त्व का अवलोकन कर सके॥१॥
संत/ कवि गोस्वामी तुलसीदास जी रामचरित मानस के सुन्दरकाण्ड में कहते हैं “निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।” निर्विषय/अनासक्त/ निष्काम मन – शुद्ध मन (शांत, सतेज व प्रसन्न) होता है। गायत्री महामंत्र के २४ अक्षरों का शरीर में मर्मस्थान/ शक्ति केन्द्र की साधना ~ तप + योग।
हम सविता देवता की उपासना के निमित्त यज्ञादि कर्म मनोयोग पूर्वक संपन्न करें। इस प्रकार स्वर्गीय आनन्द की प्राप्ति के लिए यथाशक्ति प्रयत्न करें॥२॥
सविता सर्वभूतानां सर्वभावश्च सूयते। गीता में 14 प्रकार के यज्ञ वर्णित हैं। ज्ञान-यज्ञ की ज्योति जलाने, हम घर घर में जायेंगे। मनोयोग अर्थात् रूचि पूर्वक।
स्वर्ग तथा आकाश में गमन करने वाला, बृहद् प्रकाश करने वाला वह सविता देव मन तथा बुद्धि से देवों को संयुक्त करके उन्हें प्रकाश की ओर प्रेरित करें॥३॥
प्रचोदयात्।
जिसमें सभी ब्राह्मण आदि अपने मन तथा चित्त को लगाते हैं, जिनके निमित्त अग्निहोत्र आदि का विधान किया गया है, जो सभी प्राणियों के विचारों को जानता है, उस सविता देव की हम महती स्तुति करें॥४॥
हे मन और बुद्धि ! तुम्हारे और सबके आदि कारण ब्रह्म से मैं नमस्कार के द्वारा संयुक्त होता हूँ। मेरा श्लोक विद्वान के यश के समान सर्वत्र फैल जाए। दिव्य लोको में वास करने वाले सभी अमृतरूप परमात्मा के अंशधर पुत्रगण मेरी बात सुनें॥५॥
तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु। मन को best friend बनावें। मन से बातचीत की जाए और उसे बुद्धि (विवेक) का अनुगामी बनाया जाए। बुद्धि को उस महत तत्त्व का अनुगामी बनाया जाए।
जहाँ अग्नि का मंथन किया जाता है, जहाँ प्राण वायु का विधिवत निरोध किया जाता है और जहाँ सोमरस का प्रखर आनंद प्रकट होता है, वहाँ मन सर्वथा शुद्ध हो जाता है॥६॥
प्राण का उर्ध्व गमन – शक्तिचालिनी मुद्रा। सोमरस का प्रखर आनंद – खेचरी मुद्रा।
सविता देवता के द्वारा प्रेरित होकर, हमें सबके आदिकारण परमात्मा की आराधना करनी चाहिए। तुम उसी परमात्मा का आश्रय ग्रहण करो। इससे तुम्हारे पूर्व कर्म भी बन्धन प्रदायक नहीं होंगे॥७॥
योगस्थः कुरू कर्माणि ….। ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्वयक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ।। अर्थात् जो आसक्ति त्याग कर सभी कर्मों को ब्रह्म को समर्पित करके, निष्काम कर्म करता है, वह जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता ।
विद्वान पुरूष को चाहिए कि वह सिर, ग्रीवा और वक्षःस्थल इन तीनों को सीधा व स्थिर रखें।वह उसी दृढ़ता के साथ संपूर्ण इन्द्रियों को मानसिक पुरूषार्थ कर अन्तः करण में सन्निविष्ट करें और ॐकार रूपी नौका द्वारा संपूर्ण भयावह प्रवाहों से पार हो जाए॥८॥
रीढ़ की हड्डी (देवयान मार्ग) इसे सीधी रखना चाहिए।
विद्वान पुरूष को चाहिए आहार-विहार की क्रियाओं को विधिवत सम्पन्न करते हुए प्राणायाम के द्वारा जब प्राण क्षीण हो जाये, तब उसे नासिका से बाहर निकाल दे। जिस प्रकार सारथी दुष्ट अश्वों से युक्त रथ को अत्यंत सावधानी से लक्ष्य की ओर ले जाता है, उसी प्रकार विद्वान पुरूष इस मन को अत्यंत जागरूक होकर वश में किये रहे॥९॥
अनुशासन, नियमितता, सहजता, सजगता, श्रद्धा व प्रज्ञा आदि के संग क्रियायोग प्राणायाम का अभ्यास कर सुषुम्ना @ साक्षी भाव में स्थित होना।
साधक को चाहिए की वह समतल व पवित्र भूमि, कंकड़, अग्नि तथा बालू से रहित, जल के आश्रय और शब्द आदि की दृष्टि से मन के अनुकूल, नेत्रों को पीड़ा न देने वाले गुहा आदि आश्रय स्थल में मन को ध्यान के निमित्त अभ्यास में लगाए॥१०॥
सहजतापूर्ण अभ्यास स्थली।
योग साधना प्रारम्भ करने पर ब्रह्म की अभिव्यक्ति स्वरूप सर्वप्रथम कोहरा, धुआँ, सूर्य, वायु, जुगनू, विद्युत, स्फटिक, चन्द्रमा आदि बहुत से दृश्य योगी के समक्ष प्रकट होते हैं॥११॥
साधनात्मक अनुभूतियां।
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश – इन पाँचों महाभूतों का सम्यक् उत्थान होने पर, इनसे सम्बन्धित पाँच योग विषयक गुणों की सिद्धि हो जाने पर उसे योगाग्निमय शरीर प्राप्त हो जाता है, उसे न रोग है, न जरा है और न ही मृत्यु ॥१२॥
शरीर की स्थूलता का कम हो जाना, नीरोग होना, विषयों में आसक्त ना होना, शरीर में कान्ति तेजस्विता होना, स्वर की मधुरता, शुभ गन्ध का होना और मल-मूत्र कम जो जाना, ये सब योग की पहली सिद्धि है॥१३॥
जिस प्रकार मिट्टी से मलिन हुआ रत्न या आभुषण शोधित होने पर प्रकाशमय होकर चमकने लगता है, उसी प्रकार देहधारी जीव आत्म तत्त्व का साक्षात्कार करके शोकरहित, अद्वितीय और कृतकृत्य हो जाता है॥१४॥
जब योग-साधना से युक्त साधक दीपक के सदृश आत्मतत्त्व के द्वारा ब्रह्म तत्त्व का साक्षात्कार करता है, तब वह अजन्मा, निश्चल, सम्पूर्ण तत्त्वों से विशुद्ध परमदेव को जानकर संपूर्ण विकार रूप बन्धनों से मुक्ति पा लेता है॥१५॥
वही एक परमात्मा संपूर्ण दिशाओं – अवान्तर दिशाओं में अनुगत है, वहीं सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ रूप में प्रकट हुआ था, वही संपूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड में अन्तःस्थित है, वही इस जगत् रूप में उत्पन्न हुआ है और भविष्य में भी उत्पन्न होने वाला है। यही सम्पूर्ण जीवों में स्थित है और संपूर्ण पक्षों वाला है॥१६॥
जो परमात्मा अग्नि में है, जो जल में है, जो समस्त लोकों में संव्याप्त है, जो ओषधियों तथा वनस्पति में है, उस परमात्मा के लिए नमस्कार है॥१७॥
गायत्री पंचकोशी साधना के 19 क्रियायोग के ~ सजल श्रद्धा – प्रखर प्रज्ञा युक्त, सहज, सजग व नियमित अभ्यास से उपरोक्त उपलब्धियों का वरण करते हुए आत्म – परमात्म साक्षात्कार किया जा सकता है।
जिज्ञासा समाधान
नवरात्रि साधना सत्र में निम्नलिखित तथ्यों को प्राथमिकता दी जा सकती है:-
1. आहार विहार संयम/ शुद्धि (इन्द्रिय संयम, समय संयम, विचार संयम व अर्थ संयम):-
(क) फलाहार, रसाहार, सब्जियों का सेवन। रजोगुणी व तमोगुणी आहार से बचा जाए।
(ख) APMB आदि का अभ्यास।
(ग) मंत्र जप – ध्यान लघु अनुष्ठान।
(घ) स्वाध्याय, सत्संग व ईश्वर प्राणिधान।
रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी “सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा, दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा। आतम अनुभव सुख सुप्रकासा, तब भव मूल भेद भ्रम नासा।।
पंचतत्वों के योग विषयक गुण:-
(क) पृथ्वी – सहिष्णुता, धैर्य व क्षमा आदि।
(ख) जल – शीतलता व मधुरता आदि।
(ग) अग्नि – तेजस्विता व बलदायिनी जीवनी शक्ति आदि।
(घ) वायु – प्राणवायु, गतिशीलता व सुगंधि आदि।
(घ) आकाश – निष्काम/ अनासक्त/साक्षी चैतन्य, निर्विकार, असीमित, अपरीमित, अभेदता आदि।
एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति @ सुक्ष्मीकरण साधना से इसकी अनुभूति की जा सकती है। यह शब्दातीत है। इससे छूते शब्दों को समक्ष रखने का प्रयास किया जा सकता है @ नेति नेति।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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