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Shvetashvatara Upanishad – 6

Shvetashvatara Upanishad – 6

PANCHKOSH SADHNA – Navratri Sadhna Special Online Global Class – 12 Oct 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ।

SUBJECT: श्वेताश्वतरोपनिषद्-6

Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी

टीका वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)

श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह (बाबूजी)

श्वेताश्वतर उपनिषद् का अंतिम अध्याय, षष्ठोध्यायः के शिक्षण पर आज हम चिंतन मनन मंथन करें।

आकाश तत्त्व के भीतर एक और आकाश है जिसे ‘मन‘ की संज्ञा दी गई है। मन निरंतर विचारों (तरंगों) का वाष्पीकरण करता रहता है।
पतंजलि ऋषि कहते हैं – “योगश्चित्त वृत्ति निरोधः” अर्थात् चित्तवृत्ति का निरोध योग है। ”युज्यते असौ योग:” अर्थात् जो युक्त को करें अर्थात् जोड़े वह योग है। इस स्थिति के लिए मन का “तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु” आवश्यक है।

जन्म-जन्मांतर के योनियों के (वंशानुगत) संस्कार सुक्ष्म रूप में चित्त में विद्यमान रहते हैं । इनके शोधन (cleaning) और प्राण शक्ति के संवर्धन (healing) की आवश्यकता होती है । पंचकोश अनावरण में हम 19 क्रियायोगों के अभ्यास अर्थात् cleaning & healing process द्वारा अन्तःकरण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार) के परिष्कृत अर्थात् विशुद्ध होने पर आत्मप्रकाश तक पहुंच बनती है । और आत्मप्रकाश में आत्मा स्वयं का अनावरण करती है @ सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा, दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा । आतम अनुभव सुख सुप्रकासा, तब भव मूल भेद भ्रम नासा ॥1॥

कुछ विद्वान मनुष्य के स्वभाव को जन्म चक्र का कारण बताते हैं, दूसरे कुछ लोग काल को इसका कारण बताते हैं, परन्तु ये लोग यथार्थता से बहुत दूर मोहग्रस्त स्थिति में हैं । वास्तव में यह परमात्म देव की ही महिमा है, जिसके द्वारा इस लोक में यह ब्रह्मरूप (सृष्टि) चक्र घुमाया जाता है ॥1॥
उपनिषद्यते-प्राप्यते ब्रह्मात्मभावोऽनया इति उपनिषद्।” अर्थात् जिससे ब्रह्म का साक्षात्कार किया जा सके, वह उपनिषद् है।
स्वामी विवेकानंद जी नित्य उपनिषद् स्वाध्याय करते। वो कहते कि उन्हें उपनिषद् स्वाध्याय के उपरांत ऐसा प्रतीत होता की भोजन से पेट भर गया हो।
श्वेताश्वतर ऋषि उपनिषद् में इस सृष्टि चक्र का कारण परमात्म देव की महिमा बताते हैं @ सबका मालिक (supreme boss) एक ही है ।

जिसके द्वारा यह समस्त जगत सदैव व्याप्त रहता है, जो ज्ञानस्वरूप, काल का भी काल, सर्वगुणसम्पन्न और सर्वज्ञ है, उसके ही अनुशासन में यह सम्पूर्ण कर्मचक्र घूम रहा है । पृथ्वी, जल, तेज, वायु तथा आकाश – इन पञ्चतत्त्वों का चक्र भी उसी के हाथ में है – ऐसा चिन्तन करते रहना चाहिए ॥2॥
ईशानुशासनं स्वीकरोमि

उस परमात्मा ने कर्मचक्र चला कर, उसका अवलोकन कर आगे चेतन तत्त्व से जड़ तत्त्व का संयोग कराके जगत की रचना की अथवा एक (अविद्या), दो (धर्म व अधर्म), तीन (सत्त्व, रजस् व तमस् गुण) आठ (मन, बुद्धि, अहंकार सहित पंचतत्त्व) प्राकृतिक भेदों से तथा काल एवं सूक्ष्म आन्तरिक गुणों (ममता, अहंता, इच्छा, आसक्ति आदि) के संयोग से इस जगत की रचना की ॥3॥

जो साधक तीन गुणों से व्याप्त कर्मों को आरम्भ करके उन्हें तथा उनके भावों को परमात्मा को अर्पित कर देता है, उन कर्मों का अभाव हो जाता है तथा पूर्वकृत कर्मों का भी नाश हो जाता है । ऐसा होने पर जीवात्मा जड़-जगत से भिन्न सत्ता (परमात्मा) को प्राप्त होता जाता है ॥4॥

वह आदि पुरुष परमात्मा, (प्रकृति का जीव से) संयोग कराने वाले निमित्त के रूप में जाना गया है । यह 3 कालों और 16 कलाओं से परे है । अपने अन्तःकरण में अधिष्ठत उस सर्वरूप और संसार रूप में प्रकट तथा स्तुत्य पुरातन परमात्म देव की उपासना करनी चाहिए ॥5॥

जिससे यह जगत प्रपञ्च में प्रवृत्त होता है, वह (परमात्मा) जगत वृक्ष (चक्र), काल तथा आकार से परे तथा उससे भिन्न है । धर्म के विस्तारक, पाप का नाश करने वाले, उस ऐश्वर्य के स्वामी को जानकर साधक आत्मा में स्थित उस विश्वाधार विराट परमात्मा तथा उसके अमृतस्वरूप को प्राप्त हो जाता है ॥6॥

ईश्वरों के भी परम महेश्वर, देवताओं के परम देव, पतियों के भी परम पति, अव्यक्त से भी परे, संपूर्ण लोक-ब्रह्माण्ड के अधिपति, स्तुति करने योग्य वह परमात्म देव सबसे परे हैं, (ऐसे) परमात्म देव को हम जानते हैं ॥7॥

उस (निराकार परमेश्वर) के शरीर और इन्द्रियाँ नहीं हैं, उसके समान और उससे बड़ा भी कोई नहीं है, उसकी पराशक्ति विविध प्रकार की सुनी जाती है और वह स्वभावजन्य ज्ञानक्रिया और बलक्रिया वाला है ॥8॥

इस जगत में कोई उसका स्वामी नहीं है, उसका कोई शासक नहीं है एवं उसका कोई लिंग भी नहीं है । वह सबका कारण है और इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीवों का अधिपति है । उसका न कोई उत्पत्तिकर्ता है न ही कोई अधिपति है ॥9॥

तन्तुओं द्वारा मकड़ी के समान उस एक परमदेव ने स्वयं ही अपनी प्रधान शक्ति से अपने को आवृत कर लिया है । वह परमात्मा हमें अपने ब्रह्मस्वरूप से एकत्व प्रदान करे ॥10॥
एक ही सत्ता है जो सृजन, पोषण व संहार का कारण है । मकड़ी के तरह जाल निकालना, बुनना व फिर स्वयं में ही समाहित कर लेना ।

सम्पूर्ण प्राणियों में वह एक देव स्थित है । वह सर्वव्यापक, समस्त भूतों का अन्तरात्मा, सबके कर्मों का अधीश्वर, समस्त प्राणियों में बसा हुआ, सबका साक्षी, पूर्ण चैतन्य, विशुद्ध रूप और निर्गुण रूप है ॥11॥
एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति । मूल शक्ति एक – निःसृत शक्ति धारायें अनेक।

जो अद्वितीय परमात्मा सबका अधीश्वर है, जो बहुत से निष्क्रिय जीवों के एक बीज को अनेक रूपों में परिणत कर देता है, उस हृदय गुहा में अवस्थित परमेश्वर जो धीर पुरुष (अनुभूति जन्य दृष्टि से) देखते हैं, उन्हीं को शाश्वत सुख प्राप्त होता है, दूसरों को नहीं ॥12॥

जो परमेश्वर नित्यों में नित्य, चेतनों में चेतन है और एक अकेला ही सम्पूर्ण प्राणियों को उनके कर्मों का भोग प्रदान करता है, उस साँख्य एवं योग द्वारा अनुभूतिगम्य, सबके कारणरूप देव – परमात्मा को जो साधक जान लेता है, वह सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त हो जाता है ॥13॥

वहाँ न तो सूर्य प्रकाशित होता है न चन्द्रमा अथवा तारों का समूह, न ये बिजलियाँ ही प्रकाशित होती है, तो यह अग्नि कैसे प्रकाशित हो सकती है । उस (परमात्मा) के प्रकाशित (विद्यमान) होने से ही (सूर्यादि) सभी प्रकाशित होते है । उसके प्रकाश से ही यह संपूर्ण ब्रह्माण्ड प्रकाशित हैं ॥14॥

इस लोक के मध्य में एक ही हंस (परमात्मा) है, वह जल में सन्निहित अग्नि के समान अगोचर है । उसे जानकर साधक मृत्यु रूपी बन्धनों को पार कर जाता है । इससे भिन्न मोक्ष-प्राप्ति का कोई दूसरा मार्ग नहीं है ॥15॥

जो ज्ञानस्वरूप परमात्मा सम्पूर्ण विश्व का रचयिता, सर्वज्ञ, स्वयं ही जगत की उत्पत्ति का केन्द्र, काल का भी काल, गुणों का समुच्चय और सर्वविद्यावान है । वह पुरुष और प्रकृति का प्रमुख अधिपति, सम्पूर्ण गुणों का नियन्ता, संसार चक्र के बन्धन, स्थिति और मुक्ति का कारण है ॥16॥

वह तन्मय (विश्वरूप अथवा सर्वप्रकाशक परमात्मा), अमृतस्वरूप ईश्वर (नियामक) रूप में स्थित, ज्ञानसम्पन्न, सर्वगत (सबमें चैतन्य रूप से स्थित) और इस लोक का रक्षक है, (वही) इस संपूर्ण जगत का सर्वदा नियामक है; क्योंकि इस जगत का नियंत्रण करने में कोई अन्य समर्थ नहीं है ॥17॥

जो परमात्मा सर्वप्रथम ब्रह्मा को उत्पन्न करता है और उन्हें वेदों का ज्ञान प्रदान करता है । मैं मोक्ष प्राप्ति की अभिलाषा से बुद्धि को प्रकाशित करने वाले उन देव की शरण ग्रहण करता हूँ ॥18॥

जो कलाओं तथा क्रियाओं से रहित, सदा शान्त, निर्दोष, निर्मल, अमृतत्व का श्रेष्ठ सेतुरूप, (धूम्ररहित) प्रदीप्त अग्नि के समान देदीप्यमान है (हम उसकी शरण ग्रहण करते हैं) ॥19॥

जब मनुष्यगण आकाश को चमड़े की भाँति लपेट सकेंगे (जबकि यह असंभव है), तब उस देव को जाने बिना भी दुःखों का अन्त हो सकेगा (यह भी असंभव है) ॥20॥
बिना आत्म-परमात्म साक्षात्कार के त्रिविध दुःखों का अंत/ मुक्ति/ मोक्ष असंभव (impossible) है।

श्वेताश्वतर ऋषि ने तप के प्रभाव से और उस परमात्मा की कृपा से ब्रह्म को जाना तथा ऋषियों द्वारा सेवित उस परम पवित्र ब्रह्मतत्त्व का उन्होंने आश्रम के सुपात्रों को उपदेश दिया ॥21॥
पुरूषार्थ (तप) व ईश्वर प्राणिधान से बोधत्व किया जा सकता है। पुरूषार्थ से पात्रता संवर्धित होता है और पात्रतानुसार ही प्रगति संभव बन पड़ती है । ऋषि परंपरा में आत्मकल्याणाय संग लोककल्याणाय वातावरणपरिष्कराये के आदर्श सन्निहित हैं

उपनिषदों में इस परम गुह्य ब्रह्मविद्या का पूर्वकल्प में उपदेश दिया गया था । जिसका अन्तःकरण रागादि से शान्त न हुआ हो, उसे तथा जो अपना पुत्र या शिष्य न हो (अर्थात् आचार्य के प्रति श्रद्धाभाव न रखता हो), उसे यह गुह्य ज्ञान नहीं देना चाहिए ॥22॥

जिस साधक की परमात्मा में अत्यन्त भक्ति है तथा जैसी परमात्मा में है, वैसी ही गुरु में भी है, उस महान् आत्मा के हृदय में ही ये बताए हुए गूढ़ ज्ञान प्रकाशित होते हैं, ऐसे महात्मा में ही (यह उपनिषद्) ज्ञान प्रकाशित होते हैं ॥23॥
साधक के अनिवार्य गुणों में श्रद्धा-विश्वास, प्रज्ञा व निष्ठा आदि हैं। गुरू अनुशासन में की गई साधना सफल होती है।

साधक को ना ठंडा (इड़ा) ना गर्म (पिंगला) सुषुम्ना @ साक्षी भाव में रहना चाहिए। आवश्यकतानुसार कर्मयोग में ठंडा व गर्म का प्रयोग करते हुए भी साक्षी भाव (अनासक्त/ निष्काम/ निर्लिप्त) में रहना चाहिए ।

न अपेक्षा ना उपेक्षा – आनंद ही आनंद।

जिज्ञासा समाधान

पछतावा भी प्रेरणा देते हैं । प्रायश्चित भाव भी आत्मीयता संवर्धन करते हैं और पापादि रोग विकारों से दूर रखते हैं ।

रक्तबीज – Cancerous cell, राक्षस मधु – वासना (शहद की तरह मीठी और स्वर्णिम लंका की तरह) । भगवान विष्णु 10000 वर्षों तक मधु – कैटभ से लड़ते रहे अर्थात् काम ऊर्जा का रूपांतरण ज्ञान ऊर्जा में समय लगता है अर्थात् साधक को धैर्यवान होना चाहिए ।

गायत्री महामंत्र के देवता सविता हैं । सविता सर्वभूतानां सर्वभावश्च सूयते ।

पंचकोश साधना से साधक अपना चुंबकत्व बढ़ा सकते हैं।

शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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