Pragyakunj, Sasaram, BR-821113, India
panchkosh.yoga[At]gmail.com

Samadhi Swarg Mukti

Samadhi Swarg Mukti

PANCHKOSH SADHNA –  Online Global Class –  17 Oct 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌।

SUBJECT:  आनन्दमय कोश की 3 उपलब्धियां – समाधि, स्वर्ग व मुक्ति

Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी

श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह (बाबूजी)


आत्मसाक्षात्कार हेतु पंचकोश अनावरण अनिवार्य है

पंचकोश, परमात्म प्रदत्त वो अनुदान वरदान हैं जो सृष्टि क्रम में सहभागिता (स्वर्गीय आनन्द/ अखंडानंद) लेने हेतु है । यही पंचकोश बंधन तब बन जाता है जब हमें ‘जीवन जीने की कला’ (अनासक्त कर्मयोग) नहीं आती ।

पंचकोश अनावरण अर्थात् आसक्ति वश (शब्द, रूप, रस गंध व स्पर्श) की गई क्रिया से विकृत पंचकोश के (कालिमा युक्त) स्वरूप को उज्जवल (परिष्कृत) बनाना । इसी घिसाई/ गलाई व ढलाई के लिए ‘तप व योग’ की समन्वित प्रक्रिया की आवश्यकता होती है । पंचकोश साधना (पंचाग्नि विद्या) में इसी हेतु 19 क्रियायोगों के समन्वित क्रम को रखा गया है

दूखदायी 10 शूल:-
१. दोषयुक्त दृष्टि (negativity)
२. परावलम्बन (parasitic)
३. भय (fear)
४. क्षुद्रता (meanness)
५. असावधानी (careless)
६. स्वार्थपरता (selfishness)
७. अविवेक (indiscretion)
८. क्रोध (anger)
९. आलस्य (laziness)
१०. तृष्णा (uncontrolled desires)
निजैर्दशभुजैनूर्नं शूलान्येतानि तु दश । संहरते हि गायत्री लोककल्याणकारिणी ।।35।। संसार का कल्याण करने वाली गायत्री अपनी दस भुजाओं से इन दस शूलों का संसार करती है ।

सर्वप्रथम अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक (श्रद्धेय/ आत्मीय) बनाए । सभी की प्रशंसा करना सीखें अर्थात् उनके गुणों/ कला (सविता सर्वभूतानां सर्वभावश्च सूयते) को देखने के दृष्टिकोण को विकसित करें । सृष्टि में कुछ भी महत्वहीन नहीं है । (Nothing is useless. If we don’t know its good use we say it’s useless.) प्रज्ञा बुद्धि से हम संसाधन (24 तत्वों) के misuse or overuse से बच सकते हैं । अतः प्रज्ञोपनिषद् में साधक के अनिवार्य 3 गुणों में ‘श्रद्धा, प्रज्ञा व निष्ठा’ को बताया गया है ।

व्यष्टि जीव, विशुद्ध चित्त (परिष्कृत दृष्टिकोण /आत्मप्रकाश) में संसार के रहस्य को समझ जाता है कि यह छाया (reflection) मात्र है जो प्रतिक्षण बदल रहा है, परिवर्तनशील है । तब जाकर व्यष्टि का समष्टि में विलय – विसर्जन – एकत्व हो जाता है । इस स्थिति में साधक को ‘समाधि, स्वर्ग व मुक्ति’ का आनंद लेते हैं ।

एष्वेव कोशकोशेषु ह्यनन्ता ऋद्धि सिद्धयः । गुप्ता आसाद्य या जीवो धन्यत्वमधिगच्छति ।।14।। इन कोशरूपी भण्डारों (पंचकोश) में अनन्त ऋद्धि – सिद्धियां छिपी हुई हैं ।
यस्तु योगीश्वरो ह्योतान् पंच कोशान्नु वेधते । स भवसागरं तीर्त्वा बन्धनेभ्यो विमुच्यते ।।15।। जो योगी इन पांँच कोशों को बेधता है, वह भव सागर को पार कर बन्धनों से छूट जाता है ।

अनासक्त प्रेम से ज्ञान – ज्ञानयोग, कर्म – कर्मयोग व भक्ति – भक्तियोग बन जाते हैं ।

साधो ! सहज समाधि भली ।
गुरू प्रताप भयो जा दिन ते सुरति न अनत चली ।।
आँख न मूँदूँ न रूँदूँ काया कष्ट ना धारूँ ।
खुले नयन से हँस-हँस देखूँ, सुन्दर रूप निहारूँ ।।

जिज्ञासा समाधान

हमारी मुस्कान (हंसी खुशी) सामने वाले के चेहरे पर भी मुस्कान लाए वो आत्मीयता का प्रसार है । अगर वो सामने वाले को क्षुब्ध करे, व्यथित करे तो वह व्यंग्य (उपहास) का भी माध्यम बन सकती है । सामान्यतया संस्कार व परिवेश वश व्यक्तित्व बन जाता तदनुरूप व्यक्ति आचरण करता है । स्मरण रहे उपहास से सुधार नहीं प्रत्युत् घृणा का विस्तार होता है । अतः आत्मीयता (निःस्वार्थ प्रेम) से  प्रेरणास्रोत व प्रेरणा प्रसारण का माध्यम बने रह सकते हैैं । 
लोकाचार में हम लोक व्यवहार (शालीनता or सौजन्य युक्त पराक्रम) को प्राथमिकता दें और अंतःकरण में हम अल्फा स्टेट (स्थित-प्रज्ञ भाव) में रहे ।

तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयोः । गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते ।।3.28।। भावार्थ: हे महाबाहो! गुण-विभाग और कर्म-विभाग को तत्त्व से जाननेवाला महापुरुष ‘सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं’ – ऐसा मानकर उनमें आसक्त नहीं होता ।
आसक्ति  मन की परतों पर खरोंच/ खुजली उत्पन्न करती है जिसे खुजाने में ‘मन’ कल्पना (सोचने – विचारों के वाष्पीकरण) में व्यस्त रहता है और हम वर्तमान में स्थित (आत्मस्थित) नहीं रह पाते ।

चक्रों के जागरण में कमल बीज मंत्र आदि अर्थों के स्वाध्याय हेतु अक्षमालिका उपनिषद् का अध्ययन किया जा सकता है ।

अग्निऋषिः पवमानः पांचजन्य पुरोहितः । (ऋग्वेद) पंचकोश की पंचाग्नि विद्या निम्नांकित अग्नियों को दैदीप्यमान करती हैं:-
१. प्राणाग्नि
२. जीवाग्नि
३. योगाग्नि
४. आत्माग्नि
५. ब्रह्माग्नि ।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

No Comments

Add your comment