Aatmbodh Upanishad
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 07 Nov 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।
SUBJECT: आत्मबोध उपनिषद्
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी
भावार्थ वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)
श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (सासाराम, बिहार)
आत्मबोध उपनिषद् में दो अध्याय हैं । प्रथम अध्याय में 8 मंत्र जिसमें ब्रह्म के स्वरूप “प्रज्ञानं ब्रह्म” (हृत्पद्ममध्ये सर्वं यत्तत्प्रज्ञाने प्रतिष्ठितम् । प्रज्ञानेत्रो लोकः प्रज्ञा प्रतिष्ठा प्रज्ञानं ब्रह्म॥6॥ …) व द्वितीय अध्याय में 31 मंत्र ‘आत्मबोध’ उपरांत की स्थिति का वर्णन है (प्रगलितनिजमायोऽहं निस्तुलदृशिरूपवस्तुमात्रोऽहम् । अस्तमिताहन्तोऽहं प्रगलितजगदीशजीवभेदोऽहम् ॥1॥) … ।
आत्मबोध उपनिषद् में ‘प्रज्ञा’ – शाश्वत (अपरिवर्तनशील) व मिथ्या (परिवर्तनशील) का विवेचन करने वाली बुद्धि @ दूरदर्शी विवेकशीलता (नीर क्षीर विवेक बुद्धि – सही गलत में सही का चुनाव करने वाली बुद्धि) – की महत्ता का विशद् वर्णन है ।
साधना पथ में हम जैसे जैसे आगे बढ़ते हैं हम अनुभव करते हैं एक अप्रत्यक्ष सत्ता हमारी मदद करती है । (… ओंकाराद् व्याहृतिर्भवति । व्याहृतिया गायत्री भवति । गायत्र्या: सावित्री भवति । सावित्र्याः सरस्वती भवति । ….)
प्रेम (आत्मीयता) बन्धन नहीं है । सीमित – संकीर्ण अर्थात् व्यक्ति वस्तु विशेष प्रेम (आसक्ति) बन्धन कारी है । असीमित अपरीमित अथाह निःस्वार्थ प्रेम (अनासक्त प्रेम) संसार में आत्मसाधक यथायोग्य आचरण करते हुए साधक को कमल के पत्ते की भांति निर्लिप्त रहते हैं ।
विवेकयुक्तिबुद्ध्याहं जानाम्यात्मानमद्वयम् । तथापि बन्धमोक्षादिव्यवहारः प्रतीयते ॥11॥ भावार्थ: विवेक-बुद्धि से युक्त हैं। मैं आत्मा को अद्वैत रूप में जानता हूँ, तब भी (शरीर रहते) बन्ध, मोक्ष आदि व्यवहार वाला हूँ ॥
‘सत्व, रज् व तम‘ त्रिगुणात्मक साम्यावस्था (संतुलन) त्रिगुणातीत अवस्था है । ‘बल, बुद्धि व धन’ तीनों की आवश्यकता होती है । किसी की भी न्युनता (deficiency) व अत्यधिकता (dominency) असंतुलन (आसक्ति – ग्रन्थि) का कारण बन सकती है । साम्यावस्था – good use तो न्युनता व अत्यधिकता – misuse or overuse का माध्यम बनती है ।
जिज्ञासा समाधान
ऋषि, आत्मानुसंधान में निरत रहने वाले वैज्ञानिक रहे । जो चेतना जगत की शक्ति द्वारा भौतिक सत्ता में भी परिवर्तन का सामर्थ्य (ज्ञान) रखते । ऋषियों के विभिन्न क्षेत्रों में विशेष शोध हुआ करते थे तदनुरूप उन्हें राजर्षि, महर्षि, देवर्षि, ब्रह्मर्षि आदि की संज्ञा दी जाती रही हैं ।
शरीर में बिजली (प्राण) प्रवाह में अनियमितता से रोग उत्पन्न होते हैं । थायराइड संबंधी रोग में आसनों में हलासन, सर्वांगासन व त्रिबन्ध युक्त प्राणाकर्षण प्राणायाम से निदान किया जा सकता है (जालन्धर बन्ध का विशेष प्रभाव है) ।
ब्रह्म – जब नियामक (ईशानुशासन) रूप में पूजे जाते हैं तो उन्हें ईश्वर की संज्ञा दी जाती है । जब आत्मा – जीव संज्ञक (जीवात्मा) हो तो ब्रह्म – शिव संज्ञक परमात्मा कहे जाते हैं । स्थिति विशेष अनुसार वह समझने समझाने के लिए विभिन्न नामों (संज्ञाओं) में अभिव्यक्त होता है । भाषा – अभिव्यक्ति हेतु है । प्रेम की कोई भाषा नहीं (शब्दातीत) होती है । वाणी की के ४ प्रकार – बैखरी (शब्द), मध्यमा (भाव), पश्यन्ती (विचार) व परा (संकल्प) क्रमशः स्थूल से सुक्ष्म व कारण की ओर अग्रसर है ।
भेद दर्शन – अज्ञानता वश (आत्मविस्मृति) है । श्रद्धावान् लभते ज्ञानं । ‘ज्ञानेन मुक्ति। श्रद्धया सत्य माप्यते । प्रज्ञानं ब्रह्म । से अद्वैत (आत्मदर्शन) संभव बन पड़ता है ।
शिक्षक – कक्षा विशेष (छात्र की स्थिति) के आधार पर विषय का वर्णन (शब्दों का चुनाव) करते हैं । समझने समझाने में जो शब्द प्रकाश डाल दें वो उस स्थिति विशेष हेतु सुत्र बन जाते हैं (सविता सर्वभूतानां सर्वभावश्चसूयते ।) ।
शरीर (84 लाख योनियां) – वस्त्र स्वरूप हैं । पात्रतानुसार – वस्त्र/ flats उपलब्ध होते हैं । आत्मा (ईश्वरांश – चेतना) वस्त्र बदलती हैं । जिसे हम जड़ समझ रहे हैं उसके अंतर्गत पदार्थ गत चेतना को नाभिकीय संरंचना में इलेक्ट्रान के परिभ्रमण के रूप में समझा जा सकता है ।
गीताकार कहते हैं नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः । न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः।।2.23।। भावार्थ: इस आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकते और न अग्नि इसे जला सकती है ; जल इसे गीला नहीं कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती।।
‘ब्रह्मा, विष्णु, महेश‘ को ‘सृजन, पोषण, संहार’ करने वाली ब्रह्म की शक्ति धाराओं के रूप में समझा जा सकता है । ‘प्रकाश, गति, ऊर्जा’ त्रिशक्ति धाराओं के रूप में समझा जा सकता है ।
‘सरस्वती, लक्ष्मी, काली’ @ ‘गायत्री, सावित्री, सरस्वती’ @ ‘ज्ञान, कर्म, भक्ति को हम ‘ज्ञानयोग – कर्मयोग – भक्तियोग’ से जीवन में धारण कर सकते हैं ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
No Comments