Sarvasaropnishad
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 13 मार्च 2022 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
SUBJECT: सर्वसारोपनिषद्
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी
भावार्थ वाचन: आ॰ डॉ॰ अर्चना राठौर जी (ग्रेटर नोएडा, NCR)
सर्वसारोपनिषद्, कृष्ण यजुर्वेद से संबद्ध है । इस उपनिषद् में बन्धन – मोक्ष, विद्या – अविद्या, 4 अवस्थाएं, 5 कोश, जीव, क्षेत्रज्ञ, जीवात्मा – परमात्मा, माया आदि के संदर्भ में प्रश्नोत्तरी सूत्र रूप में स्पष्ट किया गया है । अंत में ‘स्व’ को जन्म – मरण, कर्ता – भोक्ता, नाम – रूप, इन्द्रिय तत्त्वादि से परे अनुभव करते हुए शोक – मोह, बन्धन – मोक्षादि की कामना से भी अछूता कहा गया है ।
श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (सासाराम, बिहार)
आत्मा ही ईश्वर और जीव स्वरूप हैं । एकोऽहमबहुस्याम् ।
मैं शरीर हूं (अहंभाव) – बन्धन । अहंभाव की जन्मदात्री – अविद्या ।
मैं आत्मा हूं (अहं भाव से मुक्ति) – मोक्ष । अहंभाव की मुक्तिदायिनी – विद्या ।
आत्मा की अवस्थाएं:-
1. जाग्रतावस्था – अंतःकरण चतुष्टय व दस इन्द्रियां, इन 14 कारणों द्वारा आत्मा जिस अवस्था में स्थूल विषयों (पंच तन्मात्राएं) को ग्रहण करती है ।
2. स्वप्नावस्था – विषयों के ना रहने पर भी आसक्ति वश कल्पना रत रहना (dreaming) । सपने सच्चे भी – झूठे भी ।
3. सुषुप्तावस्था – इन्द्रियों के शांत होने पर इन्द्रियां स्थूल विषयों को ग्रहण नहीं करती ।
4. तुरीयावस्था – साक्षी चैतन्य भाव ।
स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं – न शरीर तट है, न मन तट है, उन दोनों के पीछे जो चैतन्य है, साक्षी है, दृष्टा है, वह अपरिवर्तित नित्य बोध मात्र ही वास्तविक तट है, जो अपनी नौका को उस तट से बांधते हैं, वे ही अमृत को प्राप्त करते हैं ।
आत्मा के 5 आवरण, पंचकोश:-
1. अन्नमयकोश
2. प्राणमयकोश
3. मनोमयकोश
4. विज्ञानमयकोश
5. आनन्दमयकोश
सुख बुद्धि – सुख की चाह में वस्तु विशेष से रूचि (attachment) ।
दुःख बुद्धि – सुख की चाह में वस्तु विशेष की प्रति अरुचि (elergy) ।
कर्ता – सुख प्राप्त करने व दुःख का परित्याग करने के लिए जीव जिन क्रियाओं को करता है, उन्हीं के कारण कर्ता कहलाता है ।
सुख दुःख के कारणभूत पंच तन्मात्राएं हैं ।
जीव – जब पुण्य पाप का अनुसरण करता हुआ आत्मा इस मिले हुए शरीर को अप्राप्त की तरह मानता है, तब वह उपाधियुक्त जीव कहलाता है ।
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय । सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥48॥
भावार्थ : हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर तथा सिद्धि और असिद्धि में समान बुद्धिवाला होकर योग में स्थित हुआ कर्तव्य कर्मों को कर, समत्व ही योग कहलाता है ॥
समस्त वेदान्त के द्वारा जिसे जाना जाता है, मैं वही ब्रह्म हूँ । मैं आकाश, वायु आदि नामों से जाना जाने वाला नहीं हूँ । मैं नाम, रूप और कर्म भी नहीं हैं, बल्कि मात्र सत्-चित्-आनन्द स्वरूप ब्रह्म हूँ ॥20॥
मैं शरीर नहीं हैं, तो फिर मेरा जन्म-मरण कैसे हो सकता है ? मैं प्राण नहीं हैं, तो मुझे क्षुधा पिपासा क्यों सताये ? मैं मन नहीं हैं, तो मुझे शोक – मोहादि क्यों हो ? मैं कर्ता भी नहीं हूँ, फिर मेरी मुक्ति और बन्धन किस तरह हो ? इस प्रकार इस (सर्वसारोपनिषद्) का यही रहस्य है ॥21॥
जिज्ञासा समाधान
सर्वसारोपनिषद् में पंचकोश की सुत्रात्मक व्याख्या है । गायत्री हृदयम में विशद् व्याख्या है । हमारे लिए महत्वपूर्ण वह है जो हमें आत्मभाव को जगाने में सहयोग दे अर्थात् जो हमारे अंतर्मन को छू जाए, सायुज्यता बनाए ।
कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि । योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वाऽऽत्मशुद्धये ।।5.11।। भावार्थ: कर्मयोगी आसक्ति का त्याग करके केवल इन्द्रियाँ-शरीर-मन-बुद्धि के द्वारा केवल अन्तःकरण की शुद्धि के लिये ही कर्म करते हैं।
जब कर्म, आत्मीयता (निःस्वार्थ प्रेम) का प्रसार करें तो कर्ता भाव नहीं रहता ।
कूटस्थ अर्थात् निर्लिप्त ।
मां, परिष्कृत पंचकोश से ओजस्वी, तेजस्वी व वर्चस्वी सुसंतति दे सकती हैं । मां की महिमा के अनुरूप मां बनने की तैयारी की जाए – कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति ।
मदालसा ब्रह्मज्ञानी थीं । उनके पुत्र उनके महिमा अनुरूप रहे ।
पंचकोशों को उज्जवल (परिष्कृत) बनाने के लिए एक एक वर्ष एक एक कोश के क्रियायोग को प्रधानता देते हुए आगे बढ़ा जा सकता है ।
हम नित्य पंचकोश की तालबद्धता (इन्द्रिय शक्ति + क्रिया शक्ति + विचार शक्ति + भाव शक्ति + आत्मीयता) संग नित्य कर्म करते हैं । इसे हम श्रद्धा, प्रज्ञा व निष्ठा @ उत्कृष्ट चिंतन आदर्श चरित्र व शालीन व्यवहार की लयबद्धता के रूप में स्व जीवन में देख सकते हैं ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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