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Mahopnishad – 7

Mahopnishad – 7

महोपनिषद्-7

(Navratri Sadhana Satra) PANCHKOSH SADHNA _ Online Global Class _ 2 October 2022 (5:00 am to 06:30 am) _  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌ ।

SUBJECT: महोपनिषद्-7

Broadcasting: आ॰ अमन जी/ आ॰ अंकुर जी/ आ॰ नितिन जी

टीकावाचन: आ॰ आरती सिंह जी (योग शिक्षिका, प्रज्ञाकुंज सासाराम)

शिक्षक बैंच: श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (प्रज्ञाकुंज, सासाराम, बिहार)

आज की कक्षा में मंत्र संख्या 67-186 के सारतत्व को समझेंगे ।

नवरात्रि सप्तमीके दिन प्राण प्रतिष्ठाकर विधि विधान से पूजा पाठ के बाद, मूर्ति को स्थापित की जाती है ।
गर्भस्थ शिशु के सातवें महीने में उसमें प्राण प्रतिष्ठा @ जीव भाव उदय (विभिन्न योनियों/ अवस्थाओं में भ्रमण दृष्टिगोचर) होता है ।

दसों इन्द्रियां, ‘मन‘ से आदेश‌ (प्रकाश) ग्रहण करती हैं,
मन, बुद्धि से
बुद्धि, चित्त से
चित्त, अहंकार से आदेश ग्रहण करती हैं । अहंकार योग की साधना में अहंता के परिष्करण (विस्तृत @ समर्पण + विलयन + विसर्जन) से शांत निर्मल चित्त, प्रज्ञा बुद्धि व शांत संयमित प्रसन्न मन द्वारा साधक जीवन मुक्त…. विदेहमुक्ति… अवस्था को प्राप्त कर सकता है ।

कठोपनिषद्


आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तुबुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।। (इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला, और मन को लगाम समझो ।)
इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान्आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।। (मनीषियों, विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है, जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं, इंद्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीररूपी रथ का भोग करने वाला बताया है ।)
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्परः ॥ (”इन्द्रियों से उच्चतर हैं उनके विषय, उन इन्द्रिय-विषयों से उच्चतर है ‘मन’, ‘मन’ से उच्चतर है बुद्धि तथा उससे (बुद्धि से) उच्चतर है ‘महान् आत्मा’।)
यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनिज्ञानमात्मानि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मानि ।। (प्रज्ञावान् व्यक्ति के लिए उचित है कि वह सर्वप्रथम वाक् आदि इन्द्रियों को मन में लीन करें, मन को ज्ञान स्वरूप बुद्धि में निरूद्ध करे, बुद्धि को महान् तत्त्व में विलीन करे और उस आत्मा को परमपुरुष परमात्मा में नियोजित करें ।।)

चेतना के प्राथमिक स्तर ‘मन‘ को शुद्ध (शांत संयमित प्रसन्न) बनाने हेतु (पंचकोशी क्रियायोग) तन्मात्रा साधना महत्वपूर्ण है

आत्मा के 5 आवरण (पंचकोश) के विकृत/ दुषित होने से हम आत्मप्रकाश (मैं आत्मा हूँ) से वंचित हो आत्मविस्मृति में (मैं शरीर हूं मानकर) जीते हैं । इस पंचकोश के परिष्करण/ अनावरण से आत्मप्रकाश तक हमारी पहुंच बनती है फलतः (अद्वैत) लक्ष्य प्राप्ति (आत्म-परमात्म साक्षात्कार) संभव बन पड़ता है ।

जिज्ञासा समाधान

जड़त्व युक्त (मोह/ आसक्त) चेतना – जीव (शरीर/ अनात्म) भाव तो अनासक्त/ निष्काम चेतना – शिव (आत्म) भाव … इसी आसक्ति (लोभ + मोह + अहंकार @ वासना + तृष्णा + अहंता) के रूपांतरण (शुद्ध/ सदुपयोग का माध्यम बनाने) हेतु पंचकोश साधना (अनावरण/ परिष्कृत) एक बेहतरीन माध्यम/ साधन है ।

अन्नमयकोश को उज्जवल बनाने से साधना की शुरुआत की जा सकती है । 4 क्रियायोग:-
1. उपवास (ऋतभोक् + मितभोक् + हितभोक्)
2. आसन
3. तत्त्व शुद्धि
4. तपश्चर्या

हमें गुरू अनुशासन (श्रद्धा + प्रज्ञा + निष्ठा) को धारण करना चाहिए ।

अभ्यासेन तु कौन्तेय सुत्र प्रैक्टिकल की महत्ता का प्रतिपादन करता है @ Practice makes personality a perfect.

शरीर (पंचकोश) ईश्वर प्रदत्त निधि है अतः इन्हें ईश्वरीय कार्य का माध्यम बनने दिया जाए । अगर इसका misuse किया जाता है तो ईश्वरीय दंड विधान अंतर्गत दुष्परिणाम भुगतने पड़ेंगे @ As you sow so you reap.

साधू पुत्र जनयः हेतु संस्कार परंपरा रखी गई हैं जिसके अनुसरण से आदर्श संतति के मातापिता बना जा सकता है ।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः ।।

सार-संक्षेपक: विष्णु आनन्द

 

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