Tantra Ka Adhikar
Aatmanusandhan – Online Global Class – 13 नवंबर 2022 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
विषय: तन्त्र का अधिकार
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी
शिक्षक: श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (प्रज्ञाकुंज, सासाराम, बिहार)
‘जीवन‘ (जन्म) के दो उद्देश्य:-
1. आत्मबोध (मैं आत्मा हूं)
2. तत्त्वबोध (धरा को स्वर्ग बनाना)
‘तन्त्र‘/ System – ईश्वरीय पसारा (साकार स्वरूप) यह संसार एक ईश्वरीय नियम/ व्यवस्था/ system/ तन्त्र के साथ चल रहा है । Nothing is worthless or useless in the universe.
तत्त्वबोध अंतर्गत हमें ईश्वरीय व्यवस्था में सहभागिता सुनिश्चित करने हेतु तन्त्र विज्ञान को जानना समझना आवश्यक/ अनिवार्य हो जाता है ।
हम वर्ण को faculty व आश्रम को age group रूपेण समझ सकते हैं । एक ही व्यक्तित्व (गुण + कर्म + स्वभाव) :-
1. शिक्षक की भूमिका में ‘ब्राह्मण‘
2. रक्षक की भूमिका में ‘क्षत्रिय‘
3. धन उपार्जन की भूमिका में ‘वैश्य‘
4. श्रमजीवी की भूमिका में ‘शुद्र‘
उपरोक्त में जिस भूमिका में हमारी रूचि/ श्रद्धा प्रगाढ़ होती है एवं trained/ experienced/ skilled होते हैं उस faculty के part बन जाते हैं ।
पात्रता (eligibility) के आधार पर चयन की व्यवस्था होती है अतः तन्त्र का अधिकार भी eligible personality के हाथों में रहना चाहिए ।
शक्ति, तपस्वी राम एवं लंकाधिपति रावण दोनों के पास थी । ‘सदुपयोग’ का माध्यम बनने से एक ईश्वरीय अवतार तो ‘दुरूपयोग’ का माध्यम बनने से दूसरा असुर/राक्षस की भूमिका में…. ।
तन्त्र का अधिकारी ‘ओजस्वी + तेजस्वी + वर्चस्वी अर्थात् चिंतन, चरित्र व व्यवहार के धनी (श्रद्धावान + प्रज्ञावान + निष्ठावान) हों ।
आत्मिक विकास के आधार पर मानव की 3 श्रेणी :-
1. नर पशु
2. नरपिशाच
3. देवमानव/ महामानव
तन्त्र साधना (कुण्डलिनी जागरण) में प्रवेश से पहले (आत्मा के पंच आवरण) पंचकोश जागरण/ परिष्करण/ अनावरण साधना कर लिया जाए तो हमारी आगे की यात्रा शानदार/ निरापद/ without side effects हो जाती है ।
जिज्ञासा समाधान
प्रज्ञोपनिषद् चतुर्थ खण्ड देव संस्कृति – भारतीय संस्कृति प्रकरण में सात अध्याय क्रमशः
1. देव संस्कृति जिज्ञासा,
2. वर्णाश्रम प्रकरण,
3. संस्कार पर्व महात्म्य,
4. देवालय प्रकरण,
5. मरणोत्तर जीवन,
6. आस्था संकट प्रकरण व
7. प्रज्ञावतार प्रकरण
इनका स्वाध्याय व अनुप्रयोग से भारतीय संस्कृति संजीवनी के धारक बना जा सकता है ।
http://literature.awgp.org/book/prajnopanishad/v2.9
‘महा‘ का अर्थ higher (उच्च) mature (परिपक्व) अवस्था आदि के अर्थ में लिया जा सकता है । ‘दिव्य‘ को purity के अर्थ में समझा जा सकता है ।
‘आत्मसाक्षात्कार‘ को भेद दृष्टिकोण का रूपांतरण ‘अद्वैत’ रूपेण समझ सकते हैं ।
तन्त्र साधना अर्थात् आत्मभौतिकी ।
लक्ष्मी जी (धन संपदा संसाधन शक्ति) विष्णु (विश्व बंधुत्व के धारक/ लोकमान्य/ जनप्रिय/ पोषण कर्ता) का चरण दबाती हैं (सहज उपलब्ध) ।
कुकर्मी व्यक्तित्व का विपत्ति में कोई साथी नहीं होता ।
भेद दृष्टिकोण के रूपांतरण हेतु परिष्कृत दृष्टिकोण आवश्यक (शांत चित्त = वासना-शांत + तृष्णा-शांत + अहंता-शांत + उद्विग्नता-शांत) ।
श्रद्धा/ विश्वास (प्राण) में अथाह शक्ति होती है उसे आधार ‘प्रज्ञा‘ का दे देवें तो निष्ठावान बन जीवन लक्ष्य को भेदा जा सकता है ।
अध्यात्म का वैज्ञानिक प्रतिपादन युग की आवश्यकता
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ।।
सार-संक्षेपक: विष्णु आनन्द
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