Curiosity Solution – 04 Jan 2024
मुक्तिकोपनिषद् (दुर्लभ) में … तुम निरन्तर मेरे स्वरूप का चिंतन करते हुए भजन करो क्योंकि एक मात्र मेरा स्वरूप ही शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श आदि से रहित है, कभी विकार ग्रस्त नही होता … उसका ना कोई नाम है, ना गोत्र है का क्या अर्थ है?
उत्तर: यहाँ स्वरूप का अर्थ -> मैं शरीर नही आत्मा हूँ, आत्मा का शरीर नही, आत्मा के रूप में ध्यान करो।
मेरा ध्यान करना है तो अपनी आत्मा के रूप में मेरा ध्यान करो किसी आकृति या मूर्ति रूप में नहीं तथा कुल, गोत्र या जाति रूप में भी नहीं।
आत्मा आकाश की तरह है।
जो सभी के भीतर आत्मा को देखे वह असली पंडित है।
मेरा (परमात्मा का) स्वरूप शरीर रूपी नही।
इसीलिए जिसे हमने नहीं भी देखा उसका भी हम प्रकाश रूप में उसकी आत्मा का ध्यान कर सकते हैं, आत्मा की कोई आकृति/आकार नहीं।
सात्यायनियोपनिषद् में … ये 5 मांत्राए ही बह्म में समाहित है, इनका त्याग कभी नहीं करना चाहिए . . विष्णु के 2 प्रकार के चिन्ह कहे गए हैं, इन दोनो में से किसी एक का भी त्याग कर देने पर सन्यासी पथभ्रष्ट हो जाता है का क्या अर्थ है?
उत्तर: उपनिषद् में विष्णु को व्यक्ति के रूप में नहीं लिया जाता, विष्णु का अर्थ है विश्व बंधुत्व की भावना।
यदि व्यक्ति यह भावना छोड़ देगा तो जाएगा कहाँ, भावना में क्रिया पक्ष (संसार) भी आएगा।
विष्णु के 2 प्रकार के लिंग (स्वरूप / पहचान) है साकार व निराकार या परा व अपरा।
दोनो में से किसी भी स्वरूप को छोड़ेंगे तो पथभ्रष्ट हो जाएंगे क्योंकि इन में से किसी एक के बिना सत्य को नही पा सकता, दोनो विद्याएं जानने योग्य।
विष्णु को यहाँ परमात्मा रूप में / बह्माण्ड में घुली हुई चेतना स्वरूप मान सकते हैं।
परबह्मोपनिषद् में … बह्म 4 अवस्थाओं में प्राप्त होता है -> जागृत अवस्था में बह्म, स्वप्न अवस्था में विष्णु, सुषुप्ति अवस्था में रुद्र तथा तुरीया अवस्था में अक्षत चित्त रूप बह्म है का क्या अर्थ है?
उत्तर: बह्मा – विष्णु – महेश तीन प्रधान देवता है
तुरीया में निराकार अवस्था मे चला गया।
जागृत अवस्था में रचनात्मक जीवन शैली हो तो ब्रह्मा कहलाएंगे।
सोए रहने का अर्थ Mental State में रहकर सोचने से तथा फिर कार्य करने से है।
पुषा -> विष्णु -> जो पोषण दे, पोषण देने वाला पीछे रहता है इसलिए सोया कह दिया।
एक ही ईश्वर की सारी क्रियाएं है
रुद्र ही प्राण है, तीनो प्राण से उत्पन्न हुए हैं।
यहाँ समग्रता को 4 भाग में बांटकर पढ़ाया गया, एक ही बह्म को 4 भाग में बताया गया है।
एक ही बह्म की अलग अलग अवस्थाएं है।
अविद्या न सत्य है तथा न ही असत्य का क्या अर्थ है?
अविद्या -> अज्ञानता नहीं बल्कि पदार्थ विज्ञा।
ट्रक अगर अविद्या है तो चलाने वाला विद्या है।
ट्रक नहीं चलाने का अर्थ = जानकारी की कमी है ना कि अविद्या है।
ईश्वर सब जगह है तो अज्ञानता कहीं नहीं है।
अविद्या -> जड़ात्मक स्थिति या पदार्थ जगत , इससे सुख मिलेगा तथा मृत्यु को पार करेंगे।
विद्या -> आत्म जगत, इससे अमरत्व मिलेगा
दोनो विद्याएं जानने योग्य है।
क्या हम संसार को असत्य नहीं मान सकते क्योकि सत्य केवल ईश्वर ही है?
उत्तर: पदार्थ जगत variable सत्य है, इस आधार पर असत्य कह दिया।
पदार्थ जगत असत्य भी नहीं क्योकि इसकी सत्ता Eमenergy / उर्जा के रूप में है, प्रकृति के रूप में भी है परन्तु हम किसी अन्य रूप में देखते हैं।
उच्च कक्षा में सत्य / असत्य दोनों है तथा दोनो नहीं है, अलग अलग angle of vision से।
श्वास लेने व छोड़ने की प्रक्रिया में एक वर्णन में श्वास खीचते समय ‘ह’ का भाव तथा छोडते समय ‘सं’ का भाव तथा दूसरे वर्णन में श्वास खीचते समय ‘सो’ तथा छोड़ते समय ‘हम्’ के भाव में क्या अन्तर/भेद है?
उत्तर: सोऽहं सोऽहं कहा जाए तो भी ह – स की आवाज आएगी ही।
गति में कोई न कोई आवाज आ रही है।
सोऽहं बोलना भी नहीं
ऋषियों ने सोचा कि श्वास के साथ आवाज आ रही है तो उसका सकारात्मक अर्थों में लाभ लिया जाए तथा आगे बढा जाए।
इस मूल आवाज में हम अपने भीतर की सत्ता को जाने कि मैं शरीर नही आत्मा हूँ।
जब हम प्राण की साधना कर रहे है तो यह ध्यान हंस के रूप में तथा विज्ञानमय में यही साधना ध्यानात्मक, सोहम् हो जाए, क्या यह क्रियात्मक व ध्यानात्मक रूप में सोचना ठीक है?
उत्तर: उद्देश्य सधना चाहिए, जिस तरह से सोचने पर हमें relax feel हो रहा है तथा हम सत्य के करीब जा रहे हैं तो वही अपने तरीके से सोचना सही है।
हंस भी प्राण को कहते है तथा प्राण की साधना हमें करनी है, प्राणों को उत्पन्न आत्मा करती है तो यह आत्मा को जगाने वाली साधना ही है, दोनो एक ही है।
दोनो अवस्थाओं से हमें केवल आत्म तत्व को ही पाना है।
हंस साधना व सोहम् साधना दोनो ही आत्म साधना है।
आत्मा का ध्यान करने वाले पर मृत्यु असर नहीं करता है, मृत्यु पदार्थ जगत तक है, आत्मा की मृत्यु नहीं होती।
जप – ध्यान – त्राटक – तन्मात्रा को एक साथ सहज ढंग से कैसे करें?
उत्तर: किसी विषय की बारंबार पुनरावृत्ति करने को जप कहते हैं।
गुणों की गहराई में जाना ध्यान कहलाएगा।
एक विषय से इधर-उधर मन न भटके, त्राटक कहलाएगा।
किसी भी तत्व के प्रति आर्कषण विकर्षण को हटाए, इसे तन्मात्रा साधना कहा जाएगा, इससे वह व्यक्ति ईश्वर को श्रेय देगा, वस्तु को नहीं।
विषय नहीं छूटना चाहिए माला छूट जाए तो कोई बात नहीं, ध्यान न छूटे, ईश्वर को पा लिया तो माला या जप का महत्व नहीं क्योंकि जप भी ईश्वर को पाने के लिए ही कर रहा था।
परमात्मा की सङ्गच्छध्वं संवदध्वं की नीति क्या अर्थ है कृपया स्पष्ट करें?
संसार में संसार के लिए बोलना होता है।
हमारी वाणी से लोक (संघ) कल्याण भी हो तथा आत्म कल्याण भी हो।
लोक की दिशा में हम चले -> जनमानस की दिशा गलत है तो लोक को सही दिशा में सामूहिक भावना को लेकर चले व समाज को उपर उठाए, इसीलिए पर्व त्योहार बनाए गए।
गुरुदेव ने कहा है कि अपने को संत बनाना बड़ी बात नही अपितु संसार/समाज को उपर उठाना यह बड़ी बात है।
धरती को स्वर्ग बनाएं, केवल अपने स्वार्थ का न सोचे, राष्ट / समाज निर्माण के लिए सभी मिलकर चले व अपनी भी भूमिका इसमे होनी चाहिए
यही ईश्वरीय / वेद वाणी है, नही मानने वाले घाटे में रहेंगे।
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