पंचकोश जिज्ञासा समाधान (01-08-2024)
आज की कक्षा (01-08-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
महानारायणोपनिषद् में आया है कि सघोजात रूप परमेश्वर की शरण को प्राप्त होता हूँ सद्योजात प्रभु को नमन। हे सद्योजात पुनः पुनः जन्म प्राप्ति हेतु मुझे प्रेरित न करें अर्थात जन्म मरण से परे तत्वज्ञान के लिए प्रेरित कीजिए। संसार से उद्धार करने वाले सघोजात ईश्वर को नमन वंदन है, का क्या अर्थ है व वामदेव अघोर सदाशिव से क्या तात्पर्य है
- सद्योजात = जीवो की उत्पत्ति
- कोई बालक जन्म ले लिया तो वह अभी अनगढ़ है
- नवजात शिशु या सबसे प्रारम्भिक नाम सद्योजात कहलाता है
- फिर साधना करके वही जीव सघोजात से साधना कर अद्योर बना तथा फिर मन को पार कर वामदेव कहलाए तथा विज्ञानमय कोश को पार करेंगे तो तत्वपुरुष कहलाएंगे तथा जब आनन्द मय कोश को पार कर फिर सदाशिव कहलाएंगे
- वामदेव
- अघोर
- सदाशिव
- ये सभी चेतना के विस्तृत नाम है, यही चेतना की शिखर यात्रा है
- जीव शिव है परन्तु सांसारिक माया से आवृत है इस माया को सधोजात कहते है
- आत्मा की प्राप्ति की इस इच्छा में हम सभी सघोजात बनकर हम प्रयास कर रहे है
- जेल में कुछ सुख भी मिलता है जैसे बिना कमाए खाना मिलता है
- मनुष्य के शरीर में आना शैक्षिक जेलखाना है
योगराजपनिषद् में नौ चक्रो के विषय में आया है तीसरा चक्र मणीपुर चक्र है इसमें संसार की सिद्धी भरी है
- इसके मध्य में पांच आवृति वाली विधुत शक्ति है , यह अग्नि तत्व है
- मणीपुर में अग्नि है वह पांचो कोशो को अग्नि प्रदान करता है
- ज्ञानेंद्रियों की चमक ज्ञानाग्नि को भी मणीपुर चक्र प्रदान करता है
- यदि आंखों से सुर्य पर त्राटक कर रहे हैं और सूर्य को सहने की आदत नहीं है तो आखे Diffuse हो जाएगी
- आंखो में भी photo receptor Cell / Solar Battery है तो हर जगह अग्नि ही अग्नि है
- Brain में भी बिजली है यह नही रहे तो हमारा Brain काम नही करेगा
- इसी प्रकार Computer को भी बिजली चाहिए
वहा पर दसवा द्वार भी है, वहा पर पर शून्य में लय करने से वह मुक्ति को प्राप्त करता है वहा 16 चक्र है
- दसवा द्वार = बह्मरंध्र
- शरीर रंग महल है, रंगमहल के 10 दरवाजे जिनमें से 9 तो दिखाई पड रहे हैं परन्तु ब्रह्मरंध्र भी एक ढ़का हुआ दरवाजा है, यह दिखाई नही देता, इसे भी एक छिद्र मान लिया गया, उसमें से एक Nerve सुपरचेतन मन में जाता है तथा एक उपर जाता है
- 16 चक्र = 16 कलाओ में सृष्टि बनी है
16 कलाओं में सृष्टि बनने का वर्णन प्रश्नोपनिषद् में मिलता है, प्रश्नोपनिषद् में 16 चरण में सृष्टि को बाटा गया है - यही 16 कलाएं भी कही जाएगी
- एक प्रकाश की किरण को कला नहीं कहेंगे ढेर सारी प्रकाश की किरणें मिल जाएगी तो कला कहलाएंगे इसी प्रकार एक परमाणु को भी कला नहीं कहेंगे जब ढेर सारे परमाणु मिल जाएंगे तब वह कला कहलाएगा
- 16 कलाएं = 16 System से सृष्टि चल रही है
कोशितिकीबाह्मणोपनिषद् के द्वितिय अध्याय में आया है कि जब भिक्षुक गांव में भीख मागने पर जब कुछ भी नही पाता है तो निराश होकर बैठ जाता है एवं कुपित होकर यह प्रतिज्ञा कर लेता है कि अब से इस गांव के लोगों के देने पर भी दान ग्रहण नही करुंगा वह भिक्षुक जिस दृढ़ता से अपनी बात पर अडिग रहता है इस प्रकार प्राण की उपासना करने वाले को अपने न मांगने के व्रत पर दृढ़ रहना चाहिए, याचक धर्म के साथ हिंसा का भाव जुडा रहता है . . . आओ हम तुम्हे भिक्षा प्रदान करे, का क्या अर्थ है तथा प्राण की उपासना करने वाले को मांगना न पड़े यह कैसे सम्भव है
- हमें लगता है कि मांगे बिना काम नही चलेगा परन्तु दुर्वासा ऋषि दूब घास पर रह लिए परन्तु मांगे नही, वे प्राणवान थे
- जहा मागेंगे वहा आत्महीनता के संस्कार आएंगे तथा आत्मा गिरेगी तो आत्मा का तेज नष्ट होगा
- भिक्षा व्यवसाय धर्म के नाम पर कलंक है
- इसलिए बुद्ध की शैली आज नही चल सकती
- कणाद ऋषि से हम सीखे
- कणाद ऋषि ने ऐसा विज्ञान दिया व बताया कि सारा संसार उडती परमाणुओं को धूल है
- पिपलाद ऋषि पीपल का पौधा खाकर रहे
- यही भारतीय दर्शन है स्वालंबी स्वभाव वाला
- प्राणवान = प्राण पर रहने वाला जो अपनी Will Power बढ़ाए, साधना करे, रस पीना है तो वनस्पतियो का रस पीए, सुर्य पर रहने वाला
- लोकसेवियो को 100% स्वावलंबी होना चाहिए
- संसार का कल्याण करने के लिए भिक्षा की आवश्यकता नही कोई पीपल पर या कोई मूंग खाकर रहा
प्रश्नोपनिषद् में आया है कि प्राणी सबसे उपर है तथा प्राणी सभी तत्वों को धारण करता है, प्राण शरीर में कैसे आता है व शरीर को कैसे धारण करता है – उत्तर मिला कि आत्मा के द्वारा ही यह धारण होता है, प्रश्न यह है कि आत्मा जब प्राण को उत्पन्न करती तो आत्मा उससे उपर होनी चाहिए
- आत्मा को यहा छोड दिया गया है यहा प्रश्न यह है कि पूरी सृष्टि कैसे उत्पन्न हुई जबकि यहा ईश्वर के सिवा कुछ नहीं है
- आत्मा परिवर्तनशील नहीं है जबकि संसार को यहा मरते देखा जाता है
- सृष्टि निर्माण में पहला element क्या निकाला
जैसे मकान बनाने के लिए बालू छ्ड ईट कुछ तो पहले उपयोग करता हैं वह क्या है - ईश्वर को जब सृष्टि बनाना हुआ तो सबसे पहला element अपने ही भीतर से क्या निकाला तो वह पहला तत्व प्राण था
- हिरण्यगर्भ (ज्ञानयुक्त उर्जा) को ही प्राण कहेंगे, एक ऐसा Divine Light जिसमें प्राण घुला हो
- ज्ञान = शिव = राम = विष्णु
- शक्ति = पार्वती = सीता = लक्ष्मी
- जिसे आज वैज्ञानिक Quanta कहते हैं, इसी ज्ञानयुक्त उर्जा (प्राण) से सारा संसार भरा है
- उसी प्राण के रूपांतरण से सारा संसार बन गया
- आत्मा ही सबको control करेगी तथा वह प्राण को माध्यम बनाएंगी
- प्राण (Refined Mind) को ही प्रज्ञा कहते है
आत्मा प्राण का ही स्वरूप है या पूर्ण चैतन्य है
- आत्मा पूर्ण चैतन्य है तथा उसके भीतर सारी शक्ति घुली हुई है तथा वह अपने भीतर से प्राण निकाल सकता है
- प्राण भी आकाश की भांति सब जगह घुला हुआ है परन्तु उसके भीतर भी एक और आकाश है जिसे आत्मा कहते है तथा आत्मा के भीतर भी एक और आकाश घुला है जिसे परमात्मा कहते है वही Maximum Refined अवस्था है
- ये सब आकाश ही आकाश है
- जिस प्रकार स्थूल में आकाश होता है उसी प्रकार सूक्ष्म में भी पांच आकाश मन बुद्धि प्राण आत्मा और परमात्मा होते हैं
- आत्मा शाश्वत है तथा इस आत्मा ने अपने भीतर से एक परिवर्तनशील ऊर्जा को निकाला तथा फिर अपने भीतर ही जरूरत पडने पर घोल / समेट लेगा
शाण्डल्योपनिषद् में अलग-अलग प्राण के कार्यों के संबंध में आया है कि त्याग करना एवं स्वीकार करना आदि चेष्टाएं व्यान का कार्य कहलाती हैं, आलस्य देवदत्त का कार्य है तो यहा व्यान व देवदत्त के कार्य को स्पष्ट कीजिए
- मन के द्वारा ही त्याग व स्वीकार किया जाता है
- मन से ही आसत्ति व अनासक्ति संभव है
- स्वीकार करना = आसक्ति
- त्याग करना = अनासत्त होना
- चिपकाव Mentally Attach है, उस चिपकाव को छोड़ेंगे तो आत्मा मिलेगा
- देवदत्त अधोमुखी हुआ तो आलस्य होगा
- देवदत्त उधर्वमुखी होगा तो जम्हाई लेगा
- अध्यात्म एक विशुद्ध विज्ञान है जो की परा विज्ञान भी कहलाता है
पुनर्जन्म के लिए व्यक्ति के कर्मफल की भूमिका के साथ क्या ईश्वर की इच्छा भी होती हैं कृप्या प्रकाश डाला जाय
- ईश्वर की इच्छा के खिलाफ कुछ नही हो सकता, ईश्वर की ही इच्छा पहले एक से अनेक बनने की हुई
- पुनर्जन्म के लिए मनुष्य के कर्म फलों के साथ ईश्वर की इच्छा भी समाहित होती है
- पहली बार संसार निकला तो ईश्वर की इच्छा से ही निकला, उस समय कर्मफल की इच्छा जैसा कुछ काम नही करता
- ईश्वर हमेशा तीन हिस्सा प्रकृति से अलग रहता है
- पुनर्जन्म के लिए जीव के कर्मफल के उपर, ईश्वर की इच्छा ही Dominant रहेगी
छान्दग्योपनिषद् में उदगीध विद्या के विषय में प्राण व अपान की संधि व्यान है तो क्या इस व्यान को हम कुंभक के रूप में देखे तथा क्या शक्तिचालीनी क्रिया को प्राण को उठाने की क्रिया समझ सकते हैं
- उद् गीथ = स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा (उपर की यात्रा), उसे ओर Refine करते जाए तो उद् गीथ कहलाएगा -> ऊपर जाने वाली लयात्मक गति को उदगीथ कहेंगे
- प्रकृति के साथ तालमेल बैठाते हुए लयात्मक गति से आगे बढ़े तो सुविधा होगी
- ॐ उदगीथ कहलाता है क्योंकि यह प्रकृति के साथ तालमेल बैठाते हुए तथा र्निलिप्त रहते हुए सारे System को चलाता है
- नीचे भी जाना जरूरी है, सहस्रार से मूलाधार तक नहीं तो संतान उत्पन्न नहीं कर पाएंगे सृष्टि को चलाना भी जरूरी है -> प्राणन की प्रक्रिया करनी पडती है, कोई व्यक्ति अगर नीचे खड में गिर गया है तो उसे उठाने के लिए नीचे जाना पड़ेगा
- इसी प्रक्रिया में विष्णु अवतार लेकर आता है क्योंकि उनका उद्देश्य नीचे गिरे हुओ को ऊपर उठाना है
सुष्मना का अभ्यास कैसे किया जाए ताकि हमेशा उसी स्थिति में रहा जाए
- Balance Mind (संतुलित मस्तिष्क) को सुष्मना कहते है
- शांत व प्रसन्नचित्त मन को सुष्मना कहते है 🙏
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