पंचकोश जिज्ञासा समाधान (27-08-2024)
आज की कक्षा (27-08-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
रामरहस्योपनिषद् में आया है कि ॐ दशरथा विद्महे, सीता वल्लाभयः धीमही, तन्नो रामा प्रचोदयात् आदि में तार लगाकर यह राम गायंत्री मंत्र है जो मुक्ति प्रदाता है, माया आदि में जुड़ने पर यही राम गायंत्री मंत्र विद्धवता प्रदान करने वाला होता है, रामा बीज मंत्र आदि में लगाने पर यह लक्ष्मी प्रदान करने वाला होता है आदि में मदन लगाने पर सम्पूर्ण जगत में मोहित करने वाला होता है, का क्या अर्थ है
- ॐ राम रामायः नमः -> यह भी एक मंत्र है
- ॐ सभी मत्रों के शुरू में लगाना है जब भी बीज लगाया जाता है तो बीच में ॐ लगा सकते है, इस प्रकार यह तंत्र प्रधान कहलाता है
- क्लीं / हिं भी जोड सकते है
- अभी यही दोनो मंत्र ( ॐ दशरथा . . . तथा ॐ राम रामाय नमः ) अधिक प्रचलन में है
अर्थववेद के पितृमेध सूक्त -2 में पितर देवो का वर्णन आया है कि पितर सम्बोधन केवल मृतात्माओं – प्रेतात्माओ कै लिए ही प्रयुक्त होने लगा है लेकिन वेद में इसके प्रयोग अनेकार्थ हैं, श० ब्रा में औषधियो को तथा षड्ऋतुओं को पितर कहा है, मंत्रो के स्वभाविक अर्थो के अनुसार पितरो के अवधारणा करना उचित है, जहा द्विवचनपरक पितरौ सम्बोधन है, वहा माता पिता का भाव लिया जाना ही उचित है, का क्या अर्थ है
- जो हमे प्राण देती है वे पितर है
- शमशान घाट में जब मंत्रो से आहुति दी जाती है एक मंत्र में आता है कि अपने कर्मो के अनुसार योनियां मिलती है, आत्माएं किसी भी योनि में जा सकती है
- सभी जीव संज्ञक है पर्वत हो या औषधि -> सभी में Nucleus के रूप में जीवात्माएं सब सोई रहती है, ये सभी हमारी प्रत्यक्ष रूप में या परोक्ष रूप में भी हमारी सहायता करती है
- ऋतु के अनुसार अलग अलग ऋतुओं में अलग अलग गुण औषधियो में आता है
- एक ऋतु में पितरों का Season भी आता है जिसे पितृमोक्ष भी कहते है
- फिर भी इन्हे गौण माना जाता है क्योंकि यह किसी ऋषि की इस तरह की अनुभूति हुई
- किसी न किसी Angle से उन ऋषियों ने अदृश्य शक्तियों से लाभ लिया
- यह सृष्टि इतना रहस्यमयी है कि पूर्ण रूप से / समग्र रूप से इसे नहीं जाना जा सकता
- किसी ने यदि ऐसा अनुभव भी किया है तो इसे गौण ही माना जाएगा, आम लोगो ने इसका व्याख्या नही किया
- जो जीवित है वे जीवित पितर कहलाएंगे
- जो संरक्षण देते है वे सभी पितर में आते है, ऋतुएं भी हमें संरक्षण देती है अपने अपने season के विशेष गुण होते है इस प्रकार वे हमें लाभ देती है
पैगलोपनिषद् में आया है कि परब्रह्म यत्र तत्र सर्वत्र अवस्थित है परन्तु जो व्यक्ति यह नही जानता कि मै बह्म हूँ उसकी मुक्ति उसी प्रकार नहीं होती जिस प्रकार कोई आकाश में मुष्ठि प्रहार करे या भूखा व्यक्ति चावल प्राप्त करने के लिए कोशी को कूटे, यदि बह्म है तो शिव जी को, राम जी को को, विष्णु भगवान को या रामकृष्ण परमहंस ने काली की पूजा की, यदि सभी ने स्वयं को ब्रह्म बना लिया था तो फिर वह अन्य किसी की पूजा क्यों करते थे
- पूर्ण रूप से कोई बह्म नही बन सकता, वह बह्म तो अदितिय है, एको बह्म द्वितियो नास्ति, वह बह्म सदैव निराकार रूप में रहता है, फिर अपने भीतर से ही चिंगारियां उत्पन्न कर संसार को उत्पन्न करते हैं वह फिर से अपने में ही समेट लेते हैं
- यदि पूर्ण बह्म है तो साधना किसकी व क्यों करेगा
- रामकृष्ण ने हमें सीखाने के लिए तथा काली के प्रति भक्ति भाव उत्पन्न करने के लिए ऐसा किया, वे अक्सर भक्तों के अनुरूप ऐसा करके दिखा देते है या संसार पर दया करने के लिए ऐसा करते है
- जैसे गुरुदेव ने गायंत्री उपासना की इससे पूर्व जन्म में उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया क्योंकि उस समय लोग केवल पूजा / कर्म काण्डों में फंसे थे तथा ज्ञान को व्यवहार में नही उतर रहे थे
- जैसे अभी हम गायंत्री परिवार वाले जन्माष्टमी में कृष्ण के रूप में बह्म को मानते है क्योंकि हम सनातन धर्म में विश्वास रखते हैं तथा हम अनेको रूपो में बह्म को देखते है
- हमें मोक्ष पाने के लिए सभी देवी देवताओं को बह्म ही समझना होगा तब कहेंगे हमने सबमें बह्म को देखा
- भक्त व भगवान के बीच का संबंध है दूसरा कोई इसमें हस्तक्षेप नही कर सकता तथा दूसरा कोई अनुमान भी नही लगा सकता
अर्थवशिरोपनिषद् में अक्षर से काल की उत्पत्ति होती है और काल से वह व्यापक कहलाता है तथा व्यापक शोभाएमान रुद्र जब शयन करने लगते है तब समस्त प्रजा का संहार हो जाता है, भगवान जब सास लेते है तब तम उत्पन्न होता है तथा आपः तत्व का दुर्भाव होता है, आपः को अपनी अगुलियों से द्वारा मथे जाने पर शिशिर की उत्पत्ति होती है, शिथिर के मथे जाने पर फेन , फेन से अंडा, अंडे से बह्मा, फिर वायु तथा फिर वायु से ओंकार तथा ओंकार से सावित्री फिर सावित्री से गायंत्री की उत्पत्ति हुई, जब भगवान रुद्र सांस लेते है, तब तम उत्पन्न होता है, का क्या अर्थ है
- तम = ज्ञानात्मक उर्जा है, इसी के माध्यम से अपने भीतर से निकालना समेटना सब संभव होता है, यह सब प्राण है
- ये सभी बाते गायंत्री हद्धयम में संक्षेप में बताई है
- तम से आपः की उत्पत्ति का अर्थ यह हुआ कि
- आपः = प्राण है, जो सर्वव्यापी है
- आपः से शिशिर की उत्पत्ति = प्राण अब गाढ़ा हुआ -> Condensation प्रक्रिया को शिशिर कहा गया है
- प्रकाश विरल भी होता है परन्तु जब Condense हो जाएगा तो परमाणु बनेगा
- सावित्री से गायंत्री की उत्पत्ति का अर्थ =
- सावित्री = कुण्डलिनी = अपरा = सविता की शक्ति , यदि यह पहले उत्पन्न हुआ कहा है तो इसे कुण्डलिनी समझे या भूभुवः स्वः समझे
- प्राण के 7 Dimensions = 7 लोक है = भू भुवः स्वः महः जनः तपः सत्यम्
- ॐ सबसे बड़े है तथा ये सभी (आप : ज्योति रस अमृतम्) -> ईश्वर / बह्म के ये सभी गुण है
-> आपः इसलिए कहते हैं क्योंकि वे सर्वव्यापी हैं -> ज्योति इसलिए कहते हैं क्योंकि वह प्रकाश स्वरूप है
-> रस इसलिए कहते हैं क्योंकि वह आनंदमय है
-> अमृतम इसलिए कहते हैं क्योंकि वह अमृत तत्व प्रदान करने वाले हैं
क्या 7 Dimension, हमारे भीतर की चेतना की भिन्न भिन्न अवस्थाएं है
- ये वही है, अभी हम केवल दो / तीन / चार Dimension में ही टहल रहे हैं
- ऋषि पहले से ही 7 Dimension की चर्चा कर चुके थे
- Conciouness की ही ये सब अवस्थाए है, जैसे-जैसे ऊपर उठते जाएंगे तो जड़त्व कम होता जाएगा वह चेतना बढ़ती जाएगी, चेतना में रूपांतरण होता जाता है
- मैंडलीफ की periodic Table में अभी तक 7th ग्रुप से अधिक नहीं खोजा जा सका
गीता के 6वे अध्याय में आत्म संयम योग में अनासत्त कर्म फल की बात आई है, जो पुरुष कर्मफल का आशर्य न लेते हुए योग्य कर्म करता है वह संन्यासी तथा योगी है, फिर आता है जो केवल अग्नि का त्याग करने वाले सन्यांसी नही है तथा केवल क्रियाओं का त्याग करने वाले योगी नही है, केवल अग्नि के त्याग से क्या तात्पर्य है
- जैसे जैनी यज्ञ नही करते वे मानते है कि इससे सूक्ष्म जीवों को नुकसान होता है इससे जीवो की हिंसा / हत्या होती है
- केवल क्रियाओं का त्याग करना -> जो नशा बाहर से छोडे परन्तु भीतर नशे के प्रति यदि आसत्ती बनी है तो यह आसत्ती ज्ञान / प्रजा के माध्यम से खत्म होती है
- मन से आसत्ती खत्म करना ही मुख्य उद्देश्य है ना कि केवल क्रिया पक्ष को छोड़ना -> यही कहना है
- हृदय परिवर्तन यदि हो जाए तो फिर क्रियाएं मायने नही रखती
- ईश्वर को कर्म काण्डो में मत बांधो, यह सभी कर्मकांड भी बंधन में डालते हैं, ईश्वर सभी कर्मकांडों से परे हैं
वांग्मय 13 में इस संसार का हर पदार्थ परिवर्तनशील नाशवान एवं निर्जिव है उसमें जो सुगम अनुभुतिया होती है वह केवल अपनी ही आस्था एवं आत्मीयता के आरोपण की प्रतिकिया मात्र होती है, का क्या अर्थ है
- सामने वाला अच्छा है या खराब है, यह केवल हमारा ही देखने व सोचने का तरीका मात्र है
- पहले हम केवल बुराइया देखते थे परन्तु अब अच्छाईया देखने लगे
- कचरे को compost खाद के भाव से देखेंगे तो उससे घृणा नही होगी व उसका रख रखाव भी अच्छे से होगा
- यह केवल अपना सोचने का तरीका मात्र है कि किस ढ़ग से उसे लिया जा रहा है
- Angle of Vision हर जगह महत्वपूर्ण है
- दुखदः अनुभुतिया भी अपना ही Angle of Vision है,
- तपस्या मे जानबूझकर कष्ट सहा जाता है
- अपनी ही आत्मा से प्रकाश निकला है व टकराकर वापस हम तक लौटकर आ जाता है
- यदि कोई चीज खराब दिख रही है तो यह समझे कि वह सभी खराबी या हमारे भीतर विद्यमान है क्योंकि हमारी ही खराबिया, दूसरे से लौट कर हम तक आती है
- प्रत्येक वस्तु परमाणु सें बनी है तथा परमाणु परिवर्तनशील है, शरीर की लाखों कोशिकाएं प्रतिक्षण मर रही है तथा नया जन्म ले रही हैं
- गतिशीलता को ही संसार कहते है, जहा संसरण है वहा संसार है, संसार kinetic Energy (KE) से बना है
तम ज्ञान युक्त उर्जा है तो क्या समस्त उर्जा ज्ञान युक्त उर्जा ही है
- यहा प्रत्येक में ज्ञान युक्त उर्जा है, ईश्वर यदि जड़ रहता तो जड से आत्मा कैसे पैदा हो जाती
- मोटर या Vehicle भी एक खास नियम से चल रहा है तो यह भी ज्ञानयुक्त चला रहा है
- Photon कैसे अपने द्वारा चल रहा है, उसके भीतर भी ईश्वर बैठा है जो उसे चला रहा है
- केनोपनिषद् में इस विषय में आया है
- ज्ञानयुक्त उर्जा = अर्धनारीश्वर = शिव + पार्वती
चेतन = ज्ञान = शिव
उर्जा = शक्ति = पार्वती
भौतिक विज्ञान में हम जिस तन्त्र से उर्जा को Guide कर रहे है, यदि हम परिबन्धन तंत्र को withdraw कर ले तो फिर तो हमें Electicity का कोई Use नहीं दिखाई देता तथा वह फ्री ही घुमेगी
- अपने से नही घूमेगी , उसको भी घुमाने वाला ईश्वर है, हम यदि कुछ नहीं भी करेंगे तो भी वह ईश्वर किसी से भी करवा लेगा
- हममें बटन दबाने की शक्ति कहां से आई तथा मन मैं जो प्रेरणा आई, वह किसने दी क्योंकि वह प्रेरणा भी तो हमारी नहीं है
- कोई ना कोई अपनी बुद्धि से हमारे शरीर को नियंत्रित कर रहा है
जहा उर्जा शब्द आए तो वह केवल ज्ञान युक्त है, क्या अज्ञान युक्त यहा कुछ भी नहीं है
- ईश्वर यदि सब जगह है तथा वह अज्ञानी नही है
- यहा सब ज्ञानयुक्त है।
वेदो में गौण को क्यो लिखा गया
- हर चीज की यहा उपयोगिता है, कहीं-कहीं गौण की भी जरूरत पड़ती है
- गौण का अर्थ समाप्त नही, थोड़ा छोटा होता है
हर प्रेरणा ईश्वर देते है तो कर्म के बंधन व कर्म के फल से प्रभावित क्यों होते है
- हम मान लेते है हमने किया इसलिए कष्ट होता है
- अपने मन के अनुरूप हम एक Limited Range में हम कुछ क्रियाएं कर सकते है
- जब हम अनासक्त कर्म करने लगेंगे तो क्रिया की प्रतिक्रिया नहीं होगी तब प्रारब्ध खत्म होता है
- प्रत्येक अपने भाग्य को बना सकता है परन्तु केवल अपनी Limited Range में
- क्योंकि ईश्वर व्याख्या से परे है उसे किसी में नही बांध सकते
आकाश तत्व दो भागो में बंटा है, आधा भाग ज्यों का त्यो स्वरूप में है परंतु आधा भाग में बाकी 4 तत्व भी आते है, क्या शरीर मे पूरा आकाश तत्व ही है
- शरीर में प्रत्यक्ष आकाश, चित्ताकाश (जहा हम विचार व ध्यान करते है) चिदाकाश (यहा हम केवल शांति व आनन्द का अनुभव करते है) भी है, जहा हम सब सब जगह केवल आकाश ही आकाश है
- यहां कुछ भी ठोस नहीं केवल शून्य है जबकि लहरो के चलते वह शून्य ना दिखकर ठोस दिखता है, शरीर में सब है यत बह्माण्डे तत् पिण्डे
- जैसे-जैसे मनन चिंतन व साधना करता जाया जाएगा तो हमें प्रत्यक्ष आत्मबोध होने लगता है 🙏
No Comments