पंचकोश जिज्ञासा समाधान (12-09-2024)
आज की कक्षा (12-09-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
भीष्म पितामह जो इतने बडे साधक थे तथा वे कभी विवाह भी नही किए और उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान था फिर भी वे महाभारत के युद्ध में दुर्योधन के साथ कैसे फंसे
- कर्म फल की व्यवस्थता का फल सभी को भुगतना होता है
- कर्मफल की सुनिश्चितता भारतीय संस्कृति का परा विज्ञान का सिद्धान्त है कि क्रिया की प्रतिक्रिया होगी ही होगी जिसके अनुरूप पिछले कर्मो के फल मिल जाते है
- अपने ही संकल्प स्वयं को रुकावट डालते है
- धर्म की रक्षा की बजाय केवल क्षेत्र / सिंहासन की रक्षा का संकल्प ले लिया था, इसके कारण वे फंसे, जबकि यदि आदर्श की रक्षा का संकल्प लेते तो यह स्थिति नहीं बनती
- संकल्प लेते समय संभल कर लेना चाहिए कि वह संकल्प हमसे निभेगा या नहीं । सांसारिक संकल्प न लेकर आध्यात्मिक संकल्प आत्मा के पक्ष में लेना चाहिए
- योद्धा कितना बडा है इससे फर्क नही पडता है अपितु महत्वपूर्ण यह है कि अपनी शक्तियो का उपयोग कहा तक किए
- पिछले जन्मों के भी कर्म फल थे कि उन्हे शर शैया पर पड़ना ही पड़ेगा
शिवोपनिषद् में आया है कि जब जनेऊ बाए कंधे पर हो तो उसे उपविति कहते है, जब जनेऊ दाएं कंधे पर हो तो उसे अपसभ्य कहते है तथा कण्ठ में स्थित होने पर निवत्ति कहते है, का क्या अर्थ है
- बाए कंधे पर रखने को ही सीधा कहते है कि सीधा जनेऊ पहने है, सभ्य भाव कहा जाता है
- बाया कंधा + हृदय स्थान + दाया कमर -> यह शरीर में परमात्मा का क्रीडा स्थल हैं, इन्ही तीनो को एक तार से जोडा जाता है, इसे सीधा कहा जाता है
- कंठ में माला की तरह इसे कहा जाता है प्रजापत्य तीर्थ मुद्रा -> कंठ में जब आचार्य कहे तभी करना है, इसे अपने मन से नही लगाना, अपने मन से तब जरूरत पड़ती है, जब तर्पण या पिण्ड दान करते हैं, उस समय जब उत्तर की तरफ मुख करते हैं -> देवताओ व ऋषियो का तर्पण सभ्य भाव से पूर्वाभिमुख होकर करते हैं, दिव्य पितरो / मानवो का साध्य गणों से उत्तर दिशा की ओर मुख करके होता है , उस समय कंठ में जनेऊ को माला की भांति पहनने का अभ्यास किया जाता है
- ये लोग उलटा जीवन जिए है तो उलटे को उलटकर सीधा किया जाता है
- उलटा जीवन =स्वार्थ परक जीवन जो केवल अपने घर परिवार के लिए जीया, उसे मोक्ष मिलने में दिक्कत होता है
- पूरा संसार हमारा है, हम सब उसके घटक है, उनकी नीचे गिरती स्थिति को उपर उठाएं
- यह केवल नामकरण है – सभ्य अपसभ्य या कंठ में माला की तरह
गायंत्री मंत्र सबको नही जपना चाहिये का आशय सब अच्छे न बने क्या ऐसा माना जाय कृपया प्रकाश डाला जाय
- सबको जपना चाहिए ऐसा वेद का आदेश है
- वेद के मंत्र सभी के लिए एक समान है -> बाह्मण क्षत्रिय वैश्व शुद्र, सभी के लिए है, ईश्वरीय वाणी सभी के लिए है -> शुद्रो के लिए, महिलाओं के लिए, अत्यन्त निम्न स्तर के लोगो के लिए भी
- जो वेद के आदेश को नही मानता उसे नास्तिक कहते हैं
- गायंत्री मंत्र जप कर यदि वह तेज हो जायगा तो उसे ठग नही पाएंगे, गायंत्री मंत्र सदबुद्धि का मंत्र है
- धूर्तो के द्वारा यह प्रपंच चलाया गया है कि गायंत्री मंत्र सबके लिए नहीं है
- जन्म से प्रत्येक शुद्र होता है, सभी के लिए संस्कारित होने को कहा गया है, पहले यह सभी के लिए अनिवार्य था कि वह गायत्री मंत्र की दीक्षा ले और पढ़े
मूलबंध बांधते हुए अपान और कुर्म के द्वारा चिमटे से पकड़कर रुद्र ग्रंथि को रेचक में कैसे दबाते है
- शक्तिचालीनी से कंचुकी क्रिया करके दबाते है
- आकुंचन कंचुकी व प्रकुंचन (Relaxation) से काम बनता है
- स्वादिष्ठान (प्राण) व मूलाधार (अपान) को मिलाने से शक्ति / बिजली उत्पन्न होती है
- जैसे ही Muscular Contraction करेंगे तो दोनो प्राण अपान वहा सटता है
- अपान अग्नि योग से होता है, योगकुण्डलिनीपनिषद् में इसे वहनी योग कहा है, स्वादिष्ठान से मिलकर और भी प्रखर बन जाता है
- दोनो चक्र (स्वादिष्ठान + मूलाधार) मिलकर रुद्र ग्रंथि बनाते है
- मूलाधार चक्र Pariniel रीढ़ की हड्डी के बाहर शरीर में है, इसलिए यह Negative है तथा रीढ की हड्डी में स्वादिष्ठान Positive है -> यही हव्यवहा [Central Nervous System] व कव्यवहा [ Peripheral Nervous System ] है
- जब Contract करेंगे तो वह Pariniel Region रीढ़ की हड्डी से सटने / चिमटे की तरह पकड़ने का प्रयास करेगा, तब spark / बिजली उत्पन्न होगा
- बिजली निकलने पर अब यह हमारे सोचने पर निर्भर करता है कि इसका हम कहा कहा लेकर इससे काम ले रहे है और यह हमारे सोचने के आधार पर होगा
- बंध लगाने का यही मुख्य उद्देश्य होता है
मन के वश में न रहिए अपितु मन को वश में कीजिए, मन को वश में करने के लिए मौत को हमेशा अपने पास में रखिए व याद कीजिए, जिससे मन वश में हो जाएगा, मौत को सदैव कैसे याद रखे तथा ऐसा कैसे हो सकता है, इस विषय में राजा परीक्षित के बारे में आता है कि जब राजा परीक्षित को मौत का पता चला तब उनकी सारी विलासिता व आसत्ती सब छूट गई
- मृत्यु कभी भी आ सकती है तो क्यों न हम एक-एक सेकंड का अच्छे से उपयोग करें ताकि बाद में मृत्यु के समय यह नए लगे कि हम अच्छे से नहीं जीए, एक नन्हा सा क्षण व्यर्थ न जाए
- शरीर कभी भी छूट सकता है तो इसलिए सदैव आत्म चिंतन / आत्म भाव में रहे कि मै अजर हूं, अमर हूँ तथा शरीर रहे या ना रहे परन्तु मेरी सत्ता रहेगी, इस भाव से रहने पर कोई डर मन में नही रहेगा
- आत्मा का भाव सबके लिए कल्याणकारी है
इस भाव को हमेशा याद करते रहे, इसका Practical कैसे करे, यह हमेशा याद नही रहता
- यदि याद नही रखना चाहेंगे तो नही होगा तो जो ध्यान करेंगे वही याद रहता है
- आत्मचिंतन तो भीतर ही हो जाता है, यदि आप यह देख रहे है तो यह समझ रहे कि मै शरीर नही हूँ , यदि इस भाव में रहेगे तो कहेंगे कि याद कर रहे है
- आँख बंद करके नही ध्यान करना अपितु आंख खोलकर यह मनन चिंतन करना है
- अपने को प्रकाश पुंज मानकर स्वंय का चिंतन करना ही आत्म चिंतन करना व आत्म भाव में रहना है, शरीर के भीतर भी सुर्य है,शरीर मेरा वाहन भर है
आत्मोपनिषद् में गुरु व शिष्य आदि के भेद से केवल बह्म ही दृष्टिगोचर होता है, . . . सर्वत्र बह्म ही है, का क्या अर्थ है
- बाहर से देखने में गुरु शिष्य / कृष्ण अर्जुन / जड़ चेतन में भेद लगता है, जबकि यहा सब बह्म से ही आच्छादित है
- सब बह्म से उत्पन्न हुआ है
वस्तुतः न तो विद्या है और न ही अविद्या है, न तो जगत है तथा न ही कोई अन्य वस्तु सत्य है, लेकिन सत्य रूप में जगत का भान होना ही इसका पर्वतक है, का क्या अर्थ है
- शुरू में हिरण्यगर्भ से सब उत्पन्न हुआ, एक हिरण्यगर्भ से ही सब परिवर्तित होकर बना है
- जो परिवर्तन किया वह पर्वतक हुआ
- हिरण्यगर्भ से विराट निकला, विराट से सब वस्तुएं बनी, हिरण्यगर्भ ही पर्वतक है, यही परब्रह्म का एक स्वरूप है
यह संसार असत्य है ऐसा भान होना ही निवर्तक है, का क्या अर्थ है
- संसार को ज्ञान के नेत्र से देखने पर समझ में आएगा कि संसार केवल उर्जा या प्रकाश के रूप में है, अलग अलग वस्तुओं के रूप में नहीं है, इसी को निवर्तक कह दिया जाएगा, इसकी सत्ता को Mentally समाप्त करना
- यर्थात रूप से देखने को निवर्तक कहेंगे
याज्ञवल्कयोपनिषद् में आया है कि कामदेव रूपी बहेलिए ने मानव रूपी पक्षियो को आबद्ध करने के लिए हृदय को मुग्ध कर देने वाली, स्त्री रूपी जाल बिछा रखा है, सभी तरह के दोष रत्नो की पिटारी दुखोः की जंजीर रूपी स्त्री से तो भगवान ही बचाएं, का क्या अर्थ है
- उस कक्षा में केवल पुरुष ही पुरुष होगे , यदि कक्षा में केवल महिलाएं महिलाएं होती तो ठीक उलटा पढ़ाया जाता
- केवल एक पक्ष को लेकर न समझे कि केवल महिलाओं महिलाओं के लिए ही कहा है, यहा पुरुष व महिला दोनों के लिए यहा बात कही गई है
- प्रकृति महिला है व आत्मा पुरुष हैं -> इस अर्थ में ले सकते है
- दोनो के लिए हैं स्त्री की आत्मा भी पुरुष है
- मूलाधार चक्र को ही नारी कहते हैं, मूलाधार चक्र में काम वासना है तथा काम वासना काफी लुभावनी लगती है, यह सोने की लंका है
- सहस्तार चक्र को पुरुष कहते हैं
- कामवासना बड़ी लुभावनी होती है तथा वह जीवात्मा को अपनी तरफ घसीट कर ले जाती है, यह एक प्रकार का जाल है
क्या अचेतन मन से कुसंस्कार मिटाने की क्रिया को तेज किया जा सकता है कृपया प्रकाश डाला जाय
- तेज किया जाना चाहिए
- तेज करने की विधी -> गायंत्री विधी से कुण्डलिनी जागरण किया जाना चाहिए जो कि सरल है
- वांग्मय 15 में अंतिम सुत्रो में मिलेगा
विचार कभी नष्ट नही होता बिचारकम्पन इथर में होता है ईथर क्या है ?
- ईथर = प्राण = आकाश में एक तत्व भरा पडा है वही ईथर है खोखला नही है
- आकाश में जो उर्जा भरा पडा है वही ईथर है
- खोखला होगा तो आवाज नही सुन पाएगी
- प्राणमय कोश = Etheric Body
क्या गायत्री मंत्र को विनियोग के साथ जप करना चाहिए
- विनियोग वे साथ किया जाए तो फायदा अधिक होगा
- प्राणाकर्षण के साथ
- प्राण का संधारण
- प्राण का विनोयोग
- शरीर में जहां भी प्राण खींचा गया तो शरीर के उस भाग में जप के साथ प्राणीक हीलिंग करते रहना चाहिए, उस अर्थ में विनियोग कर के जप कर ले, बाकी जो भी क्रियाएँ विनियोग में की जा रही है
- दीक्षा के बाद नियोग की जो क्रियाएं की जा रही है आत्म कल्याण, लोक कल्याण, वातावरण परिष्काराय, कामना पूर्ति च:, उज्जवल भविष्य -> यही पुनयोग कहलात है किस उदेश्य के लिए हम यज्ञ कर रहे हैं
- नियोग = जैसे पहले एक प्रथा चलती थी कि व्यास जी को Natural Insemination के लिए बुलाया गया 🙏
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