पंचकोश जिज्ञासा समाधान (24-09-2024)
आज की कक्षा (24-09-2024) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
शाण्डिल्योपनिषद् में कुंभक के दो भेद बताए गए है केवल व सहित, रेचक व पूरक से जो संयुक्त हो उसे सहित तथा जो उससे रहित हो, वह केवल है, इनमें से जब तक केवल सिद्ध न हो तब तक सहित का अभ्यास करते रहना चाहिए और जब केवल कुंभक सिद्ध हो जाता है तब उस योगी को तीनो लोको में कुछ भी दुलर्भ नही रहता, केवल कुभंक के द्वारा ही कुण्डलिनी जागरण हो जाती है, का क्या अर्थ है
- ईश्वर में जैसे जैसे तनमयता बढ़ती जाती है, समाधि की अवस्था आती जाती है तो Heart Pulsation व Lungs Function (Brething Rate)भी धीमा होता जाता है, जब सांस धीमा होते होते इतना धीमा हो जाए कि साधक सोहम् भाव में आने लगता है, तब नाक के पास रखा रुई सांस लेने पर भी न हिले तब केवल प्राणायाम सिद्ध हो जाता है
- पहले सभी तरह के प्राणायाम करने होते है तब सभी नाड़िया शुद्ध हो जाती है तथा नाड़ियो का द्वार चमडे की उपरी Layer तक है, जब सब शुद्ध हो जाता है तब अलग से Brething की जरूरत नही पड़ती है
- तब बिना Lungs के भी वह आक्सीजन व प्राण तत्व को खींच लेता है
- समाधि की अवस्था में वह चक्रो से खींच लेता है, उसे यौगिक प्राणायाम कहा जाता है
- विचार शून्यता में समाधि गहरी होती जाती है
- विचार शून्यता में शरीर के क्रिया ढीले पडने लगते है, यह केवल कुम्भक की एक अवस्था है
- दूसरा विचारो को भी श्वास कहा जाता है, चित्त की वृतिया (बहिरंग चिंतन) जो बाहर की ओर जाती है वे भी रुक जाती है तथा चिंतन का बहाव बाहर रुक जाएगा, चित्त वृतियो के निरोध को भी केवली प्राणायम कहा जाता है तब आत्मा अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है
- उठते बैठते चलते फिरते भी यदि हमारे विचार विचलित न होकर, ईश्वर में ही रहे तो भी केवली प्राणायाम सिद्ध हो गया कहा जाता है
- इस प्रकार ये 3 Option है जिनसे हम केवली प्राणायाम सिद्ध करके एक अच्छी स्थिति में आ सकते है
उज्जैयी प्राणायाम में खीचने में दिक्कत आती है, comfortable नही रहता तथा पूरक करने में दिक्कत आती है तो क्या करे
- सामने Practical करके सभी के लिए आसान बना दिया जाएगा
- उज्जैयी से ही अपने सभी अंग अव्यवो पर तथा सारी ज्ञानेद्रिया कर्मेंद्रियां Command में आती है, फेफडा हमेशा स्वस्थ रहेगा, गला भी सही काम करता है, वाक शक्ति बनी रहती है तथा कुण्डलिनी जागरण में इसे आवश्यक माना है तथा कुण्डलिनी जागरण में मदद मिलती है
- सुर्य भेदन, भस्तिरिका, उज्जैयी व नाडी शोधन -> चारो को आवश्यक माना है
कुण्डकोपनिषद् में आया है कि वायु के नाद का प्रकट होना ही हृदय का तप कहा जाता है, वह शरीर को भेदकर उधर्व की ओर गमन करता हुआ मूर्धा को प्राप्त होता है, का क्या अर्थ है
- प्राण को वायु कहते है, प्राण स्थिर भी है व गतिशील भी है
- कुंडलिनी जागरण में प्राण को गतिशील किया जाता है, प्राण को ही यहां वायु कहा गया
- जब यही प्राण अनाहत को पार करते हुए मूर्धा तक पहुंच जाता है तब साधक को ब्रह्म का नाद ही हर जगह सुनाई पड़ता तथा हर जगह एक शांति व आनन्द को महसूस करता है, यही बह्म का नाद है
- बाहर कोई आवाज सुनाई नही पड़ेगा क्योंकि वह सभी आवाजो से परे है
- परमेश्वर स्तुति मौनम्
- नाद (शांति) को महसूस करना भी एक प्रकार का नाद ही है
अच्छी प्रकार सुख पूर्वक आसन पर बैठकर वाम नासाग्र से उदर को वायु से पूर्ण करके कुम्भक अवस्था में 3 बार आरोहित कर दे तथा फिर नासाग्र से वायु को विरोचित कर दे, प्रणव एवं व्याहतियो से सहित गायंत्री मंत्र से तिरावृत प्राण ही प्राणायाम कहलाता है, का क्या अर्थ है
- ॐ भूर्भुव: स्वः, यह व्याहति लगाकर के गांयत्री मंत्र का जप करे -> सामान्य उपासना कम्र में इसी का उपयोग करते है, गायंत्री मंत्र सहित हम प्राणायाम करे और 3 बार तक थोडा लम्बा करे
- प्राणाकर्षण प्राणायाम को इससे लम्बा किया जाता है, तीन आवृति यदि हम जप के रफ्तार से बोलते है तो 10 Sec लगता है, 10-10 -10 Sec के अन्तराल पर ले फिर रोके फिर छोडे तो इससे एक लयबद्धता आती है, इस प्रकार एक मिनट में 2 Round भी होना एक बहुत अच्छी स्थिति मानी जाती है
- सामान्यतः हमारा एक मिनट में 15 से 18 चल रहा था परन्तु 2 तक आ जाता है या 3 या 4 भी आ जाए तो भी यह एक अच्छी स्थिति है
- तब ऐसी अवस्था में उम्र 100 वर्ष से अधिक होने लगती है, शांति भी बढने लगती है, प्रसन्नता आती है
- गायंत्री मंत्र के साथ करने का यही उद्देश्य है कि हम उसके अर्थ का चिंतन करते हुए तथा अर्थ में जीते हुए उससे प्राण को खीचें
- केवल हवा नही अपितु सविता देवता के भर्ग को हम धारण करते है / खीचते है
- भर्ग का अर्थ है कि उनके जितने भी दैवीय गुण है जैसे विवेक करुणा शांति अनुशासन संयम बह्मतेज समृद्धि , 33 कोटि देवताओं के वैज्ञानिक गुणो को ही भर्ग कहते है
- इन गुणों को धारण कर खीचे तथा धारण करे व यह माने कि यह गुण हमारे भीतर स्थिर हो रहा है, शरीर में भरे व दिन भर Practical करे इसे पचाने के लिए, इस भाव से व्यक्ति तेजी से आगे बढ़ता है, इस प्रकार इसे लम्बा किया जाए, यह कहने का तात्पर्य यहा है
कर्मकाण्ड भास्कर में मुंडन पहले वर्ष या २ वर्ष छूटने पर तीसरे वर्ष करवाने का क्या अर्थ है, क्यो इसे हर वर्ष नही करा सकते
- यह एक Average रखा गया है तथा शुरुवात में बच्चे की त्वचा कोमल होती है
- यह लोकाचार के लिए भी 1 या 2 वर्ष रखा है, परन्तु वैसा कोई बंधन नही
- मुख्यतः surface Hard हो गया या नहीं, यह देखना चाहिए, परिपक्व अवस्था भी जाच लेनी चाहिए
देव तर्पण में तृप्यताम क्यों आया है
- ईश्वर का कहना है कि कण कण में मै ही हूँ, सुर असुर भी मै ही हूँ
- असुर का अर्थ केवल शरीर रूप में ही नहीं अपितु पदार्थ जगत भी असुर हो सकता है
- देवता = चेतना
- असुर = पदार्थ जगत = इसकी शक्ति सावित्री
- हम लोग अक्सर एक ही अर्थ में रहते हैं इसीलिए समझने में अक्सर दिक्कत होती है
- शरीर में कोई ऐसा भोजन जाए जो रक्त को कमजोर कर दे, वह प्रेत स्वरूप ही है
- डेगु मच्छर के काटने से platelet तेजी से कम होने लगते है तो इस प्रकार के कीटको से अपना बचाव करे, इस तरह के जीवाणुओ का यहा प्रवेश न हो
- तृप्त होने का अर्थ है कि हम इनका Good Use करे तथा इसका उपयोग अपने जीवन में करे
- पर्वत सागर को स्वच्छ रखे, वनस्पतिया व पेड ये सब मनुष्य के लिए उपयोगी है
- कोई भी शक्तियां जहा पर है जिस भी रूप में है वही मै (परमात्मा) है
गीता जी के 7 वे अध्याय के तीसरे श्लोक में आया है कि हजारो मनुष्यों में कोई एक ही मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करता है तथा उन यत्न करने वाले योगियों में भी एक ही मुझको तत्व से अर्थात यर्थात रूप से मुझे जानता है, यहा प्रश्न यह है कि हजारो में जब कोई एक ही तत्व रूप में जानता है तो उस योगी या साधना में ऐसी कौन सी कमी रह जाती है जो वह वहा तक (आत्मसाक्षात्कार तक) नहीं पहुच पाता
- हम सभी साधना करते है तथा जीवन में सभी को शांति चाहिए, घर घर में पूजापाठ चल ही रहा है तो इस प्रकार के करोड़ो शिष्य है
- यहा महत्वपूर्ण बात यह है कि साधना में हम प्राथमिकता कहा रखते है, यदि एक नम्बर पर आत्मा / परमात्मा रखे तथा शेष हम घर परिवार या अन्य काम बाद में रखे
- यह देखे कि हम सभी में Top Priority में साधना कितने लोगो की होती है
- जिन लोगो के जीवन में आत्मा व आत्मा के सिवा दूसरा कुछ दिखाई न पडे तो वही पाते है
- संसार का चाहे सारा काम छूट जाए परंतु साधना हमारी निश्चित समय पर ही होती रहे
- नियमितता वाले लोग बहुत ही कम होते हैं जिन्हें आत्मा और आत्मा के सिवा कुछ भी नहीं चाहिए तथा ना ही कुछ दिखाई पड रहा हो तो यह मुख्य भाव ही महत्वपूर्ण है
- अधिकतर लोग अन्नमय कोश तक ही रुक जाते है तो कोई सिद्धी पा कर प्राणायाम तक तथा कोई मनोमय या विज्ञानमय या आनन्दमय तक भी रुक जाते है
- अभी हम कुछ समय करते है तथा उसका रस लेकर अगली कक्षा में जाने वाले कम मिलते है
- उपलब्धिया / सिद्धिया पाने के बाद आगे उसका दुरुपयोग करने लगते है, यह भी नए आगे बढ़ने का एक मुख्य कारण होता है इसमें मौलिक भूल भी होती है तथा यह भूल जाते हैं कि हमें जो भी उपलब्धियां मिली थी, ऊपर के कोशो को जगाने के लिए मिली थी, इधर उधर बाटने के लिए नही
- तन्मयता में कमी न आए तथा भटकाव न हो चाहे जो हो जाए
- संसार का आकर्षण हमें आकृषित न करे तथा हमारे प्रत्येक क्रिया योग में ईश्वर की झलक हमेशा मिलती रहें, यह भाव रहे
क्या शब्द गर्भा सरस्वती चालन की प्रक्रिया उज्जायी से सम्बन्धित है
- सरस्वती चालन की जब भी बात आए तब सुष्मना में प्रवेश करना है
- चद्रमा ईडा है, सुर्य पिंगला है तो यह सुष्मना अग्नि है तथा यह आत्माग्नि भी कहलाएगा
- शब्द गर्भा = शब्द बह्म = बह्म को प्राप्त करने वाली स्थिति = यह सम स्वर है
- ॐ ध्वनि समत्व में रहती है वह हर जगह गतिशील है परन्तु लिप्त नहीं रहती है तो यह ॐ ध्वनि भी शब्दगर्भा है
- हम अक्सर सतोगुणी रजोगुणी या तमोगुणी की गाठ बना लेते है जिससे प्रगति रुक जाती है
खूब प्रयासों के बाबजूद भी बार बार संकल्प बिखर जाते हैं, क्या इसे दुर्भाग्यपूर्ण प्रारब्ध माना जाय ?
- बिखर जाते है तो फिर से समेट लीजिए
- बार बार गिरना, बार बार उठना यह हमें मजबूत बनाता है
- दुभोग्य यहा कुछ नही है, यहां सब सौभाग्य है, डरना नहीं है, हिम्मत रखना है
- एक बार एक विद्वान ने शोध ग्रंथ पाण्डु लिपी के रूप में लिखा तब उनकी अनपढ़ पत्नी ने खाना बनाने के लिए ईंधन के आभाव में पाण्डु लिपी के जला देने पर भी संत खिसलाए नहीं बल्कि कहा कि आपने हमारी साधना को बढ़ा दिया तथा फिर से अब लिखना पड़ेगा तो इसी बहाने एक मौका मिला साधना करने का तो उसे और लगन से अपने कार्य में लग गए
- मजबूत बनाने के लिए ऐसी परिस्थितियां आती है
क्या शरीर के सारे अंगो के अपने अपने मन होते है तथा क्या आत्मा का भी मन होता है, कृप्या प्रकाश डाला जाए
- होता है क्योंकि मन एक उपकरण है
- प्रत्येक कोशिकाए अपने में स्वतंत्र है, आयु कम होती है परन्तु उसमें भी आत्मा है
- सभी को वह ईश्वर ही चला रहा है
- उसी के भीतर ईश्वर बैठकर सब चला रहा है
- सबका नियंत्रक आत्मा है
- जीवो के कर्म काण्ड के आधार छोटा या बडा शरीर उन्हे मिलता है तथा मन से भी सब जुडे हुए है, Nucleus Body Cell का Mind है
- सभी मनो के Resultant Mind को मनोमय कोश कहते हैं
मनोमय कोष के ध्यान साधना में कई प्रकार के ध्यान साधना है , उसमें कोई एक करना हो , तो कौन से ध्यान का अभ्यास करना चाहिए
- जो अपने को सबसे अधिक Disturb कर रहा है, उसी को करना चाहिए जैसे किसी की आवाज यदि हमें चंचल बना देती है तो उसे शब्द साधना की तन्मात्रा साधना के रूप पहले लेना चाहिए
- जो पक्ष कमजोर है उसे ध्यान में मजबूत करना है तथा वह विषय पहले ले
- अपने लिए स्वयं चुनना होता है तो हम देखे कि हमारा मन किन परिस्थितियो में अधिक भटकता है तथा हर व्यक्ति के लिए यह अलग अलग होता है
- जो हमारे मन को सुहावना लगे व आवश्यक भी लगे, उसी को हम महत्व दे
क्या हम परमात्मा से बिना रिश्ता जोडे भी पा सकते है या परमात्मा से अटूट संबंध बना सकते है
- रिश्ता में अक्सर हम सब अपना सगे संबंधियों वाले रिश्ते बनाते हैं
- मीरा ने पति को अपना भगवान बना लिया
- अमीर खुसरो ने अपने भगवान को महबूबा कहा
- यदि आपको Mobile से प्यार है तो Mobile ही आपका भगवान है
- अपने मुख्य विषय को ही अपना भगवान बना लिया जाए तथा उसके प्रति यदि तनमय हो जाएगे तो वह वस्तु मिल जाएगी 🙏
No Comments