पंचकोश जिज्ञासा समाधान (03-01-2025)
कक्षा (03-01-2025) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-
विजयदशमी पर हर बार रावण को जलाया जाता है लेकिन हमें संदेश यह देना है कि अपने भीतर के रावण को जलाना है, लेकिन केवल रावण को ही जलकर कहा जाता है कि यह अच्छाई का बुराई पर जीत है, यह छोटा सा संदेश ही दिया जाता है परन्तु हम अपने भीतर ही नहीं देख रहे कि रावण हमारे भीतर ही है
- उददेश्य तो यही था कि अपने भीतर की असुरता व कुसंस्कारो को एक एक करके घायल करके समाप्त करना चाहिए, इसलिए अणुव्रत से शुरू करना चाहिए
- इस संदेश को जन-जन तक पहुंचाने की जिम्मेदारी आध्यात्मिक शिक्षक की रहती है
- आध्यात्मिक शिक्षक को ब्राह्मण कहा जाता है
- बुद्धिजीवियो की ही यह जिम्मेदारी है कि इस संदेश को समाज में अन्यों को यह बताए तथा स्वयं भी इसका पालन करे
- जैसे जन्मदिन मनाने पर एक बुराई छोडे तथा एक अच्छाई अपनाए, इसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपना सुधार करते करते महामानव बनता जाएगा
- जो इन प्रक्रियाओं को फिर से चालू करने में लगे है, वे सब प्रज्ञा अभियान में आते है
ऐतरेयोपनिषद् में आया है कि उस (परमात्मा) ने अम्भ, मरीचि, मर और आपः लोकों की रचना की। द्युलोक से परे और स्वर्ग की प्रतिष्ठा वाले लोकों को अम्भ अन्तरिक्ष (प्रकाश लोक) को मरीचि, पृथिवीलोक को मर्त्यलोक और पृथिवी के नीचे (परे) आपः लोक है, का क्या अर्थ है
- यहा सबसे नीचे को पाताल लोक फिर पृथ्वी लोक फिर आकाश लोक तथा फिर सबसे उपर स्वर्ग लोक इस प्रकार बाटकर बता दिया है
- जब हम तमोगुणी प्रवाह में नीचे पड़े रहते है तो उसे पाताल लोक कह देते है
- उतिष्ठतः को यहा भूलोक कहा जाएगा, नीचे गिरावट / पतन को हम रोके
- पतन से पाताल हो गया
- पहला काम करना होता है कि अपनी शक्तियों के क्षरण को रोकना, फिर अपने को मजबूत करना फिर उसे थोड़ा सा और बढ़ाना / जागृत करना / उपर उठाना
- ज्ञान / आभामंडल / ओरा को मरीची कहते है, यही आकाश लोक है, मरीची सुर्य का तेज है, तो हम अपने को तेजस्वी बनाए
- कारण शरीर को यहा अम्भ कहा गया
- ये सभी शब्द उस समय प्रचलित थे तथा उस समय के अनुरूप ऐसी शब्दावली का प्रयोग किया है, अभी स्वर्ग लोक का अर्थ है -> अन्तःकरण की सफाई (विज्ञानमय कोश)
- सूक्ष्म शरीर की सफाई में मनोमय कोश प्राणमय कोश तथा नीचे स्थूल शरीर की सफाई में अन्नमय कोश आ जाएगा
पैगलोपनिषद् में रजोगुण से हिरण्यगर्भ चैतन्य उत्पन्न हुआ, तमोगुण से अहंकार उत्पन्न हुआ, अहंकार में जो उत्पन्न हुआ वह विराट चैतन्य था, जब सृष्टि रचेयता को सृष्टि के निर्माण की इच्छा हुई तो तमोगुण में विचरित होकर सूक्ष्म तन्मात्राओं को स्थूल पंचतत्वो में प्रतिष्ठित करने की कामना की और पंचीकरण किया, इसके पश्चात पंचभूतो के रजोगुण अंश की चार भाग करके तीन भागो से पांच प्रकार के प्राणों का सृजन किया और चतुर्थांश से कर्मेद्रियों का निर्माण किया, उसी सतोगुण अंश से वह चार भाग में विभाजित किया, उसमें तीन भागों में पंच वृतात्मक अंतःकरण तथा चौथे भाग से ज्ञानेद्रियों का सृजन किया, इसे हम अपने शरीर के चक्रों से कैसे जोडेंगे
- रज = धावमान (दौडने वाली) बिजली = इसे रज कहेंगे
- याज्ञवल्क इस विज्ञान को पैंगल ऋषि को बता रहे हैं कि सृष्टि का निर्माण कैसे हुआ
- तीन हिस्सा Command करने वाले को रखा तथा एक हिस्सा अपने सहयोगियो को रखा
- कर्मेंद्रियों को (एक हिस्से में) तथा कर्मेद्रियो को प्राण (तीने हिस्से में) अपने नियंत्रण में रखता है, इन्ही में पंच प्राण आते है
- प्राणमय कोश में मणीपुर चक्र आ जाता है
- मूलाधार + स्वादिष्ठान मिलाकर अन्नमय में आ जाते है
- अनाहात मनोमय कोश है
- विशुद्धि चक्र विज्ञानमय कोश है
- आज्ञा चक्र + सहस्तार चक्र मिलाकर आनन्दमय कोश में आते है
- मनोमय कोश में तीन हिस्से से control करने वाली ज्ञानेंद्रियां व एक हिस्से से कर्मेद्रियां बना दी, जैसे ईश्वर ने एक हिस्से में सारे ब्रह्माण्ड बनाए तथा तीन हिस्से में स्वयं को होश में रख कर Command किया
- हम लोग तीन हिस्से तक दलदल में डूब जाते है तथा एक हिस्सा बचा कर रखते हैं
- हमेशा अपने विज्ञानमय कोश को / Conciousness Layer को प्रज्ञा में तीन हिस्से तक रखना चाहिए तथा एक हिस्सा तम के लिए काफी है
- तम = पदार्थ जगत
सोहम् साधना का वैज्ञानिक प्रभाव कैसे पड़ता है, कृपया प्रकाश डाला जाए
- चिन्तन के द्वारा वैज्ञानिक प्रभाव पड़ता है
- अन्तःकरण में जिस प्रकार की मान्यता बनाकर रखते है, उसी के अनुरूप बुद्धि काम करती है
- जैसी बुद्धि हो वैसा ही मन काम करेगा
- जैसा मन काम करेगा तो उसी के आधार पर ज्ञानेंद्रियां काम करेगी
- ज्ञानेद्रियां जैसे चलते जाएगी तो कर्मेद्रिया उसका साथ देने लगेगी
- सभी को मिलाकर हमें अपने अहंकार / EGO / अंतःकरण (मन बुद्धि चित्त अहंकार) का रूपांतरण करना पडता है
- सोहम भाव -> इसी की सफाई करता है, मान्यता को बदल कर कि मै शरीर नही बल्कि आत्मा हूँ
- आत्मा को ही सो कहते हैं
- फिर यह प्रश्न आता है कि मै कौन हूँ
- मै सोहम् / आत्मोहम् / ब्रह्माशोस्मि / शिवोहम् /सच्चिदानदोहम् / ईश्वर का अंश / ब्रहास्मि हूं, ये सभी गुण हमारे भीतर होना चाहिए
- हम थोड़े ही दुख में परेशान हो जाते है परन्तु ईश्वर सबसे र्निलिप्तत है तो हमारे भीतर एक र्निलिप्तता आनी चाहिए अहम् के आधार पर, फिर काम क्रोध लोभ मोह अहंकार सब खत्म होगा, पहले आँखो से कुछ भी देखते थे फिर जब यह भाव आएगा कि मैं सो (आत्मा) हूं तथा फिर वह सबमें एक ही आत्मा / ईश्वर देखने लगेगा
- ये क्रियाएं जब चलने लगेगी तब उसका चुम्बकत्व पैदा होते होते उसका Personality बदल जाता है
- इसकी शुरुवात जड़ से की जा रही है
- अंतःकरण के दोष दुर्गणो को हटाना ही परम पुरुषार्थ है बाकी सभी कर्म करना / घर चलाना पुरुषार्थ तो है परन्तु परम पुरुषार्थ नहीं
- परम शब्द आत्मा के लिए आता है, आत्मा का एक नाम परम है (आरती में भी आता है कि परम प्रधानम् पुरुषम तथान्य)
- पुरुष का एक अर्थ परमात्मा भी है
- आत्मा के सन्दर्भ में यदि यह सब चल रहा हो तो हमारा उद्देश्य व लक्ष्य बदल जाता है, फिर उसी के अनुरूप Result भी बदल जाता है
ब्रह्मग्रथि के जागरण के लिए ध्यान [व्यान] व धनंजय तथा विष्णु ग्रथि के जागरण के लिए उदान व समान, कृप्या इसकी क्रिया पक्ष को स्पष्ट करे
- मस्तिष्क वाले में क्षेत्र में ब्रह्म ग्रंथि
- हृदय वाले क्षेत्र में विष्णु ग्रंथि
- नाभी + नाभी से नीचे वाले क्षेत्र में रुद्र ग्रंथि
- हमने दो दो चक्रो का गांठ बना लिया
- हमें स्थूल शरीर – सूक्ष्म शरीर – कारण शरीर देखना है
- मस्तिष्क में व्यान और धनंजय (सहस्तार व आज्ञा चक्र) के रूप में विद्यमान है
- ध्यान Misprint है, यहा ध्यान नहीं व्यान है
- एक (धनंजय) शरीर व संसार के बारे में सोचता है
- दूसरा (व्यान) आत्मा व परमात्मा के विषय में सोचता है
- अर्जुन कृष्ण के साथ जुड़ जाए तब उसकी विजय हर जगह होंगी, इसलिए व्यान और धनंजय मिलकर उसे जगाते हैं
- उदान और समान यहां आनाहात चक्र (विष्णु) के लिए जगाना है, जब महाबंध हम लगाते हैं, तब उपर वाला उदान विशुद्धि में जगता है, नीचे उडडायन बंध से समान जगता है, जब फेफडे में हवा भर ली गई है तथा फिर अंतःकुभक में दबाव दे रहे है तो वह जाकर अनाहात को छुएगा, तब फेफड़े के माध्यम से नाभी पर दबाब पड़ेगा तथा समान प्राण जागृत होगा
- यह क्रिया अतः कुम्भक में होगा, बाह्य कुंभक में नहीं, बाह्य कुंभक में उसकी भूख बढती है
- बाह्य कुम्भक भी भरपेट जरूरी है, चक्रो का भूख बढ़ाता है तथा उस हिस्से का Toxine बढ़ाता है
- कडी भूख लगने पर भोजन (प्राण) ग्रहण करने का अधिक लाभ मिलता है
- अंतः कुंभक में अधिक से अधिक भोजन (प्राण बल) लेकर उसे रोक लिया गया, उसे भीतर पचाया गया, जमा किया गया तथा अब उसी प्राण से शरीर को चमका रहे है
विषयाकार रहित चेतन ही पूर्ण ब्रह्म परमात्मा है, यही समस्त सिद्धान्तो का सार है, बिना विषयों के कैसे रहा जाए
- ईश्वर को सर्वव्यापी मानेंगे तब ईशवर भी विषय है
- विषय को विषय ना मानकर उसे ईश्वर ही माने
- विषय को विषय मान लेंगे तब उसे भोगने की प्रक्रिया चल पड़ेगी तब वह प्राण चूसना शुरू कर देगा, आप उसक साथ आकारबद्ध हो जाएंगे
- जैसे चित्त की वृत्तियां बाहर में जब खो जाएगी तब उसी में वे सुख ढूंढ लेगी तब वह विषय ही उसका प्राण चूसना शुरू कर देगा -> यही अब विषयाकार हो गया
- जब विषय के बारे में मनन चिंतन करेंगे तब उसमें खो जाएगे तब वह खुद ही विषय हो गया
- गुरुजी के ध्यान की महिमा बताने के लिए एक शिष्य जिसका ध्यान नहीं लगता था, उस शिष्य से कहा कि तुम भैस का ही ध्यान करों तब कुछ समय बाद उसे बुलाया तो उसने कहा कि गुरुजी मुझे लगता है कि भैस का ध्यान करने के बाद मुझे लाज आती है, मुझे लगता है कि मैं भैस बन गया हूं
- इसी विषय, आकार बन जाता है, जिस भी विषय में जब आप खो जाएंगे तो अपनी सत्ता उसके रूप में बदलना शुरू हो जाएगी
-> यह एक गूढ रहस्य / गहन विज्ञान है -> इसी विज्ञान के आधार पर भृगी कीट, झींगुर को उठाकर ले आता है तथा जब झींगुर पूर्ण से उस भृंगी कीट के साथ लय बद्ध हो जाता है तब वह झींगुर पूर्ण रूप से भृंगी कीट में परिवर्तित हो जाता है - इसलिए हम समझ ले कि यह बाहरी विषयों की अपनी कोई सत्ता नहीं है, ये हर क्षण बदलते रहते हैं तो अपनी सत्ता हम जिस ढंग से देख रहे है वही Reflect होकर आ रही है
- जिसके भी साथ हम खो जाएंगे तो उसी रूप में बन जाएंगे
- यह हम समझे कि विषयों के साथ जुड़कर ना तो हमें कोई तृप्ति मिली और ना ही कोई विशेष लाभ मिला, इस तरह का ज्ञान व भाव रखेंगे तब विषयों के प्रति लगाव नहीं होगा तब इस हालत में रहते हुए भी उसका जितनी जरूरत होगी उतना ही इस्तेमाल करेंगे तथा विषयाकार नहीं होगें
- विषयाकार = उसके चंगुल में फंसना
सजीव प्राणियों में ब्रह्म की चेतनात्मक शक्ति तो समझ में आती है , परंतु जड़ पदार्थों में ब्रह्म को कैसे समझा जाये ।
- पदार्थ जगत व जीवो की आत्मा सुर्य है
- पदार्थ के भीतर Nucleus उसकी आत्मा है, तथा उसमें भी बुद्धि है तथा बहुत शक्ति है
- एक परमाणु ही सुर्य को समाप्त कर सकता है, अभी समाधि की अवस्था में सोया हुआ है, वह केवल जड़ नहीं है बल्कि समाधि में हैं
- जड़ अवस्था में परमाणु में electron तेज गति से एक निश्चित orbit में दौड लगा रहे है, इन छोटे छोटे Particle में इतना ज्ञान भरा है कि हम अनुमान नहीं लगा सकते, हम हमारे अनुसार नहीं काम कर रहा परन्तु वह अपने अनुसार तो जी ही रहा है, हम मनुष्य भी सोने की अवस्था में जड़ ही बन जाते हैं
- इसलिए ऐसा ना माने कि कही जड़ भी है, अपितु हर जगह चेतना ही चेतना विद्यमान है
- जड़ हम अपने अनुरूप कह देते हैं क्योंकि वह हमारे अनुरूप चल फिर नहीं रहा
- यदि हमारे पदार्थ भी यात्रा करते तो फिर उनके साथ तालबद्ध करना अधिक मुश्किल हो जाता
- इसलिए ईश्वर ने 2 प्रकार की प्रकृति की रचना की -> परा व अपरा
- अपरा प्रकृति से पदार्थ जगत बनाया, इनमें Inertia अधिक रहती है
- परा प्रकृति से जीवात्माए बनाई ताकि वे पदार्थ जगत पर नियंत्रण कर सके
- ईश्वर ने अपने भीतर से ही विभिन्न शक्तियां निकाली तथा स्वंय भी उनके भीतर घुस गया
- जब हर जगह केवल ईश्वर ही है तो फिर जड़ कहा रहा
- ईश्वर प्रकाश के रूप में है, इसमें 3 गुण है
प्रकाश का ज्ञान = ब्रह्मा
प्रकाश की गति = विष्णु
प्रकाश की उर्जा = शिव - इस प्रकार हम देख सकते है कि एक ही ईश्वर भिन्न भिन्न रूपो में सर्वत्र विद्यमान है 🙏
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