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पंचकोश जिज्ञासा समाधान (15-01-2025)

पंचकोश जिज्ञासा समाधान (15-01-2025)

आज की कक्षा (15-01-2025) की चर्चा के मुख्य केंद्र बिंदु:-

कठोपनिषद् में त्रिविध ‘नचिकेत’ विद्या का ज्ञाता तीन सधियों को प्राप्त होकर, तीन कर्म सम्पन्न करके जन्म मृत्यु के पार हो जाता है, वह ब्रह्म यज्ञरूप स्तुत्य देव का साक्षात्कार करके निश्चित रूप से अत्यंत (परम) शांति को प्राप्त करता है, यहा तीन संधिया कौन कौन सी है

  • संधि का अर्थ जोड़ना है
  • ईश्वर सबमें है तथा जीवात्मा भी सबमें है
  • हमें तीनो Format में (स्थूल सूक्ष्म कारण रूपों में) ईश्वर का साक्षात्कार करना है नहीं तो संसार से घृणा हो जाएगी
  • संसार में रहते हुए संसार से विरक्त हो,
  • मन के साथ रहकर, मन से व्यवहार करते हुए भी मन से चिपकाव नहीं करना तथा इस पर नियंत्रण करना
  • अपने अतःकरण में विचारो / इच्छाओं के उदगम् को आशारहित रखना
  • इसके लिए तीन प्रकार की अग्नि (ईश्वर) है
  • ईश्वर के साथ दोस्ती करने की प्रक्रिया = ब्रह्म सायुज्जयता, जब यह छूटेगी तब कष्ट में आएंगे
  • ईश्वर के साथ अपनी दोस्ती बनाए रखें
  • Weleding की तरह यह प्रेम भी जोड़ने का काम करता है
  • आत्मा व परमात्मा का संबंध बनाए रखे, यह नहीं करेंगे तो संसार में भटक जाएंगे
  • उनके गुणों को अपने भीतर उतारे तथा उसे पचाए, उसके लिए भी अग्नि की जरूरत पड़ती है दोष दुर्गुणो को गलाना व अच्छे गुणो को धारण करने के लिए भी आग की जरूरत पड़ती है, यही गलाई व ढलाई का Process है
  • अपने को सुन्दर बना लिये तो इसका उपयोग लोक सेवा / लोक कल्याण में करे, इसके लिए भी अग्नि की जरूरत पडती है
  • जो लोकसेवी होते हैं व जिनके पास साधना की आग है वे लोग प्रवाह में नहीं बहेंगे बल्कि अपनी आग से संसार को मोडेंगे
  • प्रज्ञागीत में आया है कि प्रचण्ड धारा को वही मोड़ेगा जो विपरित धारा में चलेगा तथा जो साधना की आग में अपने को तपा लेगा
  • संसार के साथ एक ढर्रे पर चलने वाले समाज को नहीं बदल सकते
  • अवांछनीयताओं से समझौता क्रांतिकारी नहीं करता है, अन्य लोग कर सकते है, ऐसे लोगो पर ईश्वर सवार होगा, उसी को ही प्रवाह को बदलना है -> डूबते हुए को वही बचा सकता है जिसे तैरना आता हो
  • गुरुदेव ने इन्ही तीन आगों को उपासना – साधना – अराधना नाम दिया है
  • गायत्री मंत्र भी यही शिक्षा देता है
    ॐ भूर्भवः स्वः
    तत्सवितुर्वरण्य -> उसे बराबर वरण करते रहे
    इसे उपासना कहेंगे
    भर्गो देवस्य धीमहि -> अपने दोष दुर्गुणो को समाप्त कर दिव्य गुणो को अपने भीतर भरे
    धियो यो नः प्रचोदयात् -> अपने भीतर के उन दिव्य गुणों का Application करे
    Approach -> Digested -> Realization
  • तीनों तरह की आग की जरूरत है तथा कोई भी एक कमजोर होगा तो दिक्कत आएगी, इन सभी पर मनन चिंतन जरूरी है

पैगलोपनिषद् के चतुर्थ अध्याय में पैंगल ऋषि, याज्ञवल्क्य ऋषि से पूछ रहे हैं कि ज्ञानियो के कर्म कौन से है तथा उनकी स्थिति कैसी होती है तब याज्ञवलक्य जी उत्तर देते हैं कि मुमुक्षु अमानित आदि गुणो से सम्पन्न होता है वह अपनी 21 पीढ़ियो को तार देता है तथा ब्रहाविद् हो जाने मात्र से वह अपने कुल की 101 पीढ़ियों को तार देता है, का क्या अर्थ है

  • अमानित = जो मान अपमान से परे हो
  • आत्मानुसंधान में लगे साधकों / वैज्ञानिकों को मुमक्षु कहते है
  • अपने भीतर जो लोकेष्णा, वित्तेष्णा, पुत्रेषणा है इनके प्रति जो तृष्णा / हाह है, उसे खत्म करने को अमानित कहेगें
  • यम ने नचिकेता को जांच करने के लिए प्रलोभन दिए
  • अमानित -> शरू में ही तैयारी कर ले फिर मुमुक्षु की ओर जाए तब वह अनन्त पीढ़ियों को तार देगा
  • एकला चले की नीति अपनानी पडती है
  • एकाकी चलने की हिम्मत होनी चाहिए
  • टीम में काम करना अच्छा रहता है परन्तु यदि टीम ही बाधा बन रहा है तो छलाग लगा दे

प्रारब्ध कर्म के क्षय हो जाने पर जैसे सर्प केचुल छोड देता है उसी प्रकार से शरीर बदल जाता है, का क्या अर्थ है

  • शरीर बदलने का अर्थ है प्रारब्ध कर्मो का क्षय हो गया तो जितना भी भोगना था भोग लिया
  • एक ही जन्म में अनन्त जन्मों का सारा लेखा जोखा नहीं भोगता है, Installment की तरह यह कार्य करता है
  • जो पूर्व जन्मों के प्रारब्ध है तथा उनमें से जो इस जन्म में पक गए हैं उनका फल इसी जन्म में भोगना है तथा बाकी का Installment बाकी है तथा हमने अभी सारा का सारा इस जन्म में नही चुकाया
  • इस जन्म वाला कर्म फल भोग लिए तो इस जन्म में भोगने को अब बाकी नहीं
  • परन्तु आगे भी न भोगना पडे तो उसके लिए इसी जन्म में प्रयास करना है, आत्मज्ञान की साधना करे
  • आत्मज्ञान की साधना करेंगे तो भी सभी प्रकार के कर्म फल समाप्त हो जाएंगे
  • यदि हम जब हम अपना सारा कर्मफल भोग लिए तो ईश्वर का भी शरीर है, ईश्वर भी इस शरीर से काम लेगा
  • अपना शरीर भी रहता तो भी हम उसे छोड़ सकते थे परंतु यह हमारा नहीं है इसलिए हम ऐसे ही शरीर नहीं छोड़ सकते (sucide भी नहीं कर सकते
  • जिसने इस शरीर को बनाया है अब वह इसे इस्तेमाल करेगा
  • अपना शरीर उसके लायक बनाने वाला वरिष्ठ आत्मा कहलाएगा तथा वरिष्ठ आत्माओं को ही ईश्वर माध्यम बनाता है

निरालम्बोंपनिषद् में आया है कि इंद्रियों द्वारा की जाने वाली क्रियाओं को कर्म कहते हैं, जिस क्रिया को मैं करता हूं यदि इस भावपूर्वक किया जाता है वही कर्म है, कर्तापन व भोक्तापन के अंहकार के द्वारा फल की इच्छा से किए गए कर्म बंधन स्वरूप है, नित्य नैमतिक यज्ञ तप व्रत दान आदि सब अकर्म कहलाते है, तो यहा प्रश्न यह उठता है कि अकर्म भी व कर्म दोनो ही तो इंद्रियों के द्वारा ही किया जाता है तो फिर कोई कर्म तथा कोई अकर्म कैसे बन जाता है

  • गीता में दार्शनिक शैली में सब लिखा गया है परन्तु सुक्ष्म बुद्धि के व्यक्ति ही इसे समझ पाते है
  • गीता लोगो को अच्छा तो लगा परन्तु इस पर चलने में दिक्कत आने लगी
  • सरलीकरण के लिए गुरुदेव ने प्रज्ञोपनिषद लिखा, इसमें लिखा कि यदि कर्म करना छोड दिया तो भी यज्ञ तप दान को नही छोड सकते, इसे Duty में मत गिनिए, यह आत्मिकी है तो यह यज्ञ तप दान हमारे स्वभाव का हिस्सा होना चाहिए, ऐसे ही योगा भी हमारे Routine में शामिल होना चाहिए
  • समाज के लिए जो कर भी रहे है उसे कर्तापन के भाव से न करे, उसे साक्षी भाव से करे तथा भाव रखे कि इंद्रियों के द्वारा ये सब कार्य किए जा रहे हैं, तभी यह अकर्म की श्रेणी में आएगा
  • अर्थववेद का कहना है कि यज्ञ नहीं करने वालो का तेज नष्ट होता है
  • इसे बंधन इसलिए कि यज्ञ तप दान करने से स्वर्ग जाने की इच्छा बनी हुई है या मोक्ष पाने की इच्छा भी है तो भी यह बंधन रूप में कर्म हो जाएगा
  • मोक्ष भीतर की Mental State है कुछ बाहर नहीं मिलता
  • पुत्रेष्टि यज्ञ की कामना भी बंधन कारक है दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ से पुत्र पाया तथा बाद में उसी के कारण छाती पीट कर मर रहा था तो यही कामना ही मृत्यु (बंधन) का कारण बनी
  • यज्ञ को इस भाव से करे कि यज्ञ आत्मा की चमक को बढ़ाता है, आत्मा को चमकाना हमारा Duty है, इसे अनुबंध कहेंगे
  • यह हमारे स्वभाव में आना चाहिए जैसे नहाने को हम काम में नहीं जोड सकते, यह हमारे स्वभाव में आना चाहिए

प्रयागराज में स्नान कैसे किया जाय कि कौए से कोयल बना जाय कृप्या प्रकाश डाला जाय

  • वहां भारद्वाज ऋषि कल्प साधना के सत्र एक माह तक करवाते थे यही महत्वपूर्ण है
  • इन दिनो Social Media में कल्प स्नान का वर्णन भी हो रहा है
  • कल्प साधना में साधना का लाभ भी मिलता है, अभी नहीं तो फिर कभी भी जा सकते है, जब भीड ना रहें तब जाए
  • जिस उददेश्य के लिए प्रयाग में पहले इस तरह के सत्र रखे जाते थे वे अभी पूर्ण नही हो रहे तथा केवल भगदड भर ही देखने को मिल रही है
  • यदि लाभ लेना ही है तो गंगा नदी के जल का सेवन किया जाए
  • यमुना सत्कर्म को कहते है, गंगा सद्ज्ञान को कहते हैं
  • जीवन में जब सद्ज्ञान व सतकर्म मिलते है तो जीवन में सरसता व भक्ति आती है , दोनो का मिश्रण ही सरस्वती है
  • इसलिए गायंत्री को कहा जाता है कि उनके एक हाथ में वेद (सद्ज्ञान) व दूसरे हाथ में कमण्डल (सत्कर्म)
  • सद्ज्ञान व सत्कर्म दोनो को मिला दे तो जीवन कमल की भाति सुंगधित हो जाएगा तथा संसार रूपी सागर में हंस की तरह तैरने की कला मिलेगी, इन्ही दोनो के संगम को प्रयाग कहते हैं
  • सत्कर्म सीख जाए तो यज्ञ कहा जाएगा
  • यहीं सीखाने के लिए भारद्वाज ऋषि कल्प साधना करवाते थे, यह तरीका पहले उपयोग होता था
  • वहा जाकर भाव तो ले तथा उस भाव को बचा कर रखे, आस्था भाव से तो जाए तथा यह संकल्प भी ले कि हम सद्ज्ञान व सत्कर्म को अपने जीवन में उतारे तब धीरे धीरे वह आदमी यज्ञपुरुष / देव प्रयाग बन जाएगा
  • देवप्रयाग में अलखनंदा व मंदाकिनी, दो नदियों का जहा मिलन है वहा गंगा नाम पड़ गया मिली, देवप्रयाग में ही गंगा नाम पड़ा
  • देवप्रयाग में भी लोग जाते है तथा कल्प साधना करते हैं
  • घर में भी कल्प साधना किया जा सकता है
  • एक तरह से वहा ऋषि चांद्रायण तप करवाते थे और वहा पर साधको के अनुसार जो जितना सह सकता हो, उसके अनुरूप करवाते थे

Nervous  system एवं Reticular Activating System के Neurons को किस चक्र से बिजली सप्लाई मिलती है एवं इसका मेडिटेशन कैसे करना चाहिए

  • Nervous System = मनोमय कोश है तथा इसके अन्तर्गत Brain से सारे Nerve निकलकर एक एक Body Cell में जा रहे हैं तो अब प्रश्न यह है कि मनोमय कोश की साधना के लिए कौन सी बिजली पैदा करें
  • मनोमय के लिए तन्मात्रा साधना करने से इस Nervous System पर command आने लगता है
  • Nervous System में सभी Nerve रहते है तथा Sensory Organ काम करता है, जैसे छूने के लिए, सुंघने के लिए, देखने के लिए . . .
  • मन ज्ञानेंद्रियों से इन पांचो विषयों की तरफ जाता है, इन पांचों विषयों के प्रति अपना Command हो
  • विषय को  छोड तो नहीं सकते, सोना भी है, खाना भी है, ज्ञानेद्रियां प्रतिदिन हर क्षण अपना काम करती रहती है
  • तन्मात्रा साधना का Practical किया जाएगा तो Nervous System पर अपना नियंत्रण होगा
  • Recticular  Activating System के अन्तर्गत आनन्दमय कोश की साधना आती है, यह अधिक कारगर सिद्ध होती है
  • नाद – बिंदु – कला साधना के निरन्तर अभ्यास से यह Recticular  Activating System सक्रिय हो जाएगा
  • Thalmus Cortical Nuclei का खेल है जो Brain stem से लगा हुआ अन्त का हिस्सा Thalmus होता है, बीच में White Matter भी आ जाता है
  • उपर cortex cerebral आता है तथा मस्तिष्क इससे अलग रखा गया, 6 चक्रो से मस्तिष्क उपर अलग है जैसे चक्र डंठल में है तथा उपर छाता है
  • रीढ की हड्डी का उपरी अंतिम छोर व सहस्तार के बीच में Ions के द्वारा आदान-प्रदान चल रहा है तो वह अनासक्त प्रेम भाव से होता है, यह उपर Cerebrum प्रेम वाला Area है
  • यदि किसी से हम अनासक्त प्रेम करते है तो वह प्रेम दिव्य प्रेम में बदल जाएगा, आसक्त प्रेम स्वार्थ वाला प्रेम है तथा वह कभी भी टूट सकता है या जीवन के अन्तिम क्षणों में टूट जाएगा -> जीवन भर जिसके लिए सब कुछ किया परन्तु अंतिम क्षणों में उसके मन लायक नहीं किया तो भी वह हमसे रिश्ता तोड देगा
  • शुरू से ही अनासत्त प्रेम का अभ्यास किया जाता तो वह दिव्य प्रेम बनता जाता तथा आनन्दमय कोश विकसित हो जाता
  • विज्ञानमय भी Neuro में आ जाता है, वह भी Neuro Humeral secreation से ही निकलता है
  • विज्ञानमय + मनोमय मिलकर Nervous System को Command करते हैं तथा बाकी सभी भाव संवेदना से किया जाता है

तप में बल लगता है तो तपोनिष्ट शब्द बनता है तथा साधना में भी बल है तो साधना में साधनानिष्ट शब्द प्रयोग क्यों नहीं होता, तप व साधना में क्या अंतर है, कृप्या इस पर प्रकाश डालें

  • तप साधने को साधना कहते है, घुड़सवारी से पहले घोड़े को साधना पड़ता है तथा सर्कस के शेर को भी पहले साधना पडता है
  • किसी चीज को अपने नियंत्रण में लाने की प्रक्रिया साधना है, उस Process में जो भी क्रियाए हम कर रहे हैं सब साधना कहलाएगा
  • शरीर को साथ रहे हैं तो शरीर की साधना कहलाएंगी, मन को साध रहे हैं तो मन की साधना कहलाएंगी
  • साधना = Self Control
  • अनगढ़ को सुगढ बनाना तथा अपने मन लायक बना लिए तो वह भी साधना कहलाएगा
  • तप का मुख्यउद्देश्य -> किसी भी मिलावट / Impurity को दूर करने के लिए Heat / अग्नि उत्पन्न करना
  • तपस्या एक प्रकार का Heating Process है, किसी चीज से चिपकाव है तो उसे हटाने के लिए ज्ञान की अग्नि वहा लगाना होगा
  • घृणा को हटाने के लिए श्रद्धा की अग्नि की जरूरत है तब वह प्रेम में बदलेगा तब संसार की हर चीज अच्छी लगने लगेगी

क्या साधना से ही तप जागृत होता है

  • साधना एक तप है
  • जैसे पहले सुबह नहीं उठ पाते थे तो अब जब सुबह उठने लगे तो उठने में जो कष्ट हो रहा है तथा जब इस कष्ट सहने लगे तो यह सहिष्णुता तप में आएगा
  • आत्म नियंत्रण में अपने दोष दुर्गुणो को हटाने में गलाई की प्रक्रिया में लगे हैं तो यही तप साधना कहलाएगा
  • केवल साधना में यदि लगे है तो जप साधना में लघु अनुष्ठान में लगा दिए, जैसे 24 हजार जप करेंगे या सवा लाख 40 दिन में करेंगे तो मन में एक Theme बनाए थे कि इतनी आग को अपने भीतर पैदा करना है ताकि मंत्र सिद्ध हो जाए तो कुछ उद्देश्य अवश्य मन में अवश्य होगा तो इस प्रकार दिमाग में जो लक्ष्य कुछ पाने के लिए जो हम कर रहे है वह साधना के अन्तरर्गत ही आएगा
  • रोग दुख को हटाने के लिए तप कर रहे है
  • अच्छा कल्पवृक्ष जैसा बनाने के लिए साधना कर रहे हैं
  • इसलिए साधना में तप व योग दोनो आता है
    -> तप साधना व योग साधना

तप Impurity को हटाता है, क्या यह Impurity एक प्रकार का असंतुलन ही है या कुछ और भी है, क्या वह असंतुलन ही शरीर या मन के रोगों का कारण बनता है

  • Impurity को तो हमें हटाना ही है
  • जो हमारे आगे बढने में रुकावट डालता है वह सब Impurities में आएगी
  • Impurities में Inertia व भारीपन होता है, उसे तम भी कह देते हैं, उसे हटाकर आगे बढ़ना है परन्तु जब हमें खुद ही Inertia में जाना है तब ये सब सहयोगी कहलाएंगे
  • परंतु हम चाहते हैं कि जड़त्व (तम) से चेतना (सत) की ओर जाएं तो जो भी रुकावटे आएगी उसे हटाने के लिए उर्जा की आवश्यकता होगी
  • यदि ईश्वर सर्वव्यापी है तो हमें विकार में भी आना जाना पडता है तथा हमें भी कुटस्थ बनना पड़ता है, कुटस्थ नहीं बने तो साधना के अभ्यास से धीरे धीरे अपनी योग्यता बढ़ाई जाती है      🙏

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