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एकता अनुभव करने का अभ्यास (मैं क्या हूँ से उदधृत )

एकता अनुभव करने का अभ्यास (मैं क्या हूँ से उदधृत )

ध्यानास्थित होकर भौतिक जीवन प्रवाह पर चित्त जमाओ । अनुभव करो कि समस्त ब्रहृमाण्डों में एक ही चेतना शक्ति लहरा रही है, उसी के समस्त विकार भेद से पंचतत्व निर्मित हुए हैं । इन्द्रियों द्वारा जो विभिन्न प्रकार के सुख-दुखमय अनुभव होते हैं, वह तत्वों की विभिन्न रासायनिक प्रक्रिया हैं, जो इन्द्रियों के तारों से टकराकर विभिन्न परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न प्रकार की झंकारें उत्पन्न करती हैं । समस्त लोकों का मूल शक्ति तत्व एक ही है और उसमें ‘मैं’ भी उसी प्रकार गति प्राप्त कर रह हूँ जैसे दूसरे । यह एक साझे का कम्बल है, जिसमें लिपटे हुए हम सब बालक बैठे हैं । इस सच्चाई को अच्छी तरह कल्पना में लाओ बुद्घि को ठीक-ठीक अनुभव करने, समझने और हृदय को स्पष्टतः अनुभव करने दो ।

 स्थूल भौतिक पदार्थों की एकता का अनुभव करने के बाद सूक्ष्म मानसिक तत्व की एकता की कल्पना करो । वह भी भौतिक द्रव्य की भाँति एक ही तत्व है । तुम्हारा मन महामन की एक बूँद है । जो ज्ञान और विचार मस्तिष्क में भरे हुए हैं, वह मूलतः सार्वभौम ज्ञान और विचारधारा के कुछ परमाणु हैं और उन्हें पुस्तकों द्वारा, गुरु-मुख द्वारा या ईथर-आकाश में बहने वाली धाराओं से प्राप्त किया जाता है । यह भी एक अखण्ड गतिमान शक्ति है और उसका उपयोग वैसे ही कर रहे हो, जैसे नदी में पड़ा हुआ कछुआ अविचल गति से बहते हुए जल-परमाणुओं में से कुछ को पीता है और फिर उसी में मूत्र रूप में त्याग देता है । इस सत्य को भी बराबर हृदयंगम करो और अच्छी तरह मानस-पटल पर अंकित कर लो ।

 अपने शारीरिक और मानसिक वस्त्रों के विस्तार की भावना दृढ़ होते ही संसार तुम्हारा और तुम संसार के हो जाओगे । कोई वस्तु विरानी न मालूम पड़ेगी । यह सब मेरा है या मेरा कुछ भी नहीं, इन दोनों वाक्यों में तब तुम्हें कुछ भी अन्तर मालूम न पड़ेगा । वस्त्रों से ऊपर आत्मा को देखो यह नित्य, अखण्ड, अजर, अमर, अपरिवर्तनशील और एकरस है । वह जड़, अविकसित, नीच प्राणियों, तारागणों, ग्रहों, समस्त ब्रह्माण्ड को प्रसन्नता और आत्मीयता की दृष्टि से देखता है । विराना, घृणा करने योग्य, सताने के लायक या छाती से चिपका रखने के लायक कोई पदार्थ वह नहीं देखता । अपने घर और पक्षियों के घोंसले के महत्व में उसे तनिक भी अन्तर नहीं दीखता । ऐसी उच्च कक्षा को प्राप्त हो जाना केवल आध्यात्मिक उन्नति और ईश्वर के लिए ही नहीं वरन् संसारिक लाभ के लिए भी आवश्यक है । इस ऊँचे टीले पर खड़ा होकर आदमी संसार का सच्चा स्वरूप देख सकता है और यह जान सकता है कि किस स्थिति में, किससे क्या बर्ताव करना चाहिए ? उसे सद्गुणों का पुञ्ज,उचित क्रिया, कुशलता और सदाचार सीखने नहीं पड़ते, वरन् केवल यही चीजें उसके पास शेष रह जाती हैं और वे बुरे स्वभाव न जाने कहाँ विलीन हो जाते हैं, जो जीवन को दुखमय बनाये रहते हैं ।

 यहाँ पहुँचा हुआ स्थित-प्रज्ञ देखता है कि सब अविनाशी आत्माएँ यद्यपि इस समय स्वतंत्र, तेज स्वरूप और गतिवान प्रतीत होती हैं, तथापि उनकी मूल सत्ता एक ही है, विभिन्न घटों में एक ही आकाश भरा हुआ है और अनेक जलपात्रों में एक ही सूर्य का प्रतिबिम्ब झलक रहा है । यद्यपि बालक का शरीर पृथक् है, परन्तु उसका सारा भाग माता- पिता के अंश का ही बना है । आत्मा सत्य है, पर उसकी सत्यता परमेश्वर है । विशुद्ध और मुक्त आत्मा परमात्मा है, अन्त में आकर यहाँ एकता है । वहीं वह स्थित है, जिस पर खड़े होकर जीव कहता है- ‘सोऽहमस्मि’ अर्थात् वह परमात्मा मैं हूँ और उसे अनुभूति हो जाती है कि संसार के सम्पूर्ण स्वरूपों के नीचे एक जीवन, एक बल, एक सत्ता, एक असलियत छिपी हुई है ।

 दीक्षितों को इस चेतना में जग जाने के लिए हम बार-बार अनुरोध करेंगे, क्योंकि ‘मैं क्या हूँ?’ इस सत्यता का ज्ञान प्राप्त करना सच्चा ज्ञान है । जिसने सच्चा ज्ञान प्राप्त कर लिया है, उसका जीवन प्रेम, दया, सहानुभूति, सत्य और उदारता से परिपूर्ण होना चाहिए । कोरी कल्पना या पोथी-पाठ से क्या लाभ हो सकता है? सच्ची सहानुभूति ही सच्चा ज्ञान है और सच्चे ज्ञान की कसौटी, उसका जीवन व्यवहार में उतारना ही हो सकता है ।

मैं क्या हूँ – पूज्य गुरुदेव पँ. श्रीराम शर्मा आचार्य जी

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