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साधना की सफलता के रहस्य

साधना की सफलता के रहस्य

साधना की सफलता के रहस्य गोपथ ब्राह्मण में अच्छी तरह समझायें गये हैं ।। इसके अन्तर्गत मौदगल्य और मैत्रेयी संवाद में गायत्री तत्त्वदर्शन पर 33- 35 कण्डिकाओं में विस्तृत प्रकाश डाला गया है ।।
मैत्रेयी पूछते हैं-

” सवितुर्वरेण्यम् भर्गोदेवस्य, कवयः किश्चित आहुः”
अर्थात् हे भगवान्! यह बताइये कि ”सवितुर्वरेण्यम् भर्गोदेवस्य” इसका अर्थ सूक्ष्मदर्शी विद्वान क्या करते हैं ।।

इसका उत्तर देते हुए मौदगल्य कहते हैं- ”सवित प्रविश्यताः प्रयोदयात् यामित्र एति ।” अर्थात्- सविता की आराधना इसलिए है कि वे बुद्धि क्षेत्र में प्रवेश करके उसे शुद्ध करते और सत्कर्म परायण बनाते हैं ।।
वे आगे और भी कहते हैं- ”कवय देवस्य सवितुः वरेण्यं भर्ग अन्न पाहु” अर्थात् तत्त्वदर्शी सविता का आलोक अन्न में देखते हैं ।। अन्न की साधना में जो प्रखर पवित्रता बरती जाती है, उसे सविता का अनुग्रह समझा जा सकता है ।।

आगे और भी स्पष्ट किया गया है- ”मन एवं सविता वाकृ सावित्री” अर्थात् परम तेजस्वी सविता जब मनः- क्षेत्र में प्रवेश करते हैं जो जिह्वा को प्रभावित करते हैं और वचन के दोनों प्रयोजनों में जिह्वा पवित्रता का परिचय देती है ।। इस तथ्य को आगे और भी अधिक स्पष्ट किया गया है -”प्राण एव सविता अन्न सावित्री, यत्र ह्येव सविता प्राणस्तरन्नम् ।। यत्र वा अन्न तत् प्राण इत्येते ।” अर्थात्- सविता प्राण है और सावित्री अन्न ।। जहाँ अन्न है वहाँ प्राण होगा और जहाँ प्राण है वहाँ अन्न ।।

प्राण जीवन, जीवट, संकल्प एवं प्रतिभा का प्रतीक है ।। यह विशिष्टता पवित्र अन्न की प्रतिक्रिया है ।। प्राणवान व्यक्ति पवित्र अन्न ही स्वीकार करते हैं एवं अन्न की पवित्रता को अपनाये रहने वाले प्राणवान बनते हैं ।।

सविता सूक्ष्म भी है और दूरवर्ती भी, उसका निकटतम प्रतीक यज्ञ है ।। यज्ञ को सविता कहा गया है ।। उसकी पूर्णता भी एकाकीपन में नहीं है ।। सहधर्मिणी सहित यज्ञ ही समग्र एवं समर्थ माना गया है ।। यज्ञपत्नी दक्षिणा है ।। दक्षिणा को सावित्री कह सकते हैं ।। 33वीं कण्डिका में कहा गया है-

”यज्ञ एवं सविता दक्षिणा सावित्री”

अर्थात् यज्ञ सविता है और दक्षिणा सावित्री ।। इन दोनों को अन्योऽन्याश्रित माना जाना चाहिए ।। यज्ञ के बिना दक्षिणा की और दक्षिणा के बिना यज्ञ की सार्थकता नहीं होती है ।। यह यज्ञ का तत्त्वज्ञान उदार परमार्थ प्रयोजनों में है ।। यज्ञ का तात्पर्य सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन में योगदान करना है ।। गायत्री जप की पूर्णता कृत्य द्वारा होती है ।। इसका तत्त्वज्ञान यह है कि पवित्र यज्ञीय जीवन जिया जाय, साथ ही सविता देवता को प्रसन्न करने वाली- उसकी प्रिय पत्नी दक्षिणा का भी सत्कार किया जाय ।। यहाँ दुष्प्रवृत्तियों के परित्याग और सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन करने के निमित्त किए गये संकल्पों को ही भाव भरी दक्षिणा- देव दक्षिणा समझा जाना चाहिए ।।

पूज्य गुरुदेव

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