Aatmopnishad
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 14 Nov 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
SUBJECT: आत्मोपनिषद्
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी
भावार्थ वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)
श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (सासाराम, बिहार)
कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि देवोत्थान (देवउठनी/ प्रबोधिनी) एकादशी को भगवान विष्णु योगनिद्रा से जगते हैं अर्थात् यह पर्व आत्म-जागरण (मनुष्य में देवत्व का जागरण/ उत्थान (संवर्धन) की प्रेरणा/ संदेश/ संकल्प प्रदान करता है ।
आत्मा (चेतना) शरीर रूपी रथ (वाहन – vehicle) द्वारा संसार (ईश्वरीय पसारा) में ईश्वरीय कार्य का माध्यम बनते हैं । यहां स्थूल शरीरधारी चेतना को ‘आत्मा’ कहा गया है । सुक्ष्म शरीरधारी आत्मा को ‘अंतरात्मा’ व जिससे संपूर्ण ब्रह्माण्ड आवृत्त है वह ‘परमात्मा’ (ईशावास्यं इदं सर्वं – मूल सत्ता) अर्थों में लिया गया है ।
अच्युतावस्था/ आत्मस्थित/ स्थित-प्रज्ञ/ जीवन-मुक्ति हेतु ‘आत्मबोध व तत्त्वबोध’ (गायत्री + सावित्री साधना @ पंचकोशी साधना + कुण्डलिनी जागरण) ।
‘प्राण‘ विवेक युक्त ऊर्जा है । द्वैत/ त्रैत आदि भाव (भिन्नता) में होना ही जन्म-मरण के चक्र में भ्रमण करना है । शाश्वत सत्य ‘एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति’ का बोधत्व ही जीवन-मुक्ति की स्थिति है । पतंजलि ऋषि कहते हैं ~ एक ही ‘ब्रह्म’ – प्रसवन (एकोऽहम् बहुस्याम्।) द्वारा भिन्न भिन्न रूपों में संसार में दृष्टिगोचर होता है । ‘प्रतिप्रसवन’ विधा द्वारा उस एकत्व (non difference) का ‘बोधत्व’ किया जा सकता है ।
अभाव (संघर्ष) हमारे अंतःशक्ति (आत्मबल) के जागरण में अप्रतिम भूमिका निभाते हैं । भोग विलास (पंच तन्मात्राओं के प्रति आसक्ति) हमें जीवन लक्ष्य से दूर करते हैं ।
एक ही प्राण अलग-अलग भूमिका में स्वयं को 5 प्राण व 5 उपप्राण रूप में स्वयं को अभिव्यक्त करता है । एकत्व का बोधत्व अर्थात् व्यष्टि का समष्टि में विलय (फूटना) ही आत्म-जागरण है ।
द्वैतभाव से मुक्त होने पर व्यष्टिगत चेतना (जीवात्मा) जन्म-मरण के चक्र (बन्धन) से छूट जाता है । अवतार प्रक्रिया में जीवन-मुक्त आत्मायें भूमिका सुनिश्चित करती हैं ।
एक ही पेड़ की जड़ (root), पत्ते (leaves), तना (stem), फूल (flowers), फल (fruits) विभिन्न रूपों में परिलक्षित होते हुए विभिन्न भूमिकाओं में होते हैं ।
हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥
जिज्ञासा समाधान
तन्मात्रा साधना से संसार की परिवर्तनशीलता का बोधत्व (तत्त्वबोध) किया जा सकता है ।
शरीर भाव में रहने के कारण इच्छाएं/ कामनाएं (शब्द, रूप, रस, गंध व स्पर्श से आसक्ति) उत्पन्न होती है । आत्मभाव जाग्रत होने पर हम इच्छाओं से परे (प्रलय – प्रपंचों का लय) हो जाते हैं ।
प्रज्ञोपनिषद् में साधना को सफल बनाने हेतु निम्नांकित तीनों की साम्यावस्था से बात बनती है:-
- श्रद्धा (विश्वास – समग्र समर्पण) @ भक्तियोग,
- प्रज्ञा (विवेक युक्त ज्ञान – merit) @ ज्ञानयोग,
- निष्ठा (श्रमशक्ति – hardworking) @ कर्मयोग ।
अखंडानंद की स्थिति में होने को आत्मबोधत्व के अर्थों में ले सकते हैं ।
बाह्य प्रेरणा (ज्ञान) की भूमिका अंतः प्रेरणा (आत्मज्ञान) के जागरण तक होती है । अंतः ज्ञान प्रस्फुटित होने के बाद बाह्य ज्ञान की भूमिका समाप्त हो जाती हैं @ आत्मा वाऽरे ज्ञातव्यः । आत्मा वाऽरे श्रोतव्यः । आत्मा वाऽरे द्रष्टव्यः ।
मैत्रीपूर्ण शिक्षण-प्रशिक्षण (आत्मीयता/ प्रेम) प्रभावी होते हैं ।
मानव जीवन के दो लक्ष्य – १. स्वयं को जानना व २. ईश्वरीय पसारे इस ब्रह्माण्ड को सुन्दर बनाना ।
तांत्रिक प्रयोग/ टोना टोटका – बहादुर (प्राणवान) लोगों पर प्रभाव नहीं डालते हैं । मजबूत – कमजोर पर प्रभाव डाल सकते हैं । ‘ज्ञान, कर्म व भक्ति’ की साम्यावस्था @ त्रिपदा गायत्री की साधना से बात बनती है ।
‘सोऽहम्स्मि इति वृत्ति अखंडा’ – 24 घंटे ‘उपासना, साधना व अराधना’ की जा सकती है अर्थात् आत्मभाव में रह सकते हैं ।
चिकित्सक (Doctors) रोगी के रोगों से चिंतित नहीं होते प्रत्युत् रोगों का निदान कर रोगी को निरोगी बनाने में सतत प्रयत्नशील रहते हैं । रोग खत्म होने के बाद चिकित्सक व रोगी में मिलाप नहीं के बराबर होता अर्थात् कोई आसक्ति नहीं रहती है । उदाहरण समझने व समझाने हेतु मात्र हैं ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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