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Aatmpujopnishad

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आत्मपूजोपनिषद्

Aatmanusandhan –  Online Global Class – 15 May 2022 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌

SUBJECT:  आत्मपूजोपनिषद्

Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी

शिक्षक: श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (प्रज्ञाकुंज, सासाराम, बिहार)

अनेकता में एकता के दर्शन – http://literature.awgp.org/akhandjyoti/1974/October/v2.3

मैं, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, महत तत्त्व से परे सार्वभौम आत्मा हूँयच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनिज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि ॥1-III-13॥ भावार्थ: बुद्धिमान वाक् को मन में विलीन करे । मन को ज्ञानात्मा अर्थात बुद्धि में लय करे । ज्ञानात्मा बुद्धि को महत् में विलीन करे और महत्तत्व को उस शान्त आत्मा में लीन करे ॥

आत्मा‘ के 5 आवरण (पंचकोश) का जागरण/ अनावरण से आत्मसाक्षात्कार किया जा सकता है । जिसमें ‘तप‘ (गलाई – वासना, तृष्णा, अहंता व उद्विग्नता का) व ‘योग‘ (ढलाई @ प्रतिप्रसवन @ अद्वैत) की समन्वित रूप – 19 क्रियायोग के रूप में सर्वसुलभ है । जिसके श्रद्धा-पूर्ण सहज – सजग (प्रज्ञा बुद्धि युक्त) नियमित  (निष्ठा) अभ्यास से ‘मुक्ति/ मोक्ष’ का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है ।

आत्म तत्त्व/ आत्मदेव की पूजा – उपासना @ जीवन के विभिन्न क्रियाकलापों को ही पूजा – अराधना बना लेने का कौशल – जिससे मुक्ति/ मोक्ष (वासना, तृष्णा, अहंता व उद्विग्नता से निवृत्ति) का कल्याणकारी पथ भी प्रशस्त होता है ।

ॐ तस्य निश्चिन्तनं ध्यानम् । (उस आत्म तत्त्व का सतत चिन्तन ही उसका ध्यान है ।) @ अद्वैत ।

सर्वकर्मनिराकरणमावाहनम् । (समस्त कर्मों का निराकरण ही आवाह्न है ।) @ अनासक्त भाव … ।

निश्चलज्ञानमासनम् । (अविचल ज्ञान ही उसका आसन है ।) @ दृढ़ता/ निष्ठा … ।

समुन्मनीभावः पाद्यम् । (उस आत्म तत्त्व के प्रति सदा उन्मुख रहना ही पाद्य है ।) @ आत्म सत्ता का पदार्थ जगत पर नियंत्रण … ।

सदामनस्कमर्घ्यम् । (उस ओर सदैव मनोयोग ही अर्घ्य है ।) @ योगस्थः कुरू कर्माणि … ।

सदादीप्तिराचमनीयम् । (आत्मा की निरन्तर दीप्ति ही आचमन है ।) @ परमार्थ … ।

वराकृतप्राप्तिः स्नानम् । (श्रेष्ठता की प्राप्ति ही उसका स्नान है ।) वरेण्यं … ।

सर्वात्मकत्वं दृश्यविलयो गन्धः । (सर्वात्मक दृश्य का विलय ही गन्ध है ।) प्रपंच का लय … ।

दृगविशिष्टात्मानः अक्षताः । (विशिष्ट नेत्र ही अक्षत है ।) @ सकारात्मकता / प्रांजल दृष्टिकोण/ विवेक … ।

चिदादीप्तिः पुष्पम् । (चित्त दीप्ति ही पुष्प है ।) @ विशुद्ध चित्त … ।

सूर्यात्मकत्वं दीपः । (उसका सूर्यात्मकत्व ही दीपक है ।) तेजस्विता/ शक्ति संचय (शारीरिक शक्ति – ओजस्, मानसिक शक्ति – तेजस्, भावनात्मक शक्ति – वर्चस्) … ।

परिपूर्णचन्द्रामृतरसैकीकरणं नैवेद्यम् । (पूर्ण चन्द्र और उसके अमृत रूपी रस का एकीकरण ही नैवेद्य है ।) @ एकत्व … ।

निश्चलत्वं प्रदक्षिणम् । (उसकी सुनियोजित गतिशीलता ही प्रदक्षिणा है ।) @ ईशानुशासनं स्वीकरोतु … ।

सोऽहंभावो नमस्कारः । (उसका सोऽहम् भाव ही नमन है ।) @ सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा। दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा ॥ आतम अनुभव सुख सुप्रकासा। तब भव मूल भेद भ्रम नासा॥1॥

सदासन्तोषो विसर्जनम् । (सदैव सन्तुष्ट रहना, उसका विसर्जन है ।) @ आस्तिकता – हर हाल मस्त  “समर्पण – विलयन – विसर्जन” ….।

परमेश्वरस्तुतिर्मौनम् । (मौन रहना ही उसकी स्तुति करना है ।) @ अन्तर्मुखी/ आत्मपरिष्कार …. ।

एवंपरिपूर्णराजयोगिनः सर्वात्मकपूजोपचारः स्यात्सर्वात्मकत्वं आत्माधारो भवति । (इस प्रकार परिपूर्ण राजयोगी का सर्वात्मक पूजा उपचार ही उस आत्म तत्त्व का आधार है ।)

सर्वनिरामयपरिपूर्णोऽहमस्मीति मुमुक्षूणां मोक्षैकसिद्धिर्भवति ।। इत्युपनिषत् ।। (समस्त आधि – व्याधियों से रहित मैं पूर्ण ब्रह्म हूँ, ऐसा भाव रखने से ही मुमुक्षुओं को मोक्ष प्राप्त करने की अभिलाषा सिद्ध होती है । यही उपनिषद् है ।)

जिज्ञासा समाधान

शुद्ध मन के लक्षण – शांत व प्रसन्न (मोक्ष का कारण) । अशुद्ध मन के लक्षण – विषयासक्त चंचल अनियंत्रित व असंयमित (बन्धन का कारण) @ मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।
मन‘ को साधने (मनोमयकोश जागरण हेतु) पंचकोश साधना में ४ क्रियायोग – जप, ध्यान,  त्राटक व तन्मात्रा साधना @ (गायत्री मंजरी) ध्यान – त्राटक – तन्मात्राजपानां साधनैर्नु ।  भवत्युज्जवलः कोशः पार्वत्येष मनोमयः ।।

Faculty wise (कार्यक्षेत्र) ईश्वरीय अनुशासन में ईश्वरीय सहचर (सोऽहम् – आत्मबोध) बन ईश्वरीय पसारे इस संसार (सर्वखल्विदं ब्रह्म – तत्त्वबोध) में अपनी भूमिका  सुनिश्चित (peace and bliss – धरा पर स्वर्ग का अवतरण) की जा सकती है ।

आत्मप्रकाश‘ तक पहुंच बनाने के लिए एक एक करके आत्मा के उपर के आवरण को क्रियायोग (तप + योग) से अनावृत करना होता है (प्रतिप्रसवन) । आत्मा के प्रकाश में ही आत्मा स्वयं का अनावरण करती है । अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते

जीवन‘ के दो महान उद्देश्य  – 1. आत्मबोध (मैं क्या हूँ ?) एवं  2. तत्त्वबोध (मैं क्यों हूँ ?) ।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः ।।

Writer: Vishnu Anand

 

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