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Aatmshodhan Prakarnam

Aatmshodhan Prakarnam

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 07 Feb 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

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sᴜʙᴊᴇᴄᴛ: प्रज्ञोपनिषद् (6 मण्डल) – VI – आत्म शोधन प्रकरण

Broadcasting: आ॰ अंकुर जी

टीका वाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

मनुष्य स्वयं को किस मार्ग/ पथ/ पुरूषार्थ से ‘देवमानव’ स्तर पर ले जाते हैं?
उत्तर – मनुष्य को जो कुछ मिलता है वह उनके पुरूषार्थ का प्रतिफल है। पुरूषार्थ में ‘आत्मशोधन’ प्रमुख है। जन्म जन्मान्तरों के संचित कुसंस्कार को धोने हेतु ‘तपश्चर्या’ का आश्रय लेना होता है।
‘लोभ, मोह व अहंकार’ के क्षुद्र बन्धन को ही भव-बन्धन कहते हैं। जिसे तोड़ने के लिए आंतरिक साहस की आवश्यकता होती है जिसके बल पर आत्मशोधन संभव बन पड़ता है। गीता में वर्णित इस आंतरिक महाभारत को जो जीतते हैं उसे विजय श्री वरण करती हैं और वे भौतिक सिद्धियों व आत्मिक ऋद्धियों का अनुदान पाते हैं।
जो मन को जीतता है वह विश्वविजेता होता है। मन को जीतने हेतु मनोनिग्रह की साधना करनी होती है जिसमें अभ्यस्त अनुपयुक्त आदतों के विरुद्ध खुला विद्रोह करना होता है। इसमें समग्र संयम की साधना करनी होती है जिसके ४ प्रकार हैं:-
१. इन्द्रिय संयम
२. विचार संयम
३. समय संयम
४. अर्थ संयम
इन्हें साधने वाला ही सच्चा साधक होता है। साधना की परिणिति ‘सिद्धि’ (सफलता) के रूप में परिलक्षित होती है।

आत्मवादी, आदर्श अपनाते हैं और असंख्यों को अनुकरण की प्रेरणा दे सकने वाला मार्ग दूरदर्शी विवेकशीलता के आधार पर चयन करते हैं तथा इस मार्ग को आलस्यादि कारणों से कभी नहीं छोड़ते हैं। इस आंतरिक संघर्ष से ही आत्म विद्युत उत्पन्न होती हैं जिसके सहारे अनेकानेक आश्चर्यजनक प्रयोजन पूर्ण होते हैं।
अपने कुसंस्कारों से, मूढ़मति प्रियजनों से, आकर्षक प्रलोभनों से जो लड़ सका वो ही ओजस्वी, मनस्वी व तेजस्वी कहते हैं। ऐसे लोग आत्मबल के धनी होते हैं और वे सत्प्रवृत्ति संवर्धन (उचित को अपनाते) व दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन (अनुचित/ अनुपयुक्त को छोड़ने) का जीवन क्रम बनाये रखते हैं। आत्मतेज/ प्राणाग्नि/ ब्रह्माग्नि से संकट को टालना व वैभव को बटोरना संभव बन पड़ता है।

संयम साधने, तप करने व परमार्थ में निरत रहने से शक्ति मिलती है जो सम्पदाओं, विभुतियों व‌ सफलताओं की जननी हैं।

विराट ब्रह्म की चेतना में अपने आपको समर्पण करने की मान्यता को परिपक्व करके साधक क्षुद्र से महान बनता है। अध्यात्मिक उद्दात्त दृष्टिकोण ‘अपने में सबको व सबमें अपने को देखना’ सीखने से सब कुछ अपने जैसा देखता है और इन्द्र व कुबेर जैसा वैभव प्राप्त कर लेने का अनुभव होता है।
ईश्वर दर्शन का एक ही वास्तविक स्वरूप है – ईशावास्य इदं ‌सर्वं @ सबमें ईश्वर को ओत-प्रोत देखना। विश्व को विराट ब्रह्म  मानकर उसकी सेवा अराधना में श्रद्धापूर्वक जुट जाना ही सच्ची भक्ति है। जब भगवान की इच्छा ही अपनी इच्छा बन गई तो ना फिर कोई कामना रहती है ना याचना की आवश्यकता रहती है।
भगवान की इच्छा और व्यवस्था में अपने आपको खपा देना – ‘उपासना‘ है @ ईश्वर के सहचर/ अंग अवयव बन जाना।
साधना‘ का अर्थ है स्वयं को सुसंस्कारिता के सांचे में ढाल लेना @ ईश्वरीय अनुशासन।
भक्ति‘ (अराधना) – ‘सेवा साधना’ को कहते हैं @ ईश्वर के पसारे इस संसार को सुविकसित करना।
उदात्त दृष्टिकोण का नाम – ‘स्वर्ग’ है।
लोभ, मोह व अहंकार के त्रिविध बन्धनों से छुटकारा पाने का नाम – ‘मुक्ति’ है।
‘पूजा’ का वास्तविक स्वरूप है – भगवान के विश्व उद्यान को को श्रमशीलता से सींचना व उसमें उतृकृष्टता का बीजारोपण, आदर्शवादिता का अभिवर्धन करना है।

आत्मशोधन व परमार्थ में निरत व्यक्ति ही सच्चे भक्त कहे जाते हैं। ज्ञान, कर्म व भक्ति की त्रिवेणी संगम में उपासना, साधना व अराधना द्वारा चिंतन, चरित्र व व्यवहार में आदर्शों का समावेश कर हम परम लक्ष्य का वरण कर जीवन को धन्य धन्य बना सकते हैं।

धर्म के १० लक्षण (५ युग्म) – सत्य व विवेक, संयम व कर्तव्य, अनुबंध व अनुशासन, सज्जनता व पराक्रम, सहकार व परमार्थ –  के जीवन में समावेश से साधक की नींव आस्था मजबूत होती हैं

आत्मा के पंच आवरण पंचकोश में अनंत ‘ऋद्धि-सिद्धि’ भरी पड़ी हैं। साधना/ cleaning से बात बनती है। आत्मशोधन अर्थात् आत्मसाधना @ गायत्री पंचकोश साधना। लक्ष्य – पंचकोश अनावरण कर आत्मसाक्षात्कार @ अपने में सबको व सबमें अपने को देखना।

संयम‘ का अर्थ है misuse को रोकना व good use को बढ़ाना। इन्द्रिय संयम, विचार संयम, समय संयम व अर्थ संयम में शक्ति स्रोत – इन्द्रिय, विचार, समय व अर्थ – का ‘सदुपयोग’ करने की कला विकसित करनी होती है एवं ‘दुरूपयोग’ को रोकना होता है।

पदार्थों (स्थूल) से आसक्ति – लोभ, संबंधों (सुक्ष्म) से आसक्ति – मोह व मान्यताओं (कारण) से आसक्ति – अहंकार ही भव बन्धन कहे जाते हैं। आत्मशोधन @ आत्मसाधना @ गायत्री पंचकोशी साधना से ‘मुक्ति’ का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है।

प्रश्नोत्तरी सेशन

धोखा खाना lacking of awareness का result है। दुःख इस बात का नहीं है की आपने धोखा दिया, दुःख इस बात का है की हमने आपको मौका दिया!!
सजगता‘ भी ध्यान का एक अहम भाग है। चेतनात्मक उन्नयन से हम उस आकाश (विराटता) में विचरण करते हैं की – अपने में सबको व सबमें अपने को देखना – संभव बन पड़ता है। ईश्वरीय अनुशासन में ईश्वर के सहचर बन ईश्वर के पसारे इस संसार में कर्तव्यवान् रहें।

ईशावास्य इदं सर्वं‘ – उपासना, साधना व अराधना का क्रम स्व ‘गुण कर्म व स्वभाव’ (faculty) में रहकर स्व कार्यस्थली पर किया जा सकता है।

Any Task – Anytime – Anywhere

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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