Adhyatm Vigyan – 3
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 08 Aug 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
SUBJECT: अध्यात्म विज्ञान – 3
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी
आ॰ विष्णु आनन्द जी
श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी
अध्यात्म विज्ञान की वर्तमान कक्षाओं का उद्देश्य पाठन नहीं प्रत्युत् अध्यात्म के वैज्ञानिक स्वरूप पर शोध (अध्यात्म व विज्ञान की पूरकता) को सर्वसमक्ष रखना है।
शोध की गरिमा एवं विज्ञान की उपलब्धियों का लाभ सही रूप से तब मिल सकेगा। जब वह ‘क्या’ की सीमा से बढ़कर ‘क्यों’ पर विचार करेगा।
ऑरा स्कैनर से घटकों (वस्तु, भवन, प्राणी और मनुष्य) की ऊर्जा और उनका प्रभामंडल मापा जा सकता है।
मनोमय कोष के क्षेत्र में ये “औरा” (विद्युत चुम्बकीय क्षेत्र) आते हैं। मनोमय कोष साधना (जप, ध्यान, त्राटक व तन्मात्रा साधना) इस क्षेत्र – औरा के आयाम को विस्तृत करते हैं।
मनोमय कोष के अनावरण/ उज्जवल बनाने में एकाग्रता संपादन @ मानसिक संतुलन – स्थिरता का महत्वपूर्ण योगदान है। जिसमें तन्मात्रा साधना का प्रभाव महती है।
जिज्ञासा समाधान
मानव, पादप – वृक्ष – वनस्पति, जीव जन्तु सभी पर्यावरण चक्र में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। प्रकृति की सुनियोजित कार्यपद्धति में मानव द्वारा छेड़छाड़ किए जाने पर परिस्थितियां विषम होती है। पर्यावरण संतुलन अस्त व्यस्त हो जाता है। मनुष्य को आधि व्याधियों से जुझना पड़ता है। कितने जीव जंतुओं की प्रजातियां विलुप्त हो गई।
विधेयात्मक चिंतन व तदनुरूप आचरण से अंतरंग परिष्कृत व बहिरंग सुव्यवस्थित बनाया जा सकता है।
कर्मों की श्रृंखला इस प्रकार है – क्रियमाण कर्म का अन्त संचित (fixed deposit) में हो जाता है और संचित में जो फल देने लगते हैं, उनको प्रारब्ध कहते हैं।
मनुष्य का अधिकार क्रियमाण कर्मों पर है। संचित और प्रारब्ध उसकी ही उपलब्धियां हैं। प्रारब्ध पर मनुष्य का कोई अधिकार नहीं।
संचित कर्म को आत्मज्ञान की अग्नि से भस्म किया जा सकता है। @ गीताकार कहते हैं – यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन। ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।।4.37।। अर्थात् – हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती हैं, वैसे ही ज्ञानाग्नि समस्त कर्मों को भस्म कर देता है।
वैदिक कर्मकाण्ड का उद्देश्य स्वयं को प्राणवान बनाना है @ अंतरंग परिष्कृत व बहिरंग सुव्यवस्थित।
‘उपत्यकाएं‘ अन्नमय कोष की बन्धन ग्रंथियां है जो शारीरिक स्थिति को इच्छा अनुकूल रखने में बाधक होती हैं।
अन्नमय कोष को शरीर से बांधने वाली यह उपत्यकाएं शारीरिक एवं मानसिक अकर्मों से उलझ कर विकृत होती हैं तथा सत्कर्मों से सुव्यवस्थित रहती हैं। इन उलझनों को सुलझाने के लिए आहार-विहार का संयम एवं सात्विक रखना दिनचर्या ठीक रखना प्रकृति के आदेशों पर चलना आवश्यक है।
समस्याएं अनेक, समाधान एक – अध्यात्म। काम बीज का उन्नयन – ज्ञान बीज में परिवर्तन। परिष्कृत एवं सोद्देश्य चिंतन – साधना का अनिवार्य अंग है। इसका स्तर जैसे जैसे बढ़ता जाएगा वैसे वैसे आचरण उत्कृष्ट होता जाता है जिसकी परिणति शालीन व्यवहार में देखी जा सकती है।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
No Comments