Adhyatm Vigyan – 4
PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 15 Aug 2021 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
SUBJECT: अध्यात्म विज्ञान – 4
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी
आ॰ चन्दन प्रियदर्शी जी
विज्ञान व अध्यात्म एक ही तत्त्व की विवेचना अलग अलग भाषाओं में करते हैं।
अध्यात्म – मनुष्य के स्वभाव, प्रकृति व संस्कार, अन्तश्चेतना को परिष्कृत करने पर बल देता है।
विज्ञान का क्षेत्र मुख्यतः अभी स्थूल जगत व भौतिक संसार है। वह जीवन की समस्याओं को सुलझाने के लिए अपने ढंग से काम करता है।
विज्ञान और अध्यात्म कई स्तर पर एक समान क्रिया पद्धति अपनाते हैं। उदाहरणार्थ दोनों ही पिछली मान्यताओं के ग़लत होने पर उन्हें अस्वीकार कर देते हैं। दोनों मनुष्य के कल्याण को लक्ष्य बनाकर गतिशील हैं। दोनों सत्य की खोज में निरत हैं। गुरूदेव कहते हैं कि हम परंपराओं की जगह विवेक को महत्व दें।
जब दोनों में इतनी समानताएं है तो विरोध कैसा?
उत्तर: विरोध वहां उत्पन्न हुआ जहां दोनों क्षेत्र के अधिकारी विद्वानों ने पूर्वाग्रहों को पकड़ कर एक दूसरे की उपेक्षा आरंभ कर दी। यह विरोध अधकचरे अध्यात्मवादियों और विज्ञानवादियों में ही है अन्यथा विज्ञान भी उन्हीं तथ्यों की पुष्टि करता है जिनका अध्यात्म।
मनःस्थिति बदले तो परिस्थिति बदले। विधेयात्मक चिंतन @ जैव चुंबकत्व से बाह्य परिस्थितियों को प्रभावित किया जा सकता है। महर्षि रमण, महर्षि अरविन्द, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द आदि महापुरुषों ने सुक्ष्म जगत में विचार तरंगों से हलचल कर जनमानस को झकझोर दिया, जागरूक बनाया।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव में अध्यात्म की उपयोगिता संदिग्ध है। ऐसा अध्यात्म लोकोपयोगी नहीं बन सकता। उसमें अन्धविश्वास, गुढ़ मान्यताएं जड़ जमा लेती है।
विज्ञान भी अध्यात्म के बिना एकांगी अपूर्ण है। सद्विचारों और सद्भावनाओं को विकसित करने का माध्यम अध्यात्म है। प्लेटो ने कहा कि विज्ञान की समग्रता परिपूर्णता अध्यात्म में प्रवेश पर निर्भर करती है। शोध की गरिमा एवं विज्ञान की उपलब्धियों का लाभ सही रूप से तब मिल सकेगा जब वह ‘क्या’ की सीमा से बढ़कर ‘क्यों’ पर विचार करेगा। हिरोशिमा व नागासाकी पर atom bomb का प्रयोग वैज्ञानिक निरंकुशता (आत्मिकता रहित विज्ञान) का एक प्रत्यक्ष उदाहरण है।
प्राचीन काल में सभ्यता व संस्कृति के चरम शिखर पर पहुंचने का कारण यही था कि विज्ञान व अध्यात्म एक दूसरे का पूरक बन कर काम करते रहें। दोनों में में तात्विक दृष्टि से कोई विरोधाभास नहीं है।
आदरणीय भैया ने वैज्ञानिक शोधों और आर्ष ग्रन्थों के निष्कर्षों को समक्ष रखकर सम्यक दृष्टिकोण को विकसित करने का मार्ग प्रशस्त किया है। विज्ञान और अध्यात्म का समन्वय/ मिलन – युगधर्म की आवश्यकता ही नहीं प्रत्युत् अनिवार्यता है।
आ॰ भैया ने सर्व धर्म समन्वय की बात रखी है। सभी एक ही तत्त्व की बात करते हैं बस पंथ अलग अलग हैं। भारतीय दर्शन, वैद, उपनिषद् आदि आर्ष ग्रन्थों में अध्यात्म व विज्ञान का अद्भुत समन्वय है। आवश्यकता है शोधार्थियों (research scholars) की सहभागिता की।
श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी
अद्भुत अप्रतिम उत्कृष्ट कक्षा/ जानकारी के लिए चन्दन प्रियदर्शी भैया को साधुवाद।
‘आत्मिकी‘ @ आत्मसाधना में वह सामर्थ्य है जो ‘जड़ में घुले चेतन’ को प्रभावित करने का सामर्थ्य रखता है। महर्षि अरविन्द, रमण आदि संतों ने सावित्री साधना कर युगांतरकारी चेतना के आविर्भाव में अप्रतिम योगदान के माध्यम बनें।
भौतिक विज्ञान @ प्रतिभा के उपलब्धियों के सदुपयोग हेतु विवेक @ प्रज्ञा व श्रद्धा का अवलंबन लेना होता है। शाश्वत सत्य अपरिवर्तित रहता है। उसकी अनुभूति हेतु तात्विक दृष्टि विकसित करनी होती है @ तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरुवे नमः। इस हेतु विज्ञानमय कोश में 4 क्रियायोग को प्राथमिकता दी गई है:-
1. सोऽहं साधना।
2. आत्मानुभूति योग।
3. स्वर संयम।
4. ग्रन्थि भेदन।
“आत्मा अमर है, शरीर से भिन्न है, ईश्वर का अंश है, सच्चिदानन्द स्वरूप है“। अपने संबंध में तात्विक मान्यता स्थिर करना और उसका पूर्णतया अनुभव करना यही विज्ञान (विशिष्ट ज्ञान) का उद्देश्य है।
मैं शरीर नहीं वस्तुतः “आत्मा ही हूं” उस मनोभूमि को विज्ञानमय कोश कहते हैं।
जीव की विभिन्न स्थिति:-
१. अन्नमय कोश में – वह अपने को स्त्री पुरुष, मनुष्य, पशु, मोटा – पतला, पहलवान, काला, गोरा आदि शरीर सम्बन्धी भेदों से पहचानता है।
२. प्राणमय कोश में – गुणों के आधार पर अपनत्व का बोध। शिल्पी, संगीतज्ञ, वैज्ञानिक, मूर्ख, कायर, शूरवीर, लेखक, वक्ता, धनी, गरीब आदि की मान्यताएं प्राण भूमिका में होती है।
३. मनोमय कोश में – मन की मान्यताएं स्वभाव के आधार पर होती है। लोभी, दंभी, चोर, उदार, विषयी, संयमी, नास्तिक, आस्तिक, स्वार्थी, परमार्थी, दयालु, निष्ठुर आदि कर्तव्य और धर्म की औचित्य – अनौचित्य सम्बन्धी मान्यताएं अपने संबंध में बनती है।
४. विज्ञानमय कोश में – अनुभव करने लगता है कि मैं शरीर से, गुणों से, स्वभाव से ऊपर हूं, मैं ईश्वर का राजकुमार, अविनाशी आत्मा हूं।
जिज्ञासा समाधान
भाषा, संप्रेषण @ विचारों के आदान-प्रदान का एक माध्यम मात्र है। जिस भाषा में संप्रेषण सार्थक व प्रभावी हो उसका प्रयोग किया जा सकता है।
खग जाने खगहि की भाषा। वाणी के ४ प्रकार – बैखरी, मध्यमा, परा व पश्यंति। प्रेषण व ग्रहण करने की सुविधा योग का ध्यान रखा जा सकता है।
आत्मीयतापूर्ण शिक्षण @ मैत्रीवत् कक्षा प्रभावी होती है।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
Writer: Vishnu Anand
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