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AITAREYA UPANISHAD (ऐतरेय उपनिषद्) – 1

AITAREYA UPANISHAD (ऐतरेय उपनिषद्) – 1

🌕 PANCHKOSH SADHNA ~ Online Global Class – 12 Jul 2020 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram – प्रशिक्षक Shri Lal Bihari Singh @ बाबूजी

🙏ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

📽 Please refer to the video uploaded on youtube. https://youtu.be/UMW1EPAYzsI

📔 sᴜʙᴊᴇᴄᴛ. ऐतरेय उपनिषद् – 1

📡 Broadcasting. आ॰ अमन कुमार/आ॰ अंकुर सक्सेना जी

🌞 Shri Lal Bihari Singh

🙏 ऐतरेय उपनिषद् 10 प्रमुख उपनिषदों में सुचीबद्ध हैं। इनके ऋषि ऐतरेय की माता इतरा थीं जो उस समय तथाकथित समाज के ठेकेदारों द्वारा शुद्र कहीं जातीं थीं। जिसकी वजह से बाल्यकाल में महान ऋषि सत्ता को यज्ञ में शुद्र पुत्र कहकर अपमानित किया गया और दक्षिणा से वंचित रखा गया।
माता की प्रेरणा से ऋषि सत्ता ने सविता साधना की, ब्रह्म ज्ञान प्राप्त किया और संपूर्ण जगत को इस उपनिषद् का अनमोल उपहार दिया।

🙏 वेदाचरण मानव मात्र में भेद करना नहीं सिखाता। जब जब धर्म की हानि होती है तब तब परमात्म सत्ता वेदाचरण के स्थापना हेतु अवतरित होते रहे हैं।

📖 Reader. Mrs. Kiran Chawla (USA)

🕉 ऐतरेय उपनिषद् – प्रथम अध्याय (प्रथम खण्ड)

🙏 सबसे पहले एकमात्र यह आत्मा ही था। उसके सिवा सक्रियरूप कोई भी न था । उसने इच्छा की – ‘लोकों का सृजन करूँ’॥१॥

🙏 उसने इन लोकों का सृजन किया – अम्भ, मरीचि, मर और आप। देव से परे और द्यौ जिसकी प्रतिष्ठा है, वह ‘अम्भ’ है। अन्तरिक्ष ‘मरीचि’ है । पृथ्वी ‘मर’ है । जो नीचे स्थित है वह ‘आप’ है॥२॥

🙏 उसने उन लोकों के लोकपालों का सृजन करने की इच्छा की। उसने जल से ही पुरुष निकालकर उसे मूर्तिमान किया॥३॥

🙏 उसने संकल्प रूप तप किया। उस तप से अण्डे के सामान मुख उत्पन्न हुआ। मुख से वाक् और वाक्-इन्द्रिय से अग्नि उत्पन्न हुआ। नासिका रन्ध्र प्रकट हुए, नासिका रन्ध्रों से प्राण और प्राण से वायु प्रकट हुआ। आखें प्रकट हुईं, आँखों से चक्षु-इन्द्रिय और चक्षु से सूर्य प्रकट हुआ। कर्ण प्रकट हुए, कर्णों से श्रोत्र-इन्द्रिय और श्रोत्र से दिशाएँ प्रकट हुईं। त्वचा प्रकट हुई, त्वचा से रोम और रोमों से ओषधि एवं वनस्पतियाँ उत्पन्न हुईं। हृदय प्रकट हुआ, हृदय से मन और मन से चन्द्रमा प्रकट हुआ। नाभि प्रकट हुई, नाभि से अपान और अपान से मृत्यु प्रकट हुआ। शिश्न प्रकट हुआ तथा शिश्न से रेतस् और रेतस् से आप उत्पन्न हुआ॥४॥

🕉 द्वितीय खण्ड

🙏 इस प्रकार सृजित ये सब देवता इस महान् समुद्र को प्राप्त होकर भूख और प्यास से संयुक्त कर दिए गए। वे उससे बोले – ऐसे आश्रयस्थान की व्यवस्था करें, जिसमें स्थित रहकर अन्न का भक्षण कर सकें॥१॥

🙏 उनके लिए गौ लाये। उन्होंने कहा कि यह हमारे लिए पर्याप्त नही है। उनके लिए अश्व लाये। उन्होंने कहा कि यह हमारे लिए पर्याप्त नही है॥२॥

🙏 उनके लिए पुरुष लाये। उन्होंने कहा यह बहुत सुन्दर बना है। निश्चय पुरुष ही सुन्दर रचना है। उसने कहा – ‘अपने-अपने आश्रयस्थान में प्रवेश कर जाओ’॥३॥

🙏 अग्नि वाक् होकर मुख में प्रवेश कर गया। वायु प्राण होकर नासिका रन्ध्रों में प्रवेश कर गया। सूर्य चक्षु होकर आँखों में प्रवेश कर गया। दिशा श्रोत्र होकर कानों में प्रवेश कर गया। ओषधि और वनस्पति रोम होकर त्वचा में प्रवेश कर गए। चन्द्रमा मन होकर हृदय में प्रवेश कर गया। मृत्यु अपान होकर नाभि में प्रवेश कर गया । जल रेतस् होकर शिश्न में प्रवेश कर गया॥४॥

🙏 भूख-प्यास ने उससे कहा कि हमारे लिए भी व्यवस्था करें। वह बोला – ‘तुम्हें इन देवताओं में ही भाग दूँगा, इन्हीं का भागीदार बनाता हूँ’। अतः जिस किसी देवता के लिए हवि ग्रहण की जाती है, उसमें भूख और प्यास दोनों ही भागीदार होती हैं॥५॥

🕉 तृतीय खण्ड

🙏 उसने इच्छा की – ‘अब इन लोक और लोकपालों के लिए अन्न की रचना करूँ’॥१॥

🙏 उसने अप् (जल) के माध्यम से तप किया। उस तपे हुए जल से मूर्ति उत्पन्न हुई। वह जो मूर्ति उत्पन्न हुई वही अन्न है ॥२॥

🙏 रचा गया वह अन्न उससे विमुख होकर भागने की इच्छा करने लगा। तब उसने वाणी द्वारा उसे ग्रहण करने की चेष्टा की। वाणी द्वारा ग्रहण न कर सका। यदि वह वाणी द्वारा ही इसे ग्रहण लेता तो फिर अन्न का वर्णन करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता॥३॥

🙏 उसे प्राण से ग्रहण करने की चेष्टा की। प्राण से ग्रहण न कर सका। यदि वह प्राण से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न के लिए प्राणक्रिया करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता॥४॥

🙏 उसे चक्षु से ग्रहण करने की चेष्टा की। चक्षु से ग्रहण न कर सका। यदि वह चक्षु से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न को देखने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता॥५॥

🙏 उसे श्रोत्र से ग्रहण करने की चेष्टा की। श्रोत्र से ग्रहण न कर सका। यदि वह श्रोत्र से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न को सुनने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता॥६॥

🙏 उसे त्वचा से ग्रहण करने की चेष्टा की। त्वचा से ग्रहण न कर सका। यदि वह त्वचा से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न को स्पर्श करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता॥७॥

🙏 उसने मन से ग्रहण करने की चेष्टा की। मन से ग्रहण न कर सका। यदि वह मन से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न का ध्यान करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता॥८॥

🙏 उसे शिश्न से ग्रहण करने की चेष्टा की। शिश्न से ग्रहण न कर सका। यदि वह शिश्न से ग्रहण कर लेता तो फिर अन्न का विसर्जन करने मात्र से ही तृप्त हुआ जा सकता॥९॥

🙏 उसे अपान से ग्रहण करने की चेष्टा की। उसको ग्रहण कर लिया। यह ही अन्न का गृह है। जो वायु अन्न से सम्बन्धित आयु के लिए प्रसिद्ध है यही वह है॥१०॥

🙏 उसने विचार किया – ‘यह मेरे बिना कैसे रहेगा’। यदि वाणी द्वारा बोल लिया जाए, प्राण द्वारा प्राणन कर लिया जाय, यदि चक्षु द्वारा देख लिया जाय, यदि कान से सुन लिया जाय, यदि त्वचा से स्पर्श कर लिया जाय, यदि मन से चिन्तन कर लिया जाय, यदि अपान से भक्षण कर लिया जाय और शिश्न से विसर्जन कर लिया जाय, तब मैं कौन हुआ? उसने इच्छा की – ‘किस मार्ग से प्रवेश करूँ’॥११॥

🙏 उसने इसकी सीमा को विदीर्ण कर द्वार प्राप्त किया । वह यह द्वार ‘विद्रति’ नामवाला है। वही यह आनन्द देने वाला है। उसके तीन आश्रयस्थान ही तीन स्वप्न हैं। यही आश्रय है, यही आश्रय है, यही आश्रय है॥१२॥

🙏 तब उस जन्म पाये हुए ने भूत-जगत को ग्रहण किया और कहा – ‘यहाँ दूसरा कौन है’। उसने इस पुरुष को ही ब्रह्मरूप से देखा । ‘मैंने इसे देख लिया’॥१३॥

🙏 इसलिए वह इदन्द्र नाम वाला हुआ। इदन्द्र ही उसका नाम हैं। इदन्द्र होने पर भी उसे परोक्षरूप से इन्द्र ही पुकारते हैं, क्योंकि देव परोक्षप्रिय ही होते हैं, क्योंकि देव परोक्षप्रिय ही होते हैं॥१४॥

🌞 Shri Lal Bihari Singh

🙏 उपनिषद् कार ने विवेचना का आरंभ “एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति” से की है अर्थात् सर्वप्रथम ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ भी नहीं था।

🙏 फिर “एकोऽहं बहुस्याम्” अर्थात् सत् चित् आनन्द स्वरूप परमात्मा ने इच्छा पूर्वक संसारों की रचना की।
अब सृष्टि के सृजन (creation) के क्रम को उपनिषद् कारों ने अपने अपने तरीके से व्याख्या की है अतः इसके सिद्धांतों में ना उलझें।
उद्देश्य कण कण में उपस्थित उस “अपरीमित, असीमित, ‘सत् – चित्त – आनन्द‘, ज्ञान स्वरूप अपरिवर्तन शील चैतन्य आत्म सत्ता – परमात्म सत्ता” का बोधत्व है।

🙏 क्रमशः सृजन के क्रम में – “४ लोकों, लोकपालों (protectors), संकल्प रूप तप से, पंच महाभूत, इन्द्रियां उनके देवता, प्राण, अंतःकरण, सूर्य – चन्द्र, दिशायें, जीव जंतु, भूख – प्यास, आश्रय स्थान” के creation के क्रम को अलंकारिक (रूपक अलंकार) विवेचन किया है।

🙏 अंततः सर्वश्रेष्ठ कृति पुरुष (मनुष्य) की रचना की गयी जिसमें सारी देव शक्तियां प्रवेश हो गयीं जिसका अलंकारिक विवेचन गुण – धर्म के अनुरूप उपनिषद् कार ने किया है।

🙏 जीवित वहीं हैं जिनका “खुन – गर्म, हृदय – नरम व दिमाग – ठंडा” हो।

🙏 मनोमय कोश – angle of vision, विज्ञानमय कोश – angle of emotion एवं आनन्दमय कोश – angle of non-difference @ Unconditional love को उज्ज्वल/ परिष्कृत/ शानदार बनाने की साधना है।

🙏 तृतीय खण्ड में अन्न ग्रहण की विधा का अलंकारिक विवेचन किया गया है। अपान को मुख व इदन्द्र को आत्मा भी कहा गया है।

🙏 उद्देश्य सृजन के क्रम के विज्ञान को समझना है जो गलाई के विधा को जानते हैं वही ढलाई कर सकते हैं।
🙏 उपनिषद् विज्ञान को सरलीकृत और सुपाच्य रूप में सर्व समक्ष रखना हम शोधार्थियों का उद्देश्य होना चाहिए। यह ‘सत्-चित्त-आनन्द‘ का अथाह ज्ञानात्मक स्रोत (resource) है।

🌞 Q & A with Shri Lal Bihari Singh

🙏 आत्मपरमात्म साक्षात्कार हेतु १०८ विधाओं को १०८ उपनिषद् के माध्यमों से ब्रह्मवेत्ताओं ने हमारे समक्ष रखा है जिसका एकमात्र उद्देश्य यह है की आत्म दर्शनपरमात्म दर्शन हमारा जन्मसिद्ध कर्त्तव्य/अधिकार है और हमें इस हेतु सदैव प्रस्तुत रहना चाहिए।
🙏 विचारों की शुन्यता भी कुंभक है।

🙏 ज्ञान की सबसे शुद्धतम् (purest) अवस्था ~ सत्, आत्म-शक्ति ~ चित्त व परमात्म-शक्ति ~ आनन्द स्वरूप परमात्मा के शाश्वत स्वरूप का बोध कराती हैं।

🙏 गायत्री को कामधेनु, पारस, ब्रह्मास्त्र, कल्पवृक्ष भी कहा गया है। किसी भी गुण-धर्म के व्यक्तित्व को गायत्री साधना मनोवांछित फल देती हैं – …. जो जो शरण तुम्हारी आवें, सो सो मनवांछित फल पावें …..। आयुः प्राणं प्रजां पशुं कीर्तिं द्रविणं ब्रह्मवर्चसं मह्यम दत्वा ब्रजत् ब्रह्मलोकं।
🙏 Unconditional love आनंदमय कोश की साधना है। नीचे जीव भाव तो उपर शिव भाव।

🙏 ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ||

🙏Writer: Vishnu Anand 🕉