Aitareya Upanishad (ऐतरेय उपनिषद्) – 2
🌕 PANCHKOSH SADHNA ~ Online Global Class – 19 Jul 2020 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram – प्रशिक्षक Shri Lal Bihari Singh @ बाबूजी
🙏ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्|
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📔 sᴜʙᴊᴇᴄᴛ. ऐतरेय उपनिषद् – 2
📡 Broadcasting. आ॰ नितिन आहुजा /आ॰ अमन कुमार जी
🌞 Shri Lal Bihari Singh
🙏 आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः। – (बृहदारण्यकोपनिषत् २-४-५)
🙏 नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥
“यह ‘आत्मा’ प्रवचन द्वारा लभ्य नहीं है, न मेधाशक्ति से, न बहुत शास्त्रों के श्रवण से ‘यह’ लभ्य है। यह आत्मा जिसका वरण करता है उसी के द्वारा ‘यह’ लभ्य है, उसी के प्रति यह ‘आत्मा’ अपने कलेवर को अनावृत करता है।
🙏 आत्मा को देखने/ बोधत्व के लिए बाह्य नेत्रों से से नहीं वरन् अंतः ज्ञान चक्षु को जाग्रत करना होता है।
🙏 मनोमयकोश को पार करने में उज्जवल बनाने में पूर्वगत संस्कार (अवचेतन मन) बहुत बड़ी बाधा है।
🙏 नकारात्मकता (negativity) chronic disorders के मुख्य कारणों में एक हैं। प्रज्ञोपनिषद् में वर्णित है – अचिंत्यचिंत्याजाता अयोग्यश्चरणास्तथा। फलतः रोग शोकार्दि कलह क्लेश नाशजम्।। अचिंत्य चिंतन और अयोग्य आचरण ही सभी समस्याओं की मूल हैं।
🙏 मन को नियंत्रित करने में तन्मात्रा साधना रामवाण है। अहरह स्वाध्याय अपने रोल मॉडल संतों महात्माओं के सद् साहित्यों का अध्ययन कर देखें की हम कितने करीब हैं उन आदर्शों के।
📖 Reader. Mrs. Kiran Chawla (USA)
🕉 ऐतरेय उपनिषद् – द्वितीय अध्याय
📖 सबसे पहले यह पुरुष शरीर में ही गर्भरूप से रहता है । यह जो रेतस् (semen) है, वह सभी अंगों का तेज है, आत्मभाव से उसे स्वयं में ही धारण करता है। जब उसको स्त्री में सिंचन करता है, तब उसको ही उत्पन्न करता है। यही इसका पहला जन्म है ॥१॥
📖 वह स्त्री के ही आत्म भाव को प्राप्त हो जाता है, जिस प्रकार स्वयं का अंग होता है। इसी कारण (the foetus) उसे पीड़ा नहीं देता। वह यहाँ आये हुए उस आत्म का पालन करती है (the foetus)॥२॥
📖 तब वह पोषण करने वाली, स्वयं भी पोषण के योग्य होती है। वह स्त्री गर्भ धारण करती है। वह कुमार के रूप में जन्म लेता है, उन्नति करता है। इस प्रकार वह आत्म ही कुमाररूप में जन्म लेता हुआ और उन्नति करता हुआ लोकों का विस्तार करता है। इस प्रकार लोक में संतति रूप से यह ही दूसरा जन्म है ॥३॥
📖 वह यह आत्म उसके पुण्यों का प्रतिनिधि हो जाता है । और इसका वह अन्य आत्म कर्तव्यों को पूर्ण करके, आयु पूरी होने पर प्रस्थान करता है। और यहाँ से जाकर ही फिर पुनः जन्म लेता है, यह इसका तीसरा जन्म है ॥४॥
📖 यही बात ऋषि ने कही है – ‘मैंने गर्भ में रहते हुए ही इन देवताओं के समस्त जन्मों को जान लिया है। मुझे सैकड़ों लोहे के समान कठोर शरीरों ने अवरुद्ध कर रखा था अब मैं बाज़ पक्षी के समान वेग से सबको तोड़ता हुआ बाहर निकल आया हूँ’। गर्भ में सोए हुए ही वामदेव ऋषि ने इस प्रकार यह कहा ॥५॥
📖 इस प्रकार जानने वाला वह इस शरीर को भेदकर, ऊपर की ओर उत्क्रमण करके उस स्वर्गलोक में समस्त कामनाओं से तृप्त होकर अमृत हो गया, हो गया ॥६॥
🕉 ऐतरेय उपनिषद् – तृतीय अध्याय
📖 कौन है वह आत्मा जिसकी हम उपासना करते हैं? कौन है वह आत्मा जिससे देखा जाता है, जिससे सुना जाता है, जिससे गन्ध को सूँघा जाता है, जिससे वाणी को व्याकरित किया जाता है, जिससे स्वाद और आस्वाद को जाना जाता है?॥१॥
📖 यह जो हृदय है वही मन भी है । संज्ञान्, आज्ञान्, विज्ञान, प्रज्ञान, मेधा, द्रष्टि, धृति, मति, मनीषा, जूति, स्मृति, संकल्प, क्रतु, असु, काम और वश – ये सब के सब प्रज्ञान् के ही नामधेय हैं ॥२॥
📖 यह ब्रह्म है, यह इन्द्र है, यही प्रजापति है, यही समस्त देव और पृथ्वी, वायु, आकाश, जल, तेज – ये पाँच महाभूत है, यही क्षुद्र जीवों सहित उनके बीज और अण्डज, जरायुज, स्वेदज, उद्भिज्ज, अश्व, गौ, हाथी, एवं मनुष्य है तथा जो कुछ भी यह पँखों वाले, जंगम और स्थावर, प्राणि वर्ग हैं वह सब प्रज्ञानेत्र हैं। प्रज्ञान में ही प्रतिष्ठित प्रज्ञानेत्र लोक है। प्रज्ञा ही प्रतिष्ठा है, प्रज्ञान ही ब्रह्म है ॥३॥
📖 वह इस लोक से उत्क्रमण कर उस स्वर्ग लोक में इस प्रज्ञानरूप आत्म सहित सभी कामनाओं से तृप्त हो अमृत हो गया, हो गया ॥४॥
🌞 Shri Lal Bihari Singh
🙏 ऐतरेय ऋषि प्रखर scientist/ ब्रह्मवेत्ता हैं। वीर्य/ रेतस् (semen) सभी अंगों का रस/ तेज है अतः इसे अंगिरस के नाम से भी जाना जाता है।
🙏 रेतस् का जब स्त्री में सिंचन किया जाता है तब गर्भाशय में foetus के रूप में प्रथम जन्म है।
अतः हमारे ऋषियों ने गर्भ धारण से ही संस्कार विधि विज्ञान की परिपाटी रखी। गुरुदेव ने वर्तमान में पुंसवन संस्कार की बात रखी।
🙏 गर्भिणी – सुर्योपासना/ गायत्री साधना, स्वाध्याय, समुचित आहार- विहार रखने से तेजस्वी संतति की उत्पत्ति होती है। यह दुसरा जन्म है।
🙏 मस्तिष्क स्व नहीं वरन् वैश्विक संपत्ति है; अतः इसे हम निरर्थक चिंतन में प्रयुक्त नहीं कर सकते वरन् सार्थक चिंतन – मनन में निरत रखेंगे।
💡 सद्ज्ञान @ शिव एवं सत्कर्म @ शक्ति के मिलन से ही आनन्द प्राप्त होता है।
🙏 माता-पिता ~ तेजस्वी संतति की उत्पत्ति कर स्वयं का ही विस्तार करते हैं। और वयोवृद्ध होकर शरीर का त्याग कर पुनः जन्म लेते हैं, यह तीसरा जन्म है।
🙏 वामदेव ऋषि ने गर्भ में ही पंचकोशों को परिमार्जित कर उज्जवल बना लिया।
🙏 संतति जन्म लेने के बाद भी विज्ञान की साधना करके यथार्थता का बोधत्व कर सकते हैं।
गायत्री मंजरी – यथावत् पूर्णतो ज्ञानं संसारस्य च स्वस्य च।नूनामित्येब विज्ञानं प्रोक्तं विज्ञान वेतृभिः।24। अर्थात् संसार का और अपना ठीक ठीक और पूरा पूरा ज्ञान होने को ही विज्ञान वेत्ताओं ने विज्ञान कहा है।
🙏 प्रज्ञा नेत्रों से ही आत्मबोधत्व होता है अतः अंत में प्रज्ञान को ही ब्रह्म कहा गया है।
💐 Q & A with Shri Lal Bihari Singh
🙏 जन्म – जन्मान्तरों के संस्कारों @ अभ्यस्त ढर्रे के परिमार्जन में परम पुरुषार्थ (आत्म समीक्षा + आत्मसुधार + आत्मनिर्माण) की आवश्यकता होती है। हमें सतत अभ्यास करते रहना चाहिए।
🙏 प्राणमयकोश में bioelectric, मनोमयकोश में biomagnetic system को शानदार बनाते हुए अल्फा स्टेट में विज्ञानमयकोश में प्रवेश होता है जहां स्वार्थ का रूपांतरण आत्मीयता, सद्भावना, श्रद्धा, महानता आदि में होता है। अन्नमयकोश के बाद चक्रों व उपचक्रों की साधना शुरू हो जाती है।
🙏 24 घंटे हमें पंच भहाभूतों के सुक्ष्म विषय पंच तन्मात्रा (शब्द, रूप, रस, गंध व स्पर्श) से दो चार होते रहते हैं। अतः तन्मात्रा साधना हेतु हमारे पास व्यापक प्लेटफार्म है। पूर्व में एक एक तन्मात्रा पर डिटेल में कक्षाएं ली जा चुकी हैं जिसका रिफ्रेंश लेकर अभ्यास किया जा सकता है।
🙏 पंचकोश साधना से क्रमशः ‘स्थूल, सुक्ष्म, कारण सत्ता’ की यथार्थता का बोधत्व होता है और अन्ततः सार्वभौम सत्य के दर्शन होते हैं। विज्ञानमय कोश की साधना में जड़ जगत से भी बातचीत कर आत्म विस्तार किया जाता है। आत्म प्रतीति – अपने में सबको और सबमें अपने को देखना है।
🙏 यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन।
ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा।। 4/37।। अर्थ : हे अर्जुन ! जैसे प्रज्वलित अग्नि ईंधन को भस्म कर देती हैं, वैसे ही ज्ञानाग्नि समस्त कर्मों को भस्म कर देता है।
🙏 लक्ष्य/ उद्देश्य को अर्जुन के तरह केंद्र में रखते हुए निष्काम भाव से अभ्यासरत् रहें। प्रज्ञोपनिषद् में इस हेतु ४ उपाय एकांत चिंतन – मनन, स्वाध्याय – सत्संग बताये गये हैं।
🙏 ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।।
🙏Writer: Vishnu Anand 🕉
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