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Amritnaad Upanishad – 1

Amritnaad Upanishad – 1

PANCHKOSH SADHNA – Online Global Class – 30 May 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

SUBJECT: अमृतनाद उपनिषद् – 1

Broadcasting: आ॰ अंकुर जी

टीकावाचन: आ॰ किरण चावला जी (USA)

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

गायत्री मंजरी

आनन्दावरणोत्यात्यशांति – प्रदायिका। तुरीयावस्थितर्लोके साधकं त्वधिगच्छति।। भावार्थ: आनन्द आवरण की उन्नति से अत्यंत शांति को देने वाली तुरीयावस्था, साधक को संसार में प्राप्त होती है।

नाद विन्दु कलानां तु पूर्ण साधनया खलु। नन्वान्नदमयः कोशः साधके हि प्रबुध्यते। भावार्थ: नाद, बिन्दु और कला की पूर्ण साधना से साधक का आनन्दमय कोश जाग्रत होता है।

अमृतनाद उपनिषद् (मंत्र सं॰ 1 – 21)

अमृतनादोपनिषत् शास्त्राण्यधीत्य मेधावी अभ्यस्य च पुनः पुनः। परमं ब्रह्म विज्ञाय उल्कावत्तान्यथोत्सृजेत्॥१॥ भावार्थ: परम ज्ञानवान् मनुष्य का यह कर्तव्य है कि वह शास्त्रादि का अध्ययन करके बारम्बार उनका अभ्यास करते हुए ब्रह्म विद्या की प्राप्ति करे। विद्युत् की कान्ति के समान क्षण-भंगुर इस जीवन को  नष्ट न करे।।
पचाने हेतु जुगाली करना अर्थात् बारंबार  चिंतन-मनन। जो शत बार पाठ करे कोई, छूटहि बंदी महा सुख होई। शत बार अर्थात् सहस्रार तक अपनी पहुंच बनें @ शाश्वत सत्य के साक्षात्कार तक। अध्ययन के पश्चात concept त्राटक। आत्मनिर्माण ही भाग्य-निर्माण है। आत्मनिर्माणी ही विश्वनिर्माणी होते हैं। अहरह स्वाध्याय (अध्ययन + चिंतन-मनन + निदिध्यासन)।

ओङ्कारं रथमारुह्य विष्णुं कृत्वाथ सारथिम्। ब्रह्मलोकपदान्वेषी रुद्राराधनतत्परः॥२॥ भावार्थ: ॐकार रूपी रथ में आरूढ़ होकर तथा भगवान् विष्णु को अपना सारथि बनाकर ब्रह्मलोक के परमपद का चिन्तन करता हुआ ज्ञानी पुरुष देवाधिदेव भगवान् रुद्र की उपासना में तल्लीन रहे॥
ईश्वरीय अनुशासन में ईश्वर के सहचर बन ईश्वरमय हो जायें।

तावद्रथेन गन्तव्यं यावद्रथपथि स्थितः। स्थित्वा रथपथस्थानं रथमुत्सृज्य गच्छति॥३॥  भावार्थ: उस रथ के द्वारा तब तक चलना चाहिए, जब तक कि रथ द्वारा चलने योग्य मार्ग पूर्ण न हो जाये। जब वह मार्ग पूर्ण हो जाता है, तब उस रथ को छोड़ कर मनुष्य स्वतः ही प्रस्थान कर जाता है॥
‘साधन’ की पहुंच एक सीमा तक है उसके बाद साधन छूट जाते हैं।

मात्रालिङ्गपदं त्यक्त्वा शब्दव्यञ्जनवर्जितम्। अस्वरेण मकारेण पदं सूक्ष्मं च गच्छति॥४॥ भावार्थ: प्रणव की अकारादि जो मात्राएँ हैं तथा उनमें जो लिङ्गभूत पद हैं, उन सभी के आश्रयभूत संसार का चिन्तन करते हुए उसका त्याग कर, स्वरहीन ‘मकार’ वाची ईश्वर का ध्यान करने से साधक की क्रमशः उस सूक्ष्म पद में प्रविष्टि हो जाती है। वह परम तत्त्व सभी प्रपंचों से पूर्णतया दूर है।।
ॐ = अ + उ + म्। त्रिगुणात्मक संतुलन। सियाराम मय सब जग जानी @ सायुज्यता।

शब्दादिविषयाः पञ्च मनश्चैवातिचञ्चलम्। चिन्तयेदात्मनो रश्मीन्प्रत्याहारः स उच्यते॥५॥ भावार्थ: शब्द, स्पर्श आदि पाँचों विषय तथा इनको ग्रहण करने वाली समस्त इन्द्रियाँ एवं अति चंचल मन- इनको सूर्य के सदृश अपनी आत्मा की रश्मियों के रूप में देखें अर्थात् आत्मा के प्रकाश से ही मन की सत्ता है और उसी प्रकाश स्वरूप आत्मा को बाह्य सत्ता से शब्द आदि विषय भी सत्तावान् हैं। इस प्रकार से आत्म-चिन्तन को ही प्रत्याहार कहते हैं॥
तन्मात्रा साधना। सुख – दुख @ राग – द्वेष पदार्थ जगत में नहीं प्रत्युत् हमारे ‘मन’ में निवास करते हैं। सारा संसार दर्पणों की गुफा है इसमें जीव स्वयं के भाव अनुरूप अपने ही प्रतिबिंब को संसार में देखता है। जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी अर्थात जिसकी जैसी दृष्टि होती है, उसे वैसी ही मूरत नज़र आती है। छिलके (पंचावरण) तक ही सीमित नहीं रहें प्रत्युत बीज (आत्मा) तक अपनी पहुंच बनाया जाये। यह ‘प्रत्याहार’ है। अभ्यासेन तु कौन्तेय, वैराग्येण च गुह्यते।

प्रत्याहारस्तथा ध्यानं प्राणायामोऽथ धारणा। तर्कश्चैव समाधिश्च षडङ्गो योग उच्यते॥६॥ भावार्थ: प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, तर्क तथा समाधि इन छ: अंगों से युक्त साधना को योग कहा गया है॥ @ षष्टांग योग।

यथा पर्वतधातूनां दह्यन्ते धमनान्मलाः। तथेन्द्रियकृता दोषा दह्यन्ते प्राणनिग्रहात्॥७॥ भावार्थ: जिस प्रकार पर्वतों में उत्पन्न स्वर्ण आदि धातुओं का मैल अग्नि में तपाने से भस्म हो जाता है। उसी प्रकार समस्त इन्द्रियों के द्वारा किये गये दोष प्राणायाम की प्रक्रिया द्वारा भस्म हो जाते हैं॥
प्राणायाम अपने ताप से दोष दुर्गुणों को भर्गो @ भूंज डालता है, निष्पाप बना देता है। प्राण का जागरण महान जागरण है।

प्राणायामैर्दहेद्दोषान्धारणाभिश्च किल्बिषम्। प्रत्याहारेण संसर्गाद्ध्यानेनानीश्वरान्गुणान्॥८॥ भावार्थ: प्राणायाम के माध्यम से दोषों को तथा धारणा के माध्यम से पापों को जलाकर भस्म कर डालें। प्रत्याहार के द्वारा इन्द्रिय के संसर्ग से उत्पन्न दोष तथा ध्यान के द्वारा अनीश्वरीय गुणों का नाश होता है॥ @ धारणा से ईश्वरीय साहचर्य व प्रत्याहार से अनासक्त भाव लभ्य होता है।

किल्बिषं हि क्षयं नीत्वा रुचिरं चैव चिन्तयेत्॥९॥ भावार्थ: इस प्रकार संचित पापों एवं उन इन्द्रियों के कुसंस्कारों का शमन करते हुए अपने इष्ट के मनोहारी रूप का चिन्तन करना चाहिए॥ @ उपासना।

रुचिरं रेचकं चैव वायोराकर्षणं तथा। प्राणायामस्त्रयः प्रोक्ता रेचपूरककुम्भकाः॥१०॥ भावार्थ: इस प्रकार अपने इष्ट के सुन्दर रूप का ध्यान करते हुए वायु को अन्त:करण में स्थिर रखना, श्वास को निःसृत करना और  वायु को अन्दर खींचना। इस प्रकार रेचक, पूरक एवं अन्त:-बाह्य कुम्भक के रूप में तीन तरह के प्राणायाम कहे गये हैं॥

सव्याहृतिं सप्रणवां गायत्रीं शिरसा सह। त्रिः पठेदायतप्राणः प्राणायामः स उच्यते॥११॥ भावार्थ: प्राण शक्ति की वृद्धि करने वाला साधक व्याहृतियों एवं प्रणव सहित सम्पूर्ण गायत्री का उसके शीर्ष भाग सहित तीन बार मानस-पाठ करते हुए पूरक, कुम्भक तथा रेचक करे। इस प्रकार की प्रक्रिया को एक ‘प्राणायाम’ कहा गया है॥

उत्क्षिप्य वायुमाकाशं शून्यं कृत्वा निरात्मकम्। शून्यभावेन युञ्जीयाद्रेचकस्येति लक्षणम्॥१२॥ भावार्थ: प्राणवायु को आकाश में निकालकर हृदय को वायु से रहित एवं चिन्तन से रिक्त करते हुए शून्यभाव में मन को स्थिर करने की प्रक्रिया ही ‘रेचक’ है। यही ‘रेचक प्राणायाम’ का लक्षण है॥

वक्त्रेणोत्पलनालेन तोयमाकर्षयेन्नरः। एवं वायुर्ग्रहीतव्यः पूरकस्येति लक्षणम्॥१३॥ भावार्थ: जिस प्रकार पुरुष मुख के माध्यम से कमल-नाल द्वारा शनैः-शनैः जल को ग्रहण करता है, उसी प्रकार मन्द गति से प्राण वायु को अपने अन्त:करण में धारण करना चाहिए। यही प्राणायाम के अन्तर्गत ‘पूरक’ का लक्षण हैं॥

नोच्छ्वसेन्न च निश्वासेत् गात्राणि नैव चालयेत्। एवं भावं नियुञ्जीयात् कुम्भकस्येति लक्षणम्॥१४॥ भावार्थ: श्वास को न तो अन्त:करण में आकृष्ट करे और न ही बहिर्गमन करे तथा शरीर में कोई हलचल भी न करे। इस तरह से प्राण वायु को रोकने की प्रक्रिया को ‘कुम्भक’ प्राणायाम का लक्षण कहा गया है॥

अन्धवत्पश्य रूपाणि शब्दं बधिरवत् शृणु। काष्ठवत्पश्य ते देहं प्रशान्तस्येति लक्षणम्॥१५॥ भावार्थ: जिस भाँति अन्धे को कुछ भी दृष्टिगोचर नहीं होता, उसी भाँति साधक नाम रूपात्मक अन्य कुछ भी न देखे। शब्द को बधिर की भाँति श्रवण करे और शरीर को काष्ठ की तरह जाने । यही प्रशान्त का लक्षण है॥

मनः सङ्कल्पकं ध्यात्वा संक्षिप्यात्मनि बुद्धिमान्। धारयित्वा तथाऽऽत्मानं धारणा परिकीर्तिता॥१६॥ भावार्थ: बुद्धिमान् मनुष्य मन को संकल्प के रूप में जानकर, उसे आत्मा (बुद्धि) में लय कर दे। तत्पश्चात् उस आत्मारूपी सद्बुद्धि को भी परमात्म सत्ता के ध्यान में स्थिर कर दे। इस तरह की क्रिया को ही धारणा की स्थिति के रूप में जाना जाता है॥

आगमस्याविरोधेन ऊहनं तर्क उच्यते। समं मन्येत यं लब्ध्वा स समाधिः प्रकीर्तितः॥१७॥ भावार्थ: ‘ऊहा’ अर्थात् विचार करना ‘तर्क’ कहा जाता है। ऐसे ‘तर्क’ को प्राप्त करके दूसरे अन्य सभी प्राप्त होने वाले पदार्थों को तुच्छ (निकृष्ट) मान लिया जाता है। इस प्रकार की स्थिति को ही ‘समाधि’ की अवस्था कहा जाता है॥

भूमिभागे समे रम्ये सर्वदोषविवर्जिते। कृत्वा मनोमयीं रक्षां जप्त्वा चैवाथ मण्डले॥ पद्मकं स्वस्तिकं वापि भद्रासनमथापि वा। बद्ध्वा योगासनं सम्यगुत्तराभिमुखः स्थितः॥ नासिकापुटमङ्गुल्या पिधायैकेन मारुतम्। आकृष्य धारयेदग्निं शब्दमेवाभिचिन्तयेत्॥१८-२०॥ भावार्थ: भूमि को स्वच्छ, समतल करके रमणीय तथा सभी दोषों से रहित क्षेत्र में मानसिक रक्षा करता हुआ रथमण्डल का जप करे॥ पद्मासन, स्वस्तिकासन और भद्रासन में से किसी एक योगासन में आसीन होकर उत्तराभिमुख हो करके बैठना चाहिए॥ तत्पश्चात् नासिका के एक छिद्र को एक अँगुली से बन्द करके , दूसरे खुले छिद्र से वायु को खींचे। फिर दोनों नासापुटों को बन्द करके उस प्राण वायु को धारण करे। उस समय तेज:स्वरूप शब्द (ओंकार) का ही चिन्तन करे॥

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म ओमित्येकेन रेचयेत्। दिव्यमन्त्रेण बहुशः कुर्यादात्ममलच्युतिम्॥२१॥ भावार्थ: वह शब्द रूप एकाक्षर प्रणव ही ब्रह्म है। तदनन्तर इसी एकाक्षर ब्रह्म ॐकार का ही ध्यान करता हुआ रेचक क्रिया सम्पन्न करे अर्थात् वायु का शनैः-शनैः निष्कासन करे। इस तरह से कई बार इस ‘ओंकार’ रूपी दिव्य मन्त्र से अपने चित्त के मल को दूर करना चाहिए॥

प्राणाकर्षण प्राणायाम।  विचार शुन्यता @ अहं जगद्वा सकलं शुन्यं व्योमं समं सदा। गायत्री महामंत्र संदोहन मंत्र है। प्राणायाम को Meditational process में जोड़ें।

जिज्ञासा समाधान

स्थितप्रज्ञता‘ की स्थिति में immunity इतनी strong हो जाती है की side affects से बचाव हो जाता है।

तादातम्य‘, tuning बिठाने की journey है। Simplicity, awareness से यात्रा सहज होती है। सायुज्यता बिठाने तक की journey है।

तन्मात्रा साधना‘ में शब्द, रूप, रस, गंध व स्पर्श के variability को साधक समझते हुए देखते हुए ‘अंधा’ व सुनते हुए ‘बधिर’ की भांति अर्थात् अनासक्त भाव में जीते हैं। शान्ताकारम भुजगशयनं …. भुजगशयनं अर्थात् परिवर्तनशील संसार में कर्तव्यरत् होते हुए भी शान्ताकारम @ अथाह शांति। कठोपनिषद् –  अशब्दमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत्। अनाद्यनन्तं महतः परं ध्रुवं निचाय्य तन्मृत्युमुखात् प्रमुच्यते॥1-III-15॥ भावार्थ: जो शब्दरहित, स्पर्शरहित, रूपरहित, रसरहित और गंधरहित है। अविनाशी, नित्य, अनादि, अनन्त है। महत् से भी परे और ध्रुव है । उसे जानकर पुरुष मृत्यु के मुख से छूट जाता है॥ 

‘विचार-शुन्यता’ की स्थिति में ‘मन’ का ज्ञानात्मा ‘प्रज्ञा-बुद्धि’ में लय हो जाता है। इसे ‘धारणा’ की स्थिति से समझा जाता है। कठोपनिषद – यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेज्ज्ञान आत्मनि। ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत्तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि॥1-III-13॥ भावार्थ: बुद्धिमान वाक् को मन में विलीन करे। मन को ज्ञानात्मा अर्थात बुद्धि में लय करे। ज्ञानात्मा बुद्धि को महत् में विलीन करे और महत्तत्व को उस शान्त आत्मा में लीन करे॥

साधो सहज समाधि भली। Theory & practical को साथ लेकर चलने से बात बनती है। केवल ‘तर्क’ से ईश्वर को नहीं पाया जाता। कठोपनिषद् – नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वृणुते तेन लभ्यः तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूँ स्वाम्॥1-II-23॥ भावार्थ: सुनने से ही प्राप्त हो सकता है । जिसको यह स्वीकार कर लेता है उसके द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। उसके प्रति वह आत्मा अपने स्वरुप को प्रकट कर देता है॥

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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