गायत्री के पांच मुख पांच दिव्य कोश : अन्नमय कोश -१
गायत्री के पांच मुखों मे आत्मा के पांच कोशों मे प्रथम कोश का नाम ‘ अन्नमय कोश’ है | अन्न का सात्विक अर्थ है ‘ पृथ्वी का रस ‘| पृथ्वी से जल , अनाज , फल , तरकारी , घास आदि पैदा होते है | उन्ही से दूध , घी , माँस आदि भी बनते हैं | यह सभी अन्न कहे जाते हैं , इन्ही के द्वारा रज , वीर्य बनते हैं और इन्ही से इस शरीर का निर्माण होता है | अन्न द्वारा ही देह बढ़ती है और पुष्ट होती है और अंत मे अन्न रूप पृथ्वी मे ही भष्म होकर या सड़ गल कर मिल जाती है | अन्न से उत्पन्न होने वाला और उसी मे जाने वाला यह देह इसी प्रधानता के कारण ‘अन्नमय कोश ‘ कहा जाता है |
यहाँ एक बात ध्यान रखने की है की हाड -माँस का जो यह पुतला दिखाई पड़ता है वह अन्नमय कोश की अधीनता मे है पर उसे ही अन्नमय कोश न समझ लेना चाहिए | मृत्यु हो जाने पर देह तो नष्ट हो जाती है पर अन्नमय कोश नष्ट नहीं होता है | वह जीव के साथ रहता है | बिना शरीर के भी जीव भूत-योनी मे या स्वर्ग नर्क मे उन भूख -प्यास , सर्दी -गर्मी , चोट , दर्द आदि को सहता है जो स्थूल शरीर से सम्बंधित है | इसी प्रकार उसे उन इन्द्रीय भोगों की चाह रहती है जो शरीर द्वारा ही भोगे जाने संभव हैं | भूतों की इच्छाएं वैसी ही आहार विहार की रहती है , जैसी मनुष्य शरीर धारियों की होती है | इससे प्रकट है की अन्नमय कोश शरीर का संचालक , कारण , उत्पादक उपभोक्ता आदि तो है पर उससे पृथक भी है | इसे सूक्ष्म शरीर भी कहा जा सकता है |
चिकित्सा पद्धतियों की पहुच स्थूल शरीर तक है जबकी कितने ही रोग ऐसे हैं जो अन्न मय कोश की विकृति के कारण उत्पन्न होते हैं और जिसे चिकित्सक ठीक करने मे प्रायः असमर्थ हो जाते हैं |
अन्नमय कोश की स्थिति के अनुसार शरीर का ढांचा और रंग -रूप बनता है | उसी के अनुसार इन्द्रियों की शक्तियां होती हैं | बालक जन्म से ही कितनी ही शारीरिक त्रुटियों , अपूर्णताएं या विशेषताएं लेकर आता है | किसी की देह आराम्भ से ही मोती , किसी की जन्म से ही पतली होती है | आँखों की दृष्टि , वाणी की विशेषता , मष्तिष्क का भोडा या तीव्र होना , किसी विशेष अंग का निर्बल या न्यून होना अन्नमय कोश की स्थिति के अनुरूप होता है | माता -पिता के राज-वीर्य का भी उसमे थोडा प्रभाव होता है पर विशेषता अपने कोश की ही रहती है | कितने ही बालक माता- पिता की अपेक्षा अनेक बातों मे बहुत भिन्न पाए जाते हैं |
शरीर जिस अन्न से बनता – बढ़ता है उसके भीतर सूक्ष्म जीवन तत्व रहता है जो की अन्न मय कोश को बनाता है | जैसे शरीर मे पांच कोश हैं वैसे ही अन्न मे भी तीन कोश हैं ..
१. स्थूल कोश
२. सूक्ष्म कोश
३. कारण कोश
स्थूल मे स्वाद और भार , सूक्ष्म मे पराभव और गुण तथा कारण कोश मे अन्न का संस्कार होता है | जिह्वा से केवल अन्न का स्वाद मालुम होता है , पेट उसके भार का अनुभव करता है , रस मे उसकी मादकता , उष्णता प्रकट होती है | अन्नमय कोश पर उसका संस्कार जमता है | माँस आदि कितने अभक्ष्य पदार्थ ऐसे हैं जो जीभ को स्वादिष्ट लगते हैं , देह को मोटा बनाने मे भी सहायक होते हैं , पर उनमे सूक्ष्म संस्कार ऐसा होता है जो अन्नमय कोश को विकृत कर देता है और उसका परिणाम अदृश्य रूप से आकस्मिक रोगों के रूप मे तथा जन्म जन्मांतर तक कुरूपता एवँ शारीरिक अपूर्णता के रूप मे चलता है | इसलिए आत्म -विद्या के ज्ञाता सदा सात्विक सुसंस्कारी अन्न पर जोर देते हैं ताकि स्थूल शरीर मे बीमारी, कुरूपता , अपूर्णता , आलस्य एवँ कमजोरी की बढोत्तरी न हो | अभक्ष्य खाने वाले आज नहीं तो भविष्य मे इसके शिकार हो ही जायेंगे | इस प्रकार अनीति से उपार्जित धन या पाप की कमाई प्रकट मे आकर्षक लगने पर भी अन्नमय कोश को दूषित करती हैं और अंत मे शरीर को विकृत तथा चिर रोगी बना देती है | धन संपन्न होने पर भी ऐसी दुर्दशा भोगने के अनेक उदाहरण प्रत्यक्ष दिखाई दिया करते हैं |
कितने ही शारीरिक विकारों की जड़ अन्नमय कोश मे ही होती है | उनका निवारण दवा -दारू से नहीं , यौगिक साधनों से हो सकता है | जैसे संयम , चिकित्सा , शल्य चिकित्सा , व्यायाम , मालिश , विश्राम , उत्तम आहार विहार , जलवायु आदि से शारीरिक स्वस्थ्य मे बहुत कुछ अंतर् हो सकता है | वैसे ही ऐसी भी प्रक्रिया है जिनके द्वारा अन्न मय कोश को परिमार्जित एवँ परिपुष्ट किया जा सकता है और विविध विधि शारीरिक अपूर्णताओं से छुटकारा पाया जा सकता है |
ऐसी पद्धतियों मे
१. उपवास
२. आसन
३. तत्व शुद्धि
४. तपश्चर्या
ये चार मुख्य हैं |
( इनके विषय मे आगे के पोस्ट्स मे )
Reference Books.
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