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गायत्री के पांच मुख पांच दिव्य कोश : अन्नमय कोश – २

गायत्री के पांच मुख पांच दिव्य कोश : अन्नमय कोश – २

अन्नमय कोश की शुद्धि के चार साधन –  १. उपवास

अन्नमय कोश की अनेक सूक्ष्म विकृतियों का परिवर्तन करने मे उपवास वही काम करता है जो चिकित्सक के द्वारा चिकित्सा के पूर्व जुलाब देने से होता है | ( चिकित्सक इसलिए जुलाब आदि देते हैं क्योकि दस्त होने से पेट साफ़ हो और औषधि अपना काम कर सके )

मोटे तौर पर उपवास के लाभ -पेट मे रुका अपच पचता है , विश्राम करने से पाचक अंग नव चेतना के साथ दूना काम करते हैं , आमाशय मे भरे अपक्व अन्न से जो विष बनता है वह ऐसे मे बनना बंद हो जाता है , आहार की बचत से आर्थिक लाभ होता है | डाक्टरों का यह भी निष्कर्ष है की स्वल्पाहारी दीर्घ जीवी होते हैं | ( ठूस- ठूस कर खाने वाले पेट को चैन ना लेने देने वाले लोगों की जीवनी शक्ति को नुक्सान पहुचता है, आयु कम होती है , रोग ग्रस्तता होती है )

गीता मे ‘विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः’ श्लोक मे बताया गया है की उपवास से विषय -विकारों की निवृति होती है | मन का विषय विकारों से रहित होना एक बहुत बड़ा मानसिक लाभ है उसे ध्यान मे रखते हुए प्रत्येक शुभ कार्य के साथ उपवास को भारतीय परमपराओं मे जोड़ दिया गया है | ( कन्यादान के दिन माँ-बाप उपवास करते हैं , अनुष्ठान के दिन आचार्य और यजमान , नौ दुर्गा मे भी आंशिक या पूर्ण उपवास की परंपरा है …आदि )

रोगियों के लिए उपवास को ‘जीवन मूरी’ कहा गया है | संक्रामक , कष्टसाध्य एवँ खतरनाक रोगों मे लंघन भी चिकित्सा का एक अंग है | ( निमोनिया , प्लेग , सन्निपात , टाइफाइड मे उपवास कराया जाता है )

इस तथ्य को हमारे ऋषियों ने अनिवार्य समझा था | इसी कारण हर महीने कई उपवासों का धार्मिक महत्व स्थापित किया था |

Panchkosh Attributes

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अन्नमय कोश की शुद्धि के लिए उपवास का विशेष महत्व है | शरीर मे कई जाति की उपत्यिकाएँ देखी जाती हैं , उन्हें शरीर शास्त्री ‘ नाड़ी -गुच्छक ‘ कहते हैं |वैज्ञानिक इन् नाड़ी गुच्छक के कार्यों का कुछ विशेष परिचय अभी प्राप्त नहीं कर पाए हैं , पर योगी लोग जानते हैं की ये उपत्यिकाएँ शरीर मे अन्नमय कोश की बंधन ग्रंथियां हैं | मृत्यु होते ही सब बंधन खुल जाते हैं और फिर एक भी गुच्छक दृष्टिगोचर नहीं होता | सब उपत्यिकाएँ अन्नमय कोश के गुण दोषों का प्रतीक हैं | ‘इन्धिका’ जाति की उपत्यिकाएँ चंचलता , अस्थिरता , उद्विग्नता की प्रतीक हैं | जिन व्यक्तियों मे इस जाति के नाडी गुच्छक अधिक हों तो उनका शरीर एक स्थान पर बैठकर काम न कर सकेगा | ‘दीपिका’ जाति की उपत्यिकाएँ जोष , क्रोध ,शारीरिक उष्णता, अधिक पाचन ,गर्मी ,खुश्की आदि उत्पन्न करेंगी | ऐसे गुच्छकों की अधिकता वाले रोग चर्म रोग , फोड़ा , फुंसी , नकसीर फूटना , पीला पेशाब , आँखों मे जलन आदि रोगों के शिकार होते हैं | इसी प्रकार अन्य गुच्छक मोचिका , पूषा , चन्द्रिका आदि हैं इनकी अधिकता भिन्न -भिन्न प्रकार के रोगों के कारण बनते हैं | ऐसे उपत्यिकाओं की भिन्न भिन्न ९६ जातियां मानी जाती हैं | ये ग्रंथियां ऐसी हैं जो शारीरिक स्थिति को अच्छानुकूल बनाने मे बाधक होती हैं | मनुष्य चाहता है की मै अपने शरीर को ऐसा बनाऊ , वह उपाय भी करता है पर कई बार वे उपाय सफल नहीं होते | कारण यह है की ये उपत्यिकाएँ शरीर मे भीतर ही भीतर ऐसी क्रिया और प्रेरणा उत्पन्न करती हैं जो बाह्य प्रयत्नों को सफल नहीं होने देती और मनुष्य अपने आपको बार बार असफल एवँ असहाय महसूस करता है | अन्नमय कोश को शरीर से बांधने वाली ये उपत्यिकाएँ शारीरिक एवँ मानसिक अकर्मों मे उलझकर विकृत होती हैं तथा सत्कर्मों से सुव्यवस्थित रहती है | आहार विहार का संयम तथा सात्विक दिनचर्या ठीक रखना , प्रकृति के आदेशों पर चलने वालों की उपत्यिकाएँ सुव्यवस्थित रहती हैं | साथ ही कुछ अन्य यौगिक उपाय भी हैं जो उन आंतरिक विकारों पर काबू पा सकते हैं जिन्हें केवल वाह्य उपचारों से सुधारना कठिन है |

उपवास से उपत्यिकाओं के संशोधन , परिमार्जन और सुसंतुसन से बड़ा सम्बन्ध है | योग साधना मे उपवास का एक सुविस्तृत विज्ञान है | अमुक अवसर पर ; अमुक मास मे ; अमुक मुहूर्त मे ; अमुक प्रकार से उपवास करने का अमुक फल होता है | ऐसे आदेश शास्त्रों मे जगह जगह मिलते हैं | ऋतुओं के अनुसार शरीर की ६ अग्नियाँ न्यूनाधिक होती रहती हैं | ऊष्मा , बहुवृच , ह्वादी, रोहिता , आत्पता , व्याती यह ६ शरीरगत अग्नियाँ ग्रीष्म से लेकर बसंत तक ६ ऋतुओं मे क्रियाशील रहती हैं |

इनमे से प्रत्येक के गुण भिन्न -भिन्न हैं |

१. उत्तरायण , दक्षिणायन की गोलार्ध स्थिति
२. चन्द्रमा की बढ़ती घटती कलाएं
३. नक्षत्रों का भूमि पर आने वाला प्रभाव
४. सूर्य की अंश किरणों का मार्ग ,,

इनसे ऋतू अग्नियों का सम्बन्ध है अतः ऋषियों ने ऐसे पुण्य पर्व निश्चित किये हैं जिससे अमुक प्रकार से उपवास करने पर अमुक प्रभाव हो |

उपवासों के पांच भेद हैं —

१. पाचक ( जो पेट की अपच , अजीर्ण , कोष्ठबद्धता को पचाते हैं )
२. शोधक ( जो भूखे रहने पर रोगों को नष्ट करते हैं इन्हें लंघन भी कहते हैं )
३. शामक ( जो कुविचारों , मानसिक विकारों , दुष्प्रवृतियों एवँ विकृत उपत्यिकाओं को शमन करते हैं )
४. आनस ( जो किसी विशेष प्रयोजन के लिए , दैवी शक्ति को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए किये जाते हैं )
५. पावस ( जो पापों के प्रायश्चित के लिए होते हैं ) ।

आत्मिक और मानसिक स्थिति के अनुरूप कौन सा उपवास उपयुक्त होगा और उसके क्या नियमोपनियम होने चाहिए इसका निर्णय करने के लिए गंभीरता की आवश्यकता है |

पाचक उपवास मे भोजन तब तक छोड़ देना चाहिये जब तक भूख ना लगे | एक दो दिन का उपवास करने से कब्ज पच जाता है | पाचक उपवास मे नीम्बू का रस या अन्य पाचक औषधि की सहायता ली जा सकती है | शोधक उपवास के साथ विश्राम आवश्यक है यह लगातार आवश्यक है जबतक रोग खतरनाक स्थिति से अलग हट जाए | शामक उपवास दूध , छाछ फलों का रस आदि पर चलते हैं | इसमें स्वाध्याय , मनन , एकांत सेवन , मौन , जप , ध्यान , पूजा , प्रार्थना आदि आत्म शुद्धि के उपचार भी साथ मे करने चाहिए | अनास उपवास मे सूर्य की किरणों द्वारा अभीष्ट दैवी शक्ति का आह्वान करना चाहिए | पावस उपवास मे केवल जल लेना चाहिए और सच्चे ह्रदय से प्रभु से क्षमा याचना करना चाहिए की भविष्य मे वैसा अपराध नहीं होगा |

साधारणतः सप्ताह मे एक दिन उपवास अवश्य रहना चाहिए | गायत्री साधक के लिए रविवार सर्वाधिक उपयुक्त है |

 

Reference Books:

  1.  गायत्री महाविज्ञान – पूज्य पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य
  2. गायत्री की पंचकोशी साधना एवं उनकी उपलब्धियां – पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य 

 

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