Atharvaveda Aatmsukta Vidya
Aatmanusandhan – Online Global Class – 31 July 2022 (5:00 am to 06:30 am) – Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ।
SUBJECT: अथर्ववेद (आत्मविद्या सूक्त)
Broadcasting: आ॰ अंकूर जी/ आ॰ अमन जी/ आ॰ नितिन जी
शिक्षक: श्रद्धेय श्री लाल बिहारी सिंह @ बाबूजी (प्रज्ञाकुंज, सासाराम, बिहार)
‘संसार‘ की अच्छी-बुरी तस्वीर वस्तुतः हमारे दृष्टिकोण और मनोदशा पर निर्भर है । दूसरों को भले रूप में देखना, भले दृष्टिकोण (positivity) और बुरे रूप में देखना, बुरे दृष्टिकोण (negativity) के resultant हैं ।
हर वस्तु के अच्छे-बुरे दोनों पहलू होते हैं । दोष रहित, निर्विकार और सदा शुद्ध तो एक मात्र परमात्म-सत्ता ब्रह्म ही है ।
विज्ञानमयकोश में हम संसार की परिवर्तनशीलता के रहस्य को समझ जाते हैं (आत्मस्थित) । फलस्वरूप संसार हमारी प्रगति में बाधक नहीं प्रत्युत् सहयोगी प्रतीत होता है ।
अथर्ववेद (आत्मसुक्त): ऋषि – वेन, देवता – आत्मा । ऋषि स्वयं ही प्रश्न उठाते हैं और स्वयं ही समाधान प्रस्तुत करते हैं । http://literature.awgp.org/book/atharveda/v1.108
‘कः‘ – आत्म – परमात्मा संज्ञक । हमें ‘आत्मसाधना‘ करनी चाहिए ।
पृथ्वी तत्त्व की आत्मा जल,
जल तत्त्व की आत्मा अग्नि,
अग्नि तत्त्व की आत्मा वायु,
वायु तत्त्व की आत्मा आकाश ।
हमें उस (ब्रह्म) सर्व ऐश्वर्य प्रदाता, सच्चिदानंद, नियंता (सृष्टा – ‘एकोऽम बहुस्यामः’, नियामक, परिवर्तनकर्त्ता), सर्वव्यापी (विश्वातीत, विश्वमय व सर्वेश्वर – अणोरणीयान्, महतो महीयान्) सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान आत्म – परमात्म तत्त्व का पूजन (उपासना + साधना+ अराधना) करनी चाहिए । वही एक देव सब भूतों में ओतप्रोत होकर सबकी ‘अन्तरात्मा‘ के रूप में सर्वज्ञ व्याप्त हैं ।
व्यष्टि और समष्टि में ‘आत्मा’ का वह प्रेम प्रकाश (रसो वै सः) ही ईश्वर की मंगलमयी रचना का संदेश दे रहा है ।
(ब्रह्म) परमात्मा ‘निराकार’ होने की तरह ‘साकार’ भी है । ‘विश्व’ ब्रह्माण्ड को ‘परमात्मा’ का साकार रूप समझ सकते हैं । वह एक ऐसी चेतन सत्ता है जिससे संसार का न तो एक कण रिक्त है न एक क्षण ।
‘ब्रह्म’ के अतिरिक्त ‘ब्रह्मांड’ में और कुछ नहीं है @ एकं ब्रह्म द्वितीयो नास्ति @ अद्वैत।
जिज्ञासा समाधान
दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन – वासना (मोह) + तृष्णा (लोभ) + अहंता (अहंकार) की गांठें फोड़ना/ गलाना/ सुलझाना व सत्प्रवृत्ति संवर्धन – ओजस् + तेजस् + वर्चस् ।
‘आत्मसाधना’ के आवश्यक तत्व :-
1. श्रद्धा (समर्पण, ईश्वर प्राणिधान)
2. प्रज्ञा
3. निष्ठा
‘आत्मसाधक’ का व्यक्तित्व:-
1. उत्कृष्ट चिंतन (ज्ञानयोग)
2. आदर्श चरित्र (कर्मयोग)
3. शालीन व्यवहार (भक्तियोग)
‘दूध‘ को पतला करने का उद्देश्य सहजता से पाचन हो सकता है । बाल्यकाल में जो दूध आसानी से पचे वो provide किया जाता है । मां के दूध के संग भाव प्रवाह भी चलता है । कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता ना भवति ।
‘परमात्मा’ की प्राप्ति सच्चे प्रेम (आत्मीयता) द्वारा ही संभव है ।
मैं आत्मा हूं; शरीर मेरा वाहन है । आत्मानुभूति योग,सोऽहं साधना आदि को दैनिक अभ्यास में स्थान देने से शरीर भाव से उपर उठा जा सकता है ।
ईश्वरानुभूति अन्धश्रद्धा युक्त नहीं है । प्रज्ञा बुद्धि (विवेकशीलता, दूरदर्शिता) से काम लेवें । कल्याण भाव युक्त हर एक कार्य ईश्वरीय कार्य हैं । ईश्वर की महानता, विशालता, सहयोग, प्रेम को समझते हुए ईशानुशासन (आत्मानुशासन) को जीवन में धारण करें ।
‘अज्ञान, अशक्ति व अभाव’ समस्त दुःख/ ताप के मूल हैं । अतः त्रिपदा गायत्री (ज्ञान, कर्म व भक्ति) की ‘उपासना साधना व अराधना’ से त्रिताप शांत होते हैं व मोक्ष का मार्ग प्रशस्त होता है ।
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः ।।
Writer: Vishnu Anand
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