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Avdhoot Upanishad – 1

Avdhoot Upanishad – 1

PANCHKOSH SADHNA – Gupt Navratri Sadhna – Online Global Class – 11 Jul 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

SUBJECT:  अवधूत उपनिषद् – 1

Broadcasting: आ॰ अंकुर जी

भावार्थ वाचन – आ॰ किरण चावला जी (USA)

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

ॐ सहनावतु सह नौ भुनत्तु सहवीर्यं करवावहै, तेजस्विनां धीतमस्तु मा विद्विषावहै।

सांकृति ने भगवान् दत्तात्रेय जी के समीप जाकर पूछा- ‘हे भगवन् !
अवधूत कौन है?
उसकी स्थिति किस तरह की होती है?
उसका लक्षण किस प्रकार का होता है? तथा
उसका संसार किस प्रकार का होता है?
उनके इन प्रश्नों को सुनकर परम कृपालु भगवान् दत्तात्रेयजी ने कहा॥१॥

जो अक्षर अर्थात् अविनाशी हो, वरण करने योग्य हो, संसार रूपी बन्धनों से रहित हो तथा ‘तत्त्वमसि’ आदि वाक्यों के लक्ष्यार्थ बोध से युक्त हो, उसे ही ‘अवधूत’ कहा जाता है॥२॥

‘ – अविनाशी (आत्मबोध), ‘‘ – वरेण्यं (आत्मीय), ‘धू‘ – धूत संसार बन्धनं (अनासक्त/ निष्काम), ‘‘ – तत्त्वमसि (तत्त्वबोध) आदि का बोधत्व किया हो वो ‘अवधूत’  कहे जाते हैं। अवधूत अर्थात् स्थितप्रज्ञ @ विदेह @ जीवन-मुक्त @ अद्वैत

जो योगी पुरुष आश्रम एवं वर्ण व्यवस्था से ऊपर उठकर आत्मा में ही सदैव स्थित रहता हो, वह वर्णाश्रम-रहित योगी पुरुष ‘अवधूत’ कहा जाता है॥३॥

योग्यताओं/ प्रतिभाओं के सदुपयोग की व्यवस्था को वर्ण-व्यवस्था कहते हैं। और उस काल अवधि (time period) को आश्रम व्यवस्था अंतर्गत रखा जाता है।

उस का ‘प्रिय’ ही सिर है, ‘मोद’ दायाँ बाजू और ‘प्रमोद’ बायाँ बाजू है तथा ‘आनन्द’ मध्य आत्मा है। उसकी स्थिति गाय के पैर के सदृश (चार – प्रिय, मोद, प्रमोद एवं आनन्द रूप) हो जाती है॥४॥

अवधूत हर हाल मस्त अर्थात् आनंदित रहते हैं। ‘आत्मस्थित’ होने की वजह से वो सभी भूतों में अपनी आत्मा व अपने में सभी भूतों को देखते हैं। अतः सभी प्रिय (आत्मीय – आत्मवत्सर्वभूतेषु) होते हैं। 

इस प्रकार ब्रह्म को भली प्रकार जानकर वे ‘परमगति’ को प्राप्त करते हैं। ‘अमरत्व’ की प्राप्ति न तो विभिन्न कर्मों के द्वारा, न प्रजा के द्वारा और न ही धन के द्वारा होती है। एक मात्र ‘त्याग’ के द्वारा ही अमरत्व को प्राप्त किया जा सकता है॥६॥

त्याग‘ अर्थात् निःस्वार्थ प्रेम से अमरत्व को प्राप्त किया जा सकता है। श्रद्धावान् लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः। ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।। अर्थ : जितेन्द्रिय, साधन में रत और श्रद्धावान पुरुष ही ज्ञान को प्राप्त होता है और ज्ञान प्राप्ति से तत्काल ही वह परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है। 

अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार व्यवहार करना ही उन योगियों का संसार है। उनमें से कितने ही तो वस्त्रों को धारण करते हैं और कितने ही दिगम्बर अर्थात् बिना वस्त्रों के ही रहते हैं। उन योगियों के लिए न कुछ धर्म है और न ही कुछ अधर्म है, पवित्र एवं अपवित्र आदि भी कुछ नहीं है। सदा संग्रह की दृष्टि से वे अन्त:करण में अश्वमेध यज्ञ किया करते हैं। यही उनका महायज्ञ और महायोग है॥७॥

बाह्य वेश-भूषा को देखकर हमें मूल्यांकन नहीं करना चाहिए। @  “don’t judge a book by its cover” 

इस प्रकार उन योगियों का सम्पूर्ण चरित्र आश्चर्य युक्त होता है। उनके इस प्रकार के चित्र-विचित्र कर्मों की निन्दा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि यही उनका महाव्रत है। वे अज्ञानी मनुष्यों की भाँति लिप्त नहीं होते। वे सदैव निर्लिप्त भाव से इच्छानुसार विचरण करते रहते हैं॥८॥

जिस प्रकार सूर्य सभी प्रकार के रसों को ग्रहण करता है तथा अग्नि सभी कुछ भक्षण कर लेता है, उसी प्रकार योगी पुरुष विषयादि भोगों का उपभोग करता हुआ भी शुद्ध होने के कारण पाप-पुण्यादि का भागीदार नहीं बनता॥९॥

जिस प्रकार चारों ओर से परिपूर्ण होने पर भी अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में जल प्रविष्ट होता है, वैसे ही योगी पुरुष सभी विषय-भोगों के रहने पर भी अचल रहता है और शान्ति को प्राप्त करता है। विषयभोगों की इच्छा करने वाला कामना युक्त मनुष्य वैसी शान्ति नहीं प्राप्त करता॥१०॥

अत: सत्य बात तो यह है कि किसी का लय नहीं है, किसी की उत्पत्ति नहीं है, कोई आबद्ध हुआ नहीं है, कोई साधक नहीं है, कोई मुमुक्षु नहीं है तथा कोई मुक्त भी नहीं है, यही वास्तविक स्थिति है॥११॥

इस लोक एवं परलोक के कृत्यों की सिद्धि के लिए, वैसे ही मुक्ति की सिद्धि के लिए सर्वप्रथम मुझे बहुत कुछ करना अत्यन्त आवश्यक था; परन्तु अब यह सभी कुछ हो चुका है॥१२॥

इस तरह से हर एक योग को मुख्यरूप से अनुसंधान करता हुआ वह अवधूत इसी में कृतकृत्य होता हुआ सदैव तृप्त होता रहता है॥१३॥

अज्ञानीजन पुत्रादि की इच्छा से अत्यन्त दु:खी होकर संसार के आवागमन में फँसते रहे; किन्तु मैं तो परम आनन्द से परिपूर्ण हूँ, तब फिर कौन सी इच्छा के कारण इस संसार में पुनः फँसू?॥१४॥

जिन्हें परलोक गमन की इच्छा हो, वे लोग चाहे उस इच्छा से भले ही कर्म किया करें; परन्तु मैं समस्त लोकों का आत्मा हूँ, सर्वलोकमय बन गया हूँ, तो फिर मैं कोई भी कर्म क्यों करूं॥१५॥

जिन लोगों को इस बात का अधिकार हो, वे भले ही प्रवचन किया करें, चाहे वेदों को पढ़ाते रहें, किन्तु मुझे तो इसका अधिकार ही नहीं; क्योंकि मैं तो निष्क्रिय  हूँ॥१६॥

मैं निद्रा की, भिक्षा की, स्नान अथवा शौच आदि की तनिक भी इच्छा नहीं करता। जो लोग द्रष्टा स्तर के हों, वे भले ही अन्य कोई कल्पना करें; परन्तु मुझे किसी अन्य की कल्पना करने से कोई लाभ नहीं। अन्य लोग गुआ की लालिमा के कारण उसमें भले ही अग्नि को प्रतिष्ठित करें, किन्तु इस अग्नि से गुञ्जा का ढेर नहीं जलता है। तब फिर मेरे अन्दर तो संसार के धर्म आरोपित ही नहीं है, इस कारण मैं किसी का भी भजन नहीं करता॥१७॥

जो लोग तत्त्व को न जानते हों, वे भले ही कुछ भी श्रवण करें; किन्तु मैं तो स्वयं ही तत्त्व को जानने में समर्थ हूँ। फिर किस लिए श्रवण करूं? जो लोग संशय में पड़े हों, वे मनन करें। मुझे तो किसी भी तरह का संशय ही नहीं है, इस कारण से मैं मनन नहीं करता॥१८॥

ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्। तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्।। अर्थ: जड़-चेतन प्राणियों वाली यह समस्त सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है। मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे, परंतु ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव के साथ’ उनका संग्रह न करे।

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्वयक्त्वा करोति यः। लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा।। (गीता 5/10) अर्थ: जो आसक्ति त्याग कर सभी कर्मों को ब्रह्म को समर्पित करके, निष्काम कर्म करता है, वह जल से कमल के पत्ते की भाँति पाप से लिप्त नहीं होता ।

जिज्ञासा समाधान

गाय‘ को शुद्धतम् पवित्रतम विशुद्ध ज्ञानात्मक अवस्था @ आत्मज्ञान @ ब्रह्मज्ञान के अर्थों में ले सकते हैं। ‘गय’ का एक अर्थ प्राण भी होता है। श्रद्धावान्, प्रज्ञावान्, निष्ठावान व्यक्तित्व लक्ष्य का बोधत्व करते हैं।

अन्नमयकोश के साधन ‘तत्त्वशुद्धि’ के श्रद्धापूर्वक सहज नियमित अभ्यास से पंचतत्व संतुलन बनाए रखें जा सकते हैं। ऊषापान (जल), प्राणायाम (वायु), सविता का ध्यान व धूप स्नान (अग्नि), मिट्टी स्नान/gardening (पृथ्वी), स्वाध्याय (आकाश) आदि को दैनंदिन जीवन में शामिल किया जा सकता है।

आत्मविस्मृति से निवृत्ति हेतु आत्मबोध व तत्त्वबोध की दैनंदिन साधना महाप्रभावी हैं। सुबह की शुरुआत उपनिषद् (शाश्वत सत्य) स्वाध्याय से की जा सकती है। पंचकोशी क्रियायोग का नियमित अभ्यास मददगार साबित हो सकते हैं।

आशंका/ संशय/ अज्ञान – भय को जन्म देती हैं। ज्ञानेन मुक्ति।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

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