Pragyakunj, Sasaram, BR-821113, India
panchkosh.yoga[At]gmail.com

Avdhoot Upanishad – 2

Avdhoot Upanishad – 2

PANCHKOSH SADHNA – Gupt Navratri Sadhna – Online Global Class – 18 Jul 2021 (5:00 am to 06:30 am) –  Pragyakunj Sasaram _ प्रशिक्षक श्री लाल बिहारी सिंह

ॐ भूर्भुवः स्‍वः तत्‍सवितुर्वरेण्‍यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्‌|

SUBJECT:  अवधूत उपनिषद् – 2

Broadcasting: आ॰ नितिन जी

भावार्थ वाचनआ॰ किरण चावला जी (USA)

श्रद्धेय लाल बिहारी बाबूजी

अवधूत, परमहंस का पर्यायवाची शब्द है। योगी, स्थितप्रज्ञ, जीवन-मुक्त, विदेह आदि शब्दों को इन अर्थों में लिया जा सकता है।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय। सिद्ध्यसिद्ध्योः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।2.48।। भावार्थ: हे धनञ्जय ! तू आसक्तिका त्याग करके सिद्धि-असिद्धि में सम होकर योग में स्थित हुआ कर्मों को कर; क्योंकि समत्व ही योग कहा जाता है।
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्‌। विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥२-१७॥ भावार्थ: नाशरहित तो तुम उसको जानो, जिससे यह सम्पूर्ण दृश्य जगत्‌ व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है॥
अवधूत को परिभाषित करते हुए कहा गया है – अक्षरत्वात् वरेण्यत्वात् धूतसंसारबन्धनात् तत्त्वमस्यर्थसिद्धत्वादवधूतोSभिधीयते
आत्मीयता @ अहैतुकी प्रेम @ निःस्वार्थ प्रेम @ अनासक्त @ निष्काम भाव हेतु लोभ (पदार्थ गत आसक्ति – वासना), मोह (संबंध गत आसक्ति – तृष्णा) व अहंकार (ससीम मान्यताओं से आसक्ति) से निवृत्ति अर्थात् व्यष्टिगत जीव भाव का समष्टिगत शिव भाव में समर्पण विलय विसर्जन करना होता है।

भावार्थ वाचन

जिसको विपर्यास अर्थात् विपरीत ज्ञान हुआ हो, वह भले ही निदिध्यासन करे; परन्तु जहाँ पर विपर्यास ही नहीं, वहाँ पर ध्यान की आवश्यकता नहीं होती। शरीर को आत्मा मान लेने का विपर्यास मुझ को नहीं होता। इस कारण निदिध्यासन की आवश्यकता ही नहीं पड़ती॥१९॥

मैं मनुष्य हूँ, इस तरह का व्यवहार भी बिना विपर्यास के नहीं होता। यह विपर्यास भी दीर्घकाल से अभ्यास में पड़ी वासना के कारण ही होता है॥२०॥

प्रारब्ध कर्मों के विनष्ट होने पर ही यह व्यवहार निवर्तित (बन्द) होता है; किन्तु प्रारब्ध कर्मों का नाश न हुआ हो, तब तक सहस्रों बार चिन्तन करने के बाद भी यह व्यवहार शान्त नहीं होता॥२१॥

यदि व्यवहार कर्म करने की इच्छा हो, तो तुम अपनी इच्छानुसार ध्यान करो; परन्तु मेरी दृष्टि में तो कर्मों का कोई व्यवहार ही नहीं, तो मैं किसलिए ध्यान करूं॥२२॥

मुझे विक्षेप अर्थात् चित्त की अस्थिरता होती ही नहीं, इस कारण से मुझे समाधि-अवस्था की जरूरत ही नहीं पड़ती। जब यह मन विकारग्रस्त होता है, तब चित्त अस्थिर होता है और तभी समाधि की आवश्यकता होती है। मैं तो नित्य ही अनुभव रूप हूँ। समाधि में मुझे और क्या कुछ भिन्न अनुभव हो सकता है?॥२३॥

मुझे जो-जो करना है, वह-वह मैंने किया तथा जो कुछ भी प्राप्त करना है, वह सदा ही प्राप्त करता रहा। इस कारण लौकिक, शास्त्रीय या फिर अन्य किसी भी तरह का व्यवहार मुझे क्यों करना चाहिए? अतः मैं नहीं करता हूँ। मुझे किसी भी बात की लिप्तता नहीं है। सहज प्राकृतिक ढंग से जो होता है, उसी में रत रहता हूँ॥२४-२५॥

अथवा मैं कृत-कृत्य हूँ, तब भी साधारण लोगों पर अनुग्रह करने की इच्छा से यदि शास्त्राज्ञानुसार मैं चलता हूँ, तो इसमें मेरी क्या हानि है?॥२६॥

मैं कृत-कृत्य होने से पूर्ण तृप्त हूँ तथा जो कुछ भी मुझे प्राप्त करना था, वह सभी कुछ प्राप्त कर लिया है। इस प्रकार से इस तृप्ति को ही मैं निरन्तर अपने मन में मानता रहता हूँ॥२९॥

मैं धन्य हूँ-धन्य हूँ; क्योंकि मैं नित्य, अविनाशी अपने आत्म-तत्त्व को सहज रूप से ही जानता हूँ। मैं धन्य हूँ- मैं धन्य हूँ; क्योंकि मुझे ब्रह्म का आनन्द स्पष्टतया प्रकाश प्रदान करता है॥३०॥

मैं धन्य हूँ- मैं धन्य हूँ, क्योंकि मैं अब इस नाशवान् संसार का दुःख बिलकुल भी नहीं देखता। मैं धन्य हूँ- मैं धन्य हूँ; क्योंकि मेरा अज्ञान कभी का विनष्ट हो गया है॥३१॥

मैं धन्य हूँ- मैं धन्य हूँ; क्योंकि मुझे अब कुछ भी करना शेष नहीं है। मैं धन्य हूँ-मैं धन्य हूँ; क्योंकि मुझे जो कुछ भी प्राप्त करना है, वह सभी कुछ मैंने यहीं पर पहले ही प्राप्त कर लिया है॥३२॥

मैं धन्य हूँ- मैं धन्य हूँ; क्योंकि मेरी तृप्ति की क्या इस लोक में कोई उपमा है। मैं धन्य हूँ- मैं धन्य हूँ; मैं बारम्बार धन्य हूँ- धन्य हूँ॥३३॥

अहो पुण्य! अहो पुण्य! ! इस पुण्य की सफलता दृढ़तापूर्वक फलीभूत हुई है। धन्य हैं हम सब॥३४॥

अहो ज्ञान! अहो ज्ञान! ! अहो सुख ! अहो सुख! ! अहो शास्त्र! अहो शास्त्र ! ! अहो गुरु ! अहो गुरु ! ! ॥३५॥

इस प्रकार जो भी मनुष्य इस उपनिषद् का पाठ करता है, वह कृत-कृत्य हो जाता है। मदिरापान करने वाला, सुवर्ण की चोरी करने वाला, ब्रह्महत्या करने वाला, कृत्याकृत्य करने वाला भी इसका पाठ करने से पवित्र हो जाता है। मनुष्य इसका पाठ करने मात्र से पवित्र हो जाता है। मनुष्य इस तरह का ज्ञान प्राप्त करने के उपरान्त अपनी इच्छानुसार प्रवृत्त हो जाता है। ॐ ही सत्य है, यही उपनिषद् है॥३६॥

श्रद्धा विज्ञान! श्रद्धया सत्य माप्यते। श्रद्धा की आंख ‘प्रज्ञा’ हैं। श्रद्धावान् लभते ज्ञानं। इनमें निष्ठा/ विश्वास की भूमिका अप्रतिम है। रामायण में कहते हैं – भवानीशंकरौ वंदे श्रद्धा विश्वासरूपिणौ। याभ्यां बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थमीश्वरम्।।

पंचकोश अनावरण @ ऋतंभरा प्रज्ञा जागरण अर्थात् विशुद्ध चित्त के बाद आत्म – परमात्म बोध के बाद ‘साधन’ भाव (क्रिया – कर्मकाण्ड) तिरोहित हो जाता है ‌@ न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायुः न वा सप्तधातुः न वा पञ्चकोशः। न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम्
फिर भी प्रेरणाओं के प्रसारण (लोककल्याण) हेतु वो शास्त्रानुकूल आचरण करते हैं।
विशुद्ध चित्त @ ऋतंभरा प्रज्ञा जागरण पूर्व प्रारब्ध कर्म विनिष्ट नहीं होते।

उपनिषद् ‘पाठ’ करना, पढ़ने (reading) तक ही सीमित नहीं है प्रत्युत् ‘approach – digestion – realisation’ तक है। अर्थात् विचार – ‘ज्ञान, कर्म व भक्ति’ @ ‘उपासना, साधना व अराधना’ की त्रिवेणी से गुजरकर हमारे ‘गुण, कर्म व स्वभाव’ में परिलक्षित हों। अर्थात् हमारा चिंतन – उत्कृष्ट, चरित्र – आदर्श/ प्रखर व व्यवहार – शालीन हों‌।

गायत्री त्रिपदा हैं। हमने ‘ज्ञान’ अर्जित किया, उसके उपयोग (practice ‘कर्म’) से ‘सफलता’ (रिद्धि – सिद्धि) अर्जित की और उसे ‘सेवा’ (service – आत्मकल्याण लोककल्याण ‘भक्ति’) में लगाया।

जिज्ञासा समाधान

अवधूत‘ परमहंस की स्थिति है। ऐसा स्तर commonly नहीं मिलता प्रत्युत् exceptional है। अतः सर्वसाधारण को लक्ष्य बोध के लिए ‘तप व योग’ का समन्वित क्रम (उपासना, साधना व अराधना) अपनाना होता है। यकीन मानिए हम अवधूत को अंशों में भी जीते हैं तो हमारी प्रगति जारी है।

सार्थक प्रभावी उपदेश वह है, जो वाणी से नहीं प्रत्युत् अपने आचरण से प्रस्तुत किया जाता है।

पुंसवन संस्कार – गर्भस्थ शिशु के समुचित विकास हेतु गर्भिणी मां का यह संस्कार किया जाता है। संस्कारवान पीढ़ी हेतु माता-पिता का सुसंस्कारी होना आवश्यक है।

परंपरा/ कर्मकाण्ड में कल्याण (good use) का भाव सन्निहित होता है। अगर हम कल्याण भाव (विवेक दृष्टिकोण) को लेकर चलें तो कहीं भी ‘विक्षेप’ नहीं होगा।
परंपरा सर्वकालिक व सार्वभौम नहीं होते हैं। अतः गुरूदेव कहते हैं कि – परंपराओं की जगह विवेक को महत्व देंगे

अवधूत, अद्वैत स्तर के हैं। वहां एकत्व (no difference) है। दाता (देने वाले) ‘देवता’ हैं। गायत्री महामंत्र के देवता सविता हैं। सविता सर्वभूतानां सर्वभावश्च सूयते। 

आदर्शों के प्रति प्रेम को ‘श्रद्धा’ कहते हैं।

ॐ  शांतिः शांतिः शांतिः।।

Writer: Vishnu Anand

 

No Comments

Add your comment